प्रवीण कुमार सिंह
‘गाली के जवाब में गोली चल जाती है।’ ये पान सिंह तोमर में इरफान खान बोलते हैं। एक और पुरानी कहावत है कि बोली पर गोली चल जाती है। बोली कोई भी हो। वो बिना गाली के नहीं हो सकती है। जैसें बोली से पता चलता है। कि इंसान सभ्य है कि असभ्य है। पढ़ा-लिखा है कि बिना पढ़ा-लिखा है। ये वर्गीय विभाजन गाली में भी है। पढ़ा लिखा षुद्ध भाषा में गाली देगा। जबकि बिना पढ़ा-लिखा बेचारा ठेठ देसज अंदाज में गाली देता है।
बेचारी गालियां भी समाज के भेदभाव और ऊॅंच-नीच से बच नहीं पाई। इनको कई प्रकार और कई श्रेणियों में बांट दिया गया हैं। विद्वान और साहित्यकार लोग किसी को गाली देंगे तो महामूर्ख असाहित्यक निरक्षर और लिखा-पढ़ा बोलेंगे। वो बंदा समझ नहीं पायेगा कि गाली दे रहें हैं कि अपुन की तारीफ कर रहे हैं। और साहित्यकार साहब अपने भड़ास की ज्वालामुखी शान्त कर लिये।
कम्युनिस्ट गाली में बुर्जवा, प्रतिक्रियावादी, फासिस्ट, साम्राज्यवादी की उपाधि देते हैं। गाली खाने वाले को समझ में नहीं आये़गा कि ये गाली है कि भौतिकवादी दर्शन। हो सकता है वो बेचारा गाली का अर्थ समझते-समझते। अपना दिमाग खो बैठे। दक्षिणपंथी गाली में विरोधी को हिन्दू विरोधी, राष्ट्रद्रोही, राष्ट्र के कलंक बताते हैं। गाली खाने वाले के पल्ले नहीं पड़ता कि इस सर्टिफिकेट का करें क्या। राजनीति के नवेले प्लेयर केजरीवाल की गालियां तो सुपरहिट हैं। उनका साहित्य और सिनेमा में बकायदा प्रयोग किया जा रहा है। नरेन्द्र भाई की गाली में काशी में किये पावन गंगा स्नान की यादें और रस भरी बातें हैं।‘‘ ..कि बचवा रेनकोट पहन के न नहाऔं, अउर एक्के डुबकी लगायो।’’ वैसे काशी शिव की नगरी के अलावा ठेठ गाली के लिए भी जगत प्रसिद्ध है। विश्वास न हो तो ‘काशी की अस्सी’ पढ़ लीजिये।
अगर गाली का रस लेना है तो कद्रान अवध पधारिये। मियां नज़ाकत और नफ़ासत से गाली देते हैं। सुनने वाले को समझ नहीं आयेगा कि गाली खा रहा है कि पान की गिलौरियॉं।
धर्मक्षेत्र-कुरूक्षेत्र हरियाणा में आजकल गाली राष्ट्रवादी परिधान में दी जाती है। पड़ोसी साढ़ा पंजाब में गाली लस्सी के साथ मिक्स हो गई है। साढ़ा विच कुछ मजा सजा नहीं आता है।
चाहे गाली ठेठ हो या भदेष वालीवुड उसे राष्ट्रव्यापी बना देता है। बच्चा भी स्टाईल में गाली देने लगता है। फिल्मों ने तो निरीह पालतू कुत्ते को भी नहीं छोड़ा सरेबाजार उसे कमीना बना दिया। कुत्तो के लिए दिल जान एक करने वाले कुत्ता भक्त भी इसका विरोध नहीं करते कि ‘मेरे कुत्ते को गाली मत दो’। पशु चिंतक मेनका गांधी ने भी इनके लिए अवाज नहीं उठायी।
कृश्न चंदर का बोलने वाला प्यारा गधा (एक गधे की आत्मकथा) शान्त है। उस बेचारे के साथ नस्लीय भेदभाव किया जा रहा है। और समुद्री गधे को इज्जत बक्षा जा रहा है। अब गधा बोलना सम्मान की बात हो गई है।
गाली का सबसे ज्यादा महत्व होली में है। होली में रंग-गुलाल के साथ गाली फ्री दी जाती है। ब्रज के राधा-कृष्ण की होली मषहूर है। पर ये पता नहीं चलता कि कृष्णकाल में रंग के साथ-साथ सब ग्वाल-बाल गाली भी देते थे कि नहीं। या फिर कलयुग में भक्तगण ने रंग के साथ भंग और गाली का श्रीगणेश किया।
हमारे यहां शादी में गाली न हो तो वो शादी नहीं बर्बादी लगती है। पैसा देकर चाव से गाली सुनी जाती है। वधू की विदाई से पहले खिचड़ी-खवाई में तो दूल्हे राजा के फूफी, दीदी, चाची और मामा की एैसी की तैसी हो जाती है।
गाली की अपनी शैली और अपना अंदाज है। गाली पर कोई इतिहासविद्, शोधार्थी, साहित्यकार ने काम नहीं किया। लेकिन गाली सर्वव्यापी है। हर मनुष्य बोलता है और हर जगह बोली जाती है। गाली का अपना सौंदर्य शास्त्र और रस है। कुछ धुरन्धर बोली कम गाली ज्यादा देते हैं। गाली उनके लिए तकिया कलाम है। अगर उनकी गाली बंद करा दिया जाय तो श्वास रूक जायेगी। शायद परलोक भी सिधार जायं। गाली का अर्थ भी अनेका-अनेक है।
जीजा साला को गाली न दे तो साला अपने को दुलारा नहीं समझता। भाभी देवर को गाली न दे तो देवर बेचारा अपने को किस्मत का मारा समझता है। करमजले जीजा तो अपनी सालियों पर आधी घरवाली का अधिकार जताते रहते हैं। पर साली बेचारी खूसट जीजी का ताना बर्दाश्त करने के अलावा क्या कर सकती है। बाई द वे अगर उनके प्रापर्टी पर आधा अधिकार जताने लगे, तो जीजा झट से दलबदल कर भाई बन जाते हैं।
हम गाली में दूसरे की मां-बहन एक देते हैं। बाप की गाली नहीं होती है। होली के रंग-बिरंगें गीतो में महिलाओं की चुनरी गिराने व उठाने वाले वाले मनोज तिवारी ‘मृदुल’ का हृदय फागुन की बयार से एकाएक बदल गया। वो संसद में महिलाओं के सच्चे पैरोकार बन गये हैं। दिलफेक आशिक भी इनके मधुर गीत गाने-गुनगुनाने में शर्म करने लगे हैं।
महिला एक्टविस्टो ने बोला है कि हम ही गाली क्यों सुनें बाप-भाई भी सुनें। बात भी बिल्कुल सही है। महिलाओं का गाली सुनने का आरक्षण थोड़े है। भाई, सम्हल जाओ महिलायें जाग उठी हैं। अब की फागुन में बाप-भाई को गाली दी जयेगी। महिलायें सुनकर खुशियां मनायेंगी तो क्या इससे महिला मुक्ति का सपना साकार हो उठेगा?
Pravin Kumar Singh
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