भोपाल गैस त्रासदी के बाद वहां से लौटे किसी पत्रकार ने बचे लोगों की दुर्दशा पर यही कहा था। आज यह बात सहारा में काम करने वाले हर कर्मचारी पर अक्षरश: लागू होती है, चाहे वह किसी भी विभाग का हो, बस शर्त ये है कि वह कर्मचारी हो और वह भी छोटे पद का।
उदाहरण के तौर पर मीडिया को ही लें। एक साल में आधे से ज्यादा लोग इस तथाकथित परिवार को छोड़कर चले गए, वो जहाँ हैं, सुखी हैं। जो नहीं गए, अपना परिवार मान कर रुके हैं, वे मर रहे हैं। काम दुगना नहीं, चार गुना बढ़ गया है। इसके उत्पाद राष्ट्रीय सहारा की बात करें तो हर यूनिट में, हर डेस्क पर लोग एक चौथाई रह गए हैं। हर स्तर पर लोग कम हैं।
मसलन, रिपोर्टर कम हैं तो रूटीन तक की खबरें छूट रही हैं। पेट्रोल और मोबाइल का खर्च नहीं मिल रहा है तो लोग फील्ड में नहीं जा रहे हैं। प्रेस रिलीज से पन्ने भरे जा रहे हैं। खबरें रिराइट होने का हाल ये है कि शब्द तक ठीक नहीं किये जा रहे हैं। काम इतना है कि लोग दो तीन दिन बाद बिस्तर पकड़ ले रहे हैं। प्रबंधन ने हर अखबार निकालते रहने को ‘नाक का बाल’ बना लिया है। कोई भी संपादक न पेज कम कर रहा है, न संस्करण। कर्मचारी मरें तो मरें अपनी बला से।
एक पत्रकार द्वारा भेजे गए पत्र पर आधारित