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हिन्दी तहलका विशेषांक समीक्षा : एक बेहतरीन अंक

किसी भी समाप्त होते साल के आखिरी हफ्ते से नए साल के पहले हफ्ते तक टीवी चैनलों में एक जैसे उबाऊ इयरएंडर देखते हुए और पत्र पत्रिकाओं में बासी खबर कलैंडर पढते हुए इस बार भी “तहलका हिन्दी” किसी वज़नदार दस्तावेज की तरह हाथ में आई। इस बार भी इसलिए लिखा क्योंकि 2013 की समाप्ति पर भी हिन्दी तहलका ने अपने पांच साल पूरे होने के अवसर को भी साथ जोड़ते हुए एक बेहतरीन अंक प्रकाशित किया था। वह अंक साहित्य और साहित्यकारों के इर्द गिर्द रचा गया था जबकि इस बार का विशेषांक बीते साल 2014 को वर्षगांठ के नजरिए से देखते हुए तैयार किया गया है।

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किसी भी समाप्त होते साल के आखिरी हफ्ते से नए साल के पहले हफ्ते तक टीवी चैनलों में एक जैसे उबाऊ इयरएंडर देखते हुए और पत्र पत्रिकाओं में बासी खबर कलैंडर पढते हुए इस बार भी “तहलका हिन्दी” किसी वज़नदार दस्तावेज की तरह हाथ में आई। इस बार भी इसलिए लिखा क्योंकि 2013 की समाप्ति पर भी हिन्दी तहलका ने अपने पांच साल पूरे होने के अवसर को भी साथ जोड़ते हुए एक बेहतरीन अंक प्रकाशित किया था। वह अंक साहित्य और साहित्यकारों के इर्द गिर्द रचा गया था जबकि इस बार का विशेषांक बीते साल 2014 को वर्षगांठ के नजरिए से देखते हुए तैयार किया गया है।

किसी भी गुजरे वर्ष को याद करने का आसान सा तरीका है उसमें घटित हुई महत्वपूर्ण घटनाओं का जिक्र कर लेना, यह सभी करते हैं। तहलका ने अपने वर्षगांठ विशेषांक में महत्वपूर्ण घटनाओं, व्यक्तियों और संस्थाओं को 2014 से जोड़कर इस वर्ष को अलग अलग अर्थों में अहम बना दिया।  किसी भी प्रयोगधर्मी पाठक, दर्शक या श्रोता को पुराने तमाम सांचों को तोड़कर रची गई रचना में ही पूर्ण आनंद की अनुभूति होती है। तहलका का यह अंक भी इसी प्रकार का अहसास कराता है।

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जवाहर लाल नेहरू की 125 वी जयंती तो मुक्तिबोध की 50वीं पुण्यतिथि, ना अंकों में कोई साम्य और ना ही अवसर में लेकिन फिर भी पढ़ने में मज़ा आता है। सवालों के घेरे से निकलकर नेहरू नियति से मुलाकात करते हैं और सीधे सादे मुक्तिबोध व्यंग्य की उलटबांसी रचने वाले हरिशंकर परसाई जी के लिए जटिल हो जाते हैं । कहीं दम तोड़ती भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की कहानी तो फिर भोपाल त्रासदी का पीड़ादायी किस्सा, कहीं कोई सिलसिला नहीं,कहीं कोई साम्य नहीं सब कुछ अनायास लेकिन भी निरंतरता टूटने का आभास कही नहीं।

पहले विश्वयुद्ध में हिन्दुस्तान की भूमिका की बात बर्लिन की दीवार के ढहने तक जाती है और फिर भागलपुर के ज़ख्मों पर कब लौट आती है पता ही नहीं चलता । शायद शब्दों और समय से ज्यादा संवेदनाओं को पिरोया गया है इसीलिए पाठक को एक तल पर समभाव यात्रा का अनुभव होता है । इरोम शर्मिला का संघर्ष और बेगम अख्तर के सुर इस यात्रा में एक ही जैसा नम लेकिन मजबूत स्वर पैदा करते हैं । जिस दौर में बीते साल को करोड़ों की कमाई के कारण बेहतरीन मानी गई फिल्मों के लिए याद किया जाता है उसी वक्त में 50 वीं वर्षगांठ के बहाने दोस्ती जैसी फिल्म का जिक्र और खान युग में फिल्मों से ख्वाजा अहमद अब्बास जैसा नाम निकालना साहस का काम है । एक बार फिर तहलका हिन्दी का सहेजकर रखने वाला अंक । इस दस्तावेज को पाठकों तक पहुंचाने के लिए संपादक का शुक्रिया…शुभकामनाएं..!   

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आदित्य झा
माखनलाल चतुर्वेदी पत्रकारिता विवि
नोएडा    

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