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सियासत

गल्तियां करके भी न सीखने वाले को भारतीय वामपंथ कहा जाता है…

Mahendra Mishra : प्रयोग करने वाले गल्तियां करते हैं। हालांकि उन गल्तियों से वो सीखते भी हैं। लेकिन गल्तियां करके नहीं सीखने वाले को शायद भारतीय वामपंथ कहा जाता है। 1942 हो या कि 1962 या फिर रामो-वामो का दौर या न्यूक्लियर डील पर यूपीए से समर्थन वापसी। घटनाओं का एक लंबा इतिहास है। इन सबसे आगे भारतीय समाज और उसमें होने वाले बदलावों को पकड़ने की समझ और दृष्टि। सभी मौकों पर वामपंथ चूकता रहा है। भारत में वामपंथ पैदा हुआ 1920 में लेकिन अपने पैर पर आज तक नहीं खड़ा हो सका। कभी रूस, तो कभी नेहरू, कभी कांग्रेस, तो कभी मध्यमार्गी दलों की बैसाखी ही उसका सहारा रही।

<p>Mahendra Mishra : प्रयोग करने वाले गल्तियां करते हैं। हालांकि उन गल्तियों से वो सीखते भी हैं। लेकिन गल्तियां करके नहीं सीखने वाले को शायद भारतीय वामपंथ कहा जाता है। 1942 हो या कि 1962 या फिर रामो-वामो का दौर या न्यूक्लियर डील पर यूपीए से समर्थन वापसी। घटनाओं का एक लंबा इतिहास है। इन सबसे आगे भारतीय समाज और उसमें होने वाले बदलावों को पकड़ने की समझ और दृष्टि। सभी मौकों पर वामपंथ चूकता रहा है। भारत में वामपंथ पैदा हुआ 1920 में लेकिन अपने पैर पर आज तक नहीं खड़ा हो सका। कभी रूस, तो कभी नेहरू, कभी कांग्रेस, तो कभी मध्यमार्गी दलों की बैसाखी ही उसका सहारा रही।</p>

Mahendra Mishra : प्रयोग करने वाले गल्तियां करते हैं। हालांकि उन गल्तियों से वो सीखते भी हैं। लेकिन गल्तियां करके नहीं सीखने वाले को शायद भारतीय वामपंथ कहा जाता है। 1942 हो या कि 1962 या फिर रामो-वामो का दौर या न्यूक्लियर डील पर यूपीए से समर्थन वापसी। घटनाओं का एक लंबा इतिहास है। इन सबसे आगे भारतीय समाज और उसमें होने वाले बदलावों को पकड़ने की समझ और दृष्टि। सभी मौकों पर वामपंथ चूकता रहा है। भारत में वामपंथ पैदा हुआ 1920 में लेकिन अपने पैर पर आज तक नहीं खड़ा हो सका। कभी रूस, तो कभी नेहरू, कभी कांग्रेस, तो कभी मध्यमार्गी दलों की बैसाखी ही उसका सहारा रही।

एक बार फिर जब देश में वामपंथ के लिए नई संभावना और जमीन बनती दिख रही है तो उसे कांग्रेस के चरणों में समर्पित करने की सुगबुगाहट भी शुरू हो गई है। हम बात कर रहे हैं कोलकाता में चलने वाले सीपीएम के प्लेनम की। पांच दिनों तक चलने वाले इस प्लेनम से छनकर जो खबरें आ रही हैं वह बेहद चिंताजनक हैं। 38 साल बाद होने वाले इस प्लेनम में पार्टी मध्यमार्गी दलों के साथ गठबंधन का प्रस्ताव पारित कर सकती है। ऐसा होने के साथ ही कांग्रेस से लेकर दूसरे दलों की सरकारों में पार्टी के शामिल होने का रास्ता साफ हो जाएगा। इतिहास गवाह है जब-जब वामपंथी दलों ने समझौता किया। पाया कम गंवाया ज्यादा। मोर्चे से फायदा लेने के मामले में बीजेपी और वामपंथ में उतना ही अंतर रहा है जितना दोनों के विचारों में है। बीजेपी लगातार आगे बढ़ती गई और वामपंथ अपनी जड़ों से उखड़ता गया। यूपी-बिहार में लालू यादव और मुलायम सिंह उसी जमीन की पैदाइश हैं।

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ऐसे दौर में जबकि देश में एक निरंकुश और अधिनायकवादी सरकार है। जो शासन और हालात के मामले में इमरजेंसी को भी मात दे रही है। काम के नाम पर उसके पास कारपोरेट और उच्च वर्ग की सेवा है। देने की जगह उसका हर फैसला जनता से छीनने के लिए होता है। रोजी-रोटी का प्रश्न हो या कि बेरोजगारी, सामाजिक सम्मान हो या कि महिलाओं की इज्जत का सवाल, सामाजिक ताना बाना हो या कि राष्ट्र को एकता में बांधने का सूत्र। हर मोर्चे पर सरकार नाकाम साबित हो रही है। विकल्प के नाम पर एक विखरा विपक्ष है। और कांग्रेस ऐतिहासिक तौर पर कमजोर है। ऐसे में भारतीय राजनीति के इस निर्वात को भरने की जगह अगर कोई बैसाखी की तलाश करता है। तो इससे बड़ी विडंबना कुछ नहीं हो सकती। बिहार में एकता की एक छोटी कोशिश ने वामपंथ को चर्चे में ला दिया।

सीपीएम को भी यह समझना चाहिए कि बीजेपी और संघ से आखिरी लड़ाई सड़क पर ही होगी। किसी जोड़-तोड़ के जरिये उससे पार पाना मुश्किल है। कांग्रेस के साथ एक और समझौते से कुछ मिलने की जगह सीपीएम के सीपीआई बनने का खतरा ज्यादा है। भारतीय वामपंथ चुनावी मोर्चे पर भले कमजोर हो लेकिन राजनीतिक-सामाजिक आधार और संगठन के मामले में इतनी ताकत रखता है कि वह नये सिरे से हलचल पैदा कर सके। ऐसे में उसे वामपंथी एकता के साथ स्वतंत्र पहल का नया संकल्प लेने की जरूरत है। न कि किसी नई बैसाखी की तलाश करने की। क्योंकि उसके पास साख है तो संगठन भी है, सिद्धांत है तो वैचारिक हथियार भी है और इन सबसे आगे देश को राजनीतिक विकल्प की जरूरत है।

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हालांकि पार्टी महासचिव सीताराम येचुरी ने सामाजिक नीति को लेकर पार्टी की सोच में कुछ बदलाव के संकेत जरूर दिए हैं। इसे एक बड़ी और जरूरी पहल के तौर पर देखा सकता है। क्योंकि इस देश में वामपंथ की यह सबसे बड़ी कमियों में चिन्हित किया जा सकता है। जिसमें भारतीय समाज और राजनीति की ठोस समझ और उसका सटीक विश्लेषण और फिर उसके मुताबिक कार्यनीति और रणनीति का अभाव रहा है। भारत में जितना आर्थिक सवाल जरूरी है उससे कम सामाजिक मुद्दे नहीं हैं। रोजी-रोटी अगर प्राथमिक है तो सामाजिक सम्मान का सवाल उसकी चौखट पर खड़ा हो जाता है। इस लिहाज से जाति एक बड़ी सच्चाई बनकर सामने आ जाती है। भारतीय समाज और राजनीति के बीच की वह ऐसी गांठ है जिसे खोले बगैर सत्ता का कोई भी सवाल हल होना मुश्किल है। जिस सर्वहारा की तलाश वामपंथ को थी वह भारत में दलितों के तौर पर मौजूद था। लेकिन वर्गों को ढूढने के चक्कर में वामपंथ फैक्टरियों से लेकर इधर-उधर भटकता रहा। भारत में क्रांति का रास्ता किसानों से होकर जाता है। लेकिन स्थापित वामपंथ की प्राथमिकता में वह कभी नहीं रहा।

मार्क्सवाद को समाज-राजनीति और व्यवस्था के सबसे अग्रणी दर्शन के तौर पर जाना जाता रहा है। व्यवस्था की आखिरी पैदाइश मजदूर वर्ग की इस पार्टी से किसी बदलाव को सबसे पहले महसूस करने की अपेक्षा की जाती है। लेकिन एक पूरी सूचना क्रांति सामने से गुजर गई और वामपंथ खड़ा देखता रहा। कहीं थोड़ी जुंबिश भी नहीं दिखी। इस्तेमाल उस पार्टी ने किया जिसे हम समाज की सबसे पिछड़ी, दकियानूस, रुढ़िवादी, आधुनिक और तकनीकी विरोधी करार देते हैं। आखिरी दो मसलों के लिहाज से वामपंथ के लिए ग्राम्सी काफी मददगार साबित हो सकते हैं। उनका आधार और अधिरचना के मामले में अधिरचना के कभी प्राथमिक होने की संभावना का सिद्धांत बेहद कारगर है। भारतीय राजनीति में जाति एक उसी तरह की अधिरचना है। मौजूदा समय में आयी सूचना क्रांति को भी अधिरचना के दायरे में ही परिभाषित किया जा सकता है।

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छात्र जीवन में वामपंथी आंदोलनों में नेतृत्वकारी भूमिका में रहे पत्रकार महेंद्र मिश्र के फेसबुक वॉल से.

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