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सियासत

क्या कोरोना के वैश्विक प्रकोप और येस बैंक की देसी मार के चलते भारत भयंकर मंदी की चपेट में आ रहा है?

प्रभात डबराल

Prabhat Dabral : शेयर बाजार की ये तबाही आम आदमी के दरवाज़े पर आज भले ही न पहुँची हो, पर बहुत जल्दी ही हमारे आपके जैसे लोग जो इस बाजार से ज़्यादा जुड़े नहीं हैं उनपर भी इसकी चोट पड़ने वाली है.

इस पर आगे बात करने से पहले ये जान लें कि शेयर बाजार के इस विध्वंस के पीछे कोरोना का उतना बड़ा हाथ नहीं है जितना बताया जा रहा है. ज़्यादा खेल यस बैंक के प्रकरण का है. ये लगभग वही खेल है जो २००७-८ में अमरीका में हुआ था.

तब वहां के शेयर मार्किट में लेहमन ब्रदर्स नामक एक बैंक ने तबाही मचाई थी. ये बैंक सब-प्राइम लैंडिंग में नंबर वन था. प्रॉपर्टी मार्किट में हलचल हुयी तो ये बैंक हिलने लगा. सरकार ने बाकी बैंकों से लेहमन ब्रदर्स में पैसा लगवाया लेकिन कुछ फर्क नहीं पड़ा लेहमन दीवालिया हो गया. वाल स्ट्रीट का शेयर मार्किट औंधे मुंह गिर गया.

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यहाँ तक तो ठीक था लेकिन इसके बाद मार्किट से पैसा गायब हो गया था. साथ ही अमेरिका की अर्थव्यवस्था में लोगों की जेब में नगद पैसा नहीं रहता इसलिए बड़े बैंकों के एटीएम बंद या कम होने साथ ही खरीददारी कम होने लगी. नतीजा: अमेरिका और उससे जुड़े देशों में मंदी आ गयी – चारोँ ओर त्राहि त्राहि मच गयी.

अब इसे ध्यान से पढ़ें:

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लेहमन ब्रदर्स का असर भारत पर भी पड़ा था. २००७ के अंत और २००८ के शुरूआती महीनों में हमारे शेयर मार्किट में भी ऐसा ही भूचाल आया था जैसा आजकल है. शेयर मार्किट में लगे लोगों के पैसे इसी तरह डूब रहे थे – कभी पांच लाख करोड़ तो कभी छे लाख करोड़.

लेकिन शेयर मार्किट डूबने से जहाँ अमरीका और दूसरे मुल्कों में मंदी आ गयी थी अपने देश में ऐसा नहीं हुआ. क्यों? ….

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…क्योंकि बाकी देशों की तरह हमारी सारी कमाई बैंकों में नहीं थी. हम बैंकों के उतने ग़ुलाम नहीं थे जितने आज बन गए हैं. मोदी जी की नोटबंदी ने वो सारा पैसा जो हमारे घरों में किसी खास वक़्त ज़रुरत के लिए रखा रहता उसे बैंकों में जमा करा दिया. ब्लैक मनी की तो कौड़ी नहीं मिली नोटबंदी ने हमारी छोटी मोटी बचत भी बैंकों के हवाले कर दी. उसमे से ज़्यादातर पैसा अम्बानी/ अडानी/ बियाणी को लोन के रूप में चला गया, जिसका एक बड़ा हिस्सा या तो NPA हो गया है या होने वाला है.

ध्यान रखिये कि २००७-८ की विश्वव्यापी मंदी में इसी छोटी छोटी बचत ने ही हमारे व्यापार और उत्पादन को ज़िंदा रखा था. आज हमारी अर्थव्यस्था में ये वाला कुशन नहीं है.

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इसलिए मित्रों अगर कोई बड़ा कदम (असली अर्थशास्त्रियों को पूछकर) जल्दी ही नहीं उठाया गया तो …..,


मैने कल की अपनी पोस्ट में लिखा था कि भारत के शेयर बाजार में विध्वंस का सबसे बड़ा कारण कोरोना वायरस नहीं यस बैंक (आशय विकृत वित्तीय प्रबंधन) हैं. कई सुधी मित्रों ने मेरे इस कथन आपत्ति की है. उन्होंने कहा है कि दुनिया के सारे मार्किट डूब रहे हैं, ये यस बैंक की देन कैसे हो सकता है. मैंने ऐसा कहा भी नहीं था. मैंने कहा था कि भारत के बाजार के विंध्वंस का बड़ा कारण यस बैंक है. ज़ाहिर है कि कोरोना और कच्चे तेल का भाव टूटने का प्रभाव भी हमारे बाजार पर पड ही रहा है.

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इन तथ्यों पर गौर कीजिये:

यस बैंक से निकासी पर पाबंदी वाला आदेश ५ मार्च की रात को हुआ.

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अगले ही दिन, छह मार्च को, सेंसेक्स ९०० अंक टूट गया. यस बैंक का शेयर जो ५ मार्च को २५/२६ था छे मार्च को बारह बजे तक ५/६ पर आ गया. ये हमारे बाजार के विध्वंस की शुरुआत थी जो यस बैंक की कहानी से जुड़े सरकारी वित्तीय कुप्रबंध से उत्पन्न सेंटीमेंट को दर्शाती थी. आज भी ये सेंटीमेंट बाजार में देखा जा सकता है. कुछ लोग तो यहाँ तक कह रहे हैं कि सरकार के वित्तीय प्रबंधन की क्षमता/ कुशलता से बाजार का विश्वास उठ गया है.

ध्यान रखिये कि ५/६ मार्च को ग्लोबल मार्किट में कोई बड़ी उथल पुथल नहीं हुयी थी. कोरोना और दूसरे कारणों का विश्व बाज़ारों पर पहला बड़ा प्रभाव ९ मार्च को दिखा जिसे अब कुछ लोग २०२० का “ब्लैक मंडे” कह रहे हैं. दुनियां के बाज़ारों का ये विध्वंस वैश्विक मंदी की और इशारा कर रहा है, जिससे भारत भी शायद ही बच सके. हम तो वैसे भी सरकार के वित्तीय कुप्रबंध के चलते पहले से ही मंदी जैसे हालात का सामना कर रहे हैं.

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असली सवाल ये है कि हम इस मंदी का सामना करने के लिए हम कितने तैयार हैं. ये सरकार प्रोफेशनल अर्थशास्त्रियों से ज़्यादा रीढ़विहीन आईएएस/ आईपीएस अधिकारीयों पर विश्वास करती है. २०१४ में अरविन्द पनगढ़िया (नीति आयोग अध्यक्ष) और उर्जित पटेल (आरबीआई गवर्नर) जैसे अर्थशास्त्री इनसे जुड़े भी थे लेकिन जल्दी ही उनका मोहभंग हो गया और वे वापस क्रमशः कोलंबिया विश्विद्यालय और हारवर्ड चले गए.

पनगढ़िया की जगह आईएएस अधिकारी अमिताभ कांत हैं और आरबीआई के गवर्नर का कार्यभार पूर्व आईएएस शक्तिकांत के पास है जो इतिहास में एमए हैं.

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रीढ़विहीन अफसरशाह अच्छे लठैत तो हो सकते हैं, ज़रूरी नहीं कि उनमे इतने भयानक आर्थिक संकट से जूझने की क़ाबलियत भी हो. होती तो हम इतनी बुरी हालत में होते ही क्यों. यस बैंक तो इसी आरबीआई की नाक के नीचे धमाचौकड़ी मचा रहा था.

ये सब छोड़िये. हमारे भक्त तो इसी बात से खुश हैं कि यस बैंक की जांच से उन्हें पता चल गया है कि राणा कपूर ने प्रियंका से एक पेंटिंग दो करोड़ में खरीदी थी.

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जाको प्रभु संघी मन दीना
ताकी मति पहले हर लीना

कई अखबारों और चैनलों के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार प्रभात डबराल की एफबी वॉल से.

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