आईपीएस संजीव भट्ट को सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा देना बहुत भारी पड़ा
गुजरात के जामनगर की एक सत्र अदालत ने बर्खास्त आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट (55) को लगभग तीन दशक पुराने हिरासत में मौत (कस्टोडियल डेथ) से जुड़े एक मामले में गुरुवार को उम्रकैद की सजा सुनायी। यह जामनगर का वही मामला है जिसमें भारत बंद के दौरान हुई हिंसा के बाद पुलिस हिरासत में एक व्यक्ति की मौत होने पर संजीव सहित उनके कई साथियों के खिलाफ हिरासत में मौत का मुकदमा दर्ज किया गया था, लेकिन उस दौरान चूंकि राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी थे,जिन्होंने उनपर मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी थी। लेकिन 2011 में जब संजीव ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी के खिलाफ 2002 के दंगे से जुड़े मामले में शामिल होने का आरोप लगाया और उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर किया उसके बाद से ही संजीव भट्ट के मुसीबतें शुरू हो गईऔर अंततः एक अन्य मामले में उन्हें बर्खास्त कर दिया गया।
गौरतलब है कि संजीव भट्ट एक जमाने में गुजरात कैडर के तेजतर्रार और चर्चित आईपीएस अधिकारी थे।उन्होंने 2002 में गुजरात दंगों में राज्य के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे। जिस के बाद संजीव भट्ट को गुजरात सरकार ने नवंबर 2015 में बर्खास्त कर दिया था।तब से वो जेल में हैं।
अभियोजन पक्ष के अनुसार, भट्ट ने जामनगर के तत्कालीन अतिरिक्त पुलिस अधीक्षक के तौर पर जामजोधपुर शहर में 1990 में हुए दंगे के दौरान 100 से अधिक लोगों को हिरासत में लेने के आदेश दिये थे। हिरासत से मुक्त किये जाने के बाद इनमें से एक प्रभुदास वैष्णानी की अस्पताल में मौत हो गयी थी। उनकी हिरासत के दौरान पिटाई की गई थी। मृतक के भाई अमृत वैष्णानी ने इस मामले में भट्ट समेत आठ पुलिसकर्मियों को आरोपी बनाते हुए मामला दर्ज कराया था।अदालत ने भट्ट को दोषी ठहराते हुए गुरुवार को उम्रकैद की सजा सुनायी। एक अन्य आरोपी तथा तत्कालीन कांस्टेबल प्रवीण झाला को भी उम्रकैद की सजा दी गई। इस मामले में संजीव भट्ट और अन्य पुलिसवालों के खिलाफ मुकदमा दर्ज किया गया था, लेकिन गुजरात सरकार ने मुकदमा चलाने की इजाजत नहीं दी, लेकिन 2011 में राज्य सरकार ने भट्ट के खिलाफ ट्रायल की अनुमति दे दी।
संजीव भट ने गुजरात हाई कोर्ट के आदेश को चुनौती देते हुये मंगलवार को उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की थी। हाईकोर्ट ने हिरासत में मौत के मुकदमे की सुनवाई के दौरान पूछताछ के लिये अतिरिक्त गवाहों को बुलाने का संजीव भट की मांग को अस्वीकार कर दिया था।
संजीव भट्ट गुजरात काडर के आईपीएस अधिकारी हैं, जिन्होंने 2002 में गुजरात दंगों में तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी की भूमिका पर सवाल खड़े किए थे। 2015 में गुजरात सरकार ने निलंबित आईपीएस अधिकारी संजीव भट्ट को बर्खास्त कर दिया था।संजीव भट्ट उच्चतम न्यायालय में हलफ़नामा दायर करने के बाद सुर्ख़ियों में आ गए थे।इस हलफ़नामे में उन्होंने गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी पर सवाल उठाए थे और कहा था कि गुजरात में वर्ष 2002 में हुए दंगों की जाँच के लिए गठित विशेष जाँच दल (एसआईटी) में उन्हें भरोसा नहीं है।2011 में जब संजीव ने तत्कालीन मुख्यमंत्री मोदी के खिलाफ 2002 के दंगे से जुड़े मामले में शामिल होने का आरोप लगाया और उच्चतम न्यायालय में हलफनामा दायर किया उसके बाद से ही संजीव भट्ट के मुसीबतें शुरू हो गईं।
आईआईटी मुंबई से पोस्ट ग्रेजुएट संजीव भट्ट वर्ष 1988 में भारतीय पुलिस सेवा में आए और उन्हें गुजरात काडर मिला। पिछले 23 वर्षों से वे राज्य के कई ज़िलों, पुलिस आयुक्त के कार्यालय और अन्य पुलिस इकाइयों में काम किया है।
गौरतलब है कि तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी पर गुजरात के 2002 के दंगों के दौरान दंगाई के खिलाफ पुलिस पर नरम रवैया अपनाने का आरोप लगाने वाले भट्ट को लंबे समय तक ड्यूटी से अनुपस्थित रहने के कारण 2011 में निलंबित किया गया था तथा अगस्त 2015 में बखार्स्त कर दिया गया था। उन्होंने इस मामले में 12 जून को उच्चतम न्यायालय में याचिका दखिल कर 10 अतिरिक्त गवाहों के बयान लेने का आग्रह किया था पर न्यायालय ने इसे खारिज कर दिया था। राज्य सरकार ने इसे ऐसे समय में मामले को विलंबित करने का प्रयास करार दिया था जब निचली अदालत फैसला सुनाने वाली थी।
संजीव भट्ट की पत्नी श्वेता भट्ट ने 2012 में कांग्रेस के टिकट पर अहमदाबाद की मणिनगर विधानसभा सीट से तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा था, जिसमें उन्हें हार मिली थी।
संजीव भट्ट 1996 में बनासकांठा जिले के पुलिस अधीक्षक थे। संजीव भट्ट के नेतृत्व में बनासकांठा पुलिस ने वकील सुमेर सिंह राजपुरोहित को करीब एक किलोग्राम मादक पदार्थ रखने के आरोप में 1996 में गिरफ्तार किया था। उस समय बनासकांठा पुलिस ने दावा किया था कि मादक पदार्थ जिले के पालनपुर में होटल के उस कमरे से मिला था जिसमें राजपुरोहित ठहरे थे।राजस्थान पुलिस की जांच में खुलासा किया गया था कि राजपुरोहित को इस मामले में बनासकांठा पुलिस ने कथित तौर पर झूठे तौर फंसाया था, ताकि उसे इसके लिए बाध्य किया जा सके कि वह राजस्थान के पाली स्थित अपनी विवादित संपत्ति ट्रांसफर करे। यह भी खुलासा किया गया कि राजपुरोहित को बनासकांठा पुलिस ने राजस्थान के पाली जिले में स्थित उनके आवास से कथित रूप से अगवा किया था।
राजस्थान पुलिस की जांच के बाद बनासकांठा के पूर्व पुलिस निरीक्षक आई बी व्यास इस मामले को लेकर 1999 में इस मामले की गहराई से जांच के लिए गुजरात हाईकोर्ट गए। पिछले साल जून में याचिका की सुनवाई के दौरान गुजरात हाईकोर्ट ने इस मामले की जांच सीआईडी को सौंप दी थी। हाईकोर्ट ने सीआईडी को इस मामले की जांच तीन महीने में पूरा करने को कहा था।
वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार जेपी सिंह की रिपोर्ट.