दोस्तो, महात्मा गांधी के पास तीन बंदरों की प्रतीकात्मक मूर्तियां थीं। एक बंदर अपने कान बंद किए था, जिसका अर्थ है-बुरा मत सुनो। दूसरा बंदर अपनी आंखें बंद किए था, जिसका अर्थ है-बुरा मत देखो और तीसरा बंदर अपना मुंह बंद किए था, जिसका अर्थ है-बुरा मत कहो। लेकिन बंदर की ऐसी कोई मूर्ति नहीं बनी, जो यह संकेत दे सके कि बुरा मत करो। वास्तव में ये बंदर हमारे समाज में भी हैं, जिन्हें पहचानना ज्यादा कठिन नहीं होता है। संजय गुप्ता के तीन चम्चे तो हूबहू महात्मा गांधी के तीन बंदरों की ही तरह हैं।
बात करते हैं पहले बंदर की-इसका नाम है विष्णु त्रिपाठी। इसने अपने कान बंद कर रखे हैं। यह अपने चिंटू, मिंटू और चिंदी चोरों के बारे में बुरा सुनता ही नहीं है। भले ही वे संजय गुप्ता का कितना भी बुरा क्यों न कर दें। शायद यही वजह है कि उसका फोन भी वन वे होता है। इतना घमंडी है कि किसी का फोन उठाता ही नहीं। वह अपना मुंह, आंख और कान सब बंद करके चुपचाप लोगों का बुरा करने में लगा रहता है।
दूसरे बंदर का नाम है नीतेंद्र श्रीवास्तव। इसने अपनी आंखें बंद कर रखी है। आपने शुतुरमुर्ग पक्षी के बारे में सुना ही होगा। रेगिस्तान में पाए जाने वाले इस पक्षी की खासियत यह होती है कि जब कोई खतरा आता है तो यह पक्षी अपना मुंह रेत में छिपा देता है और जब खतरा दिखना बंद हो जाता है तो समझता है कि खतरा टल गया। नीतेंद्र ने यही किया। जब मजीठिया वेतनमान के लिए लोगों ने उसका घेराव किया तो उसने बड़ी धूर्तता से समय ले लिया। बाद में क्या हुआ, आप सभी जानते हैं। हड़ताल की वीडियो अगर आप ध्यान से देखें तो इसकी धूर्तता साफ साफ इसके चेहरे से झलक रही थी। यह कर्मचारियों को बिना कुछ दिए सबकुछ पा लेना चाह रहा था और वह अपनी धूर्तता में सफल भी रहा। हमारे कुछ साथी अभी भी इसकी धूर्तता के भ्रमजाल में फंसे हैं। खैर—उन्हें भगवान बचाए। देखना यह होगा कि कब उनकी आंख खुलती है।
अब बात करते हैं तीसरे बंदर की। उसका नाम है रमेश कुमार कुमावत। इसने अपना मुंह बंद कर रखा है। यह किसी को बुरा तो नहीं कहता, लेकिन इसी के दिमाग से न जाने कितने कर्मचारियों का बुरा हो गया और उन्हें पता भी नहीं चला। इसे वेतन इसकी दिमागी खुराफात का ही मिलता है। जोंक की तरह यह एकदम मुलायम है, लेकिन कलेजे तक का खून निकाल लेने में माहिर। एक बड़ा ज्ञानपूर्ण पद है –
आरा ठनक न बोलहीं, नहीं जोंक के दंत। जो नर मधुरी बोलहीं, दगा करैं सो अंत।।
अर्थात आरा कुल्हाड़ी की तरह ठनक की आवाज नहीं करता, लेकिन पूरी लकड़ी को काट डालता है और किसी को पता तक नहीं चलता। इसी प्रकार जोंक के दांत नहीं होते, लेकिन वह शरीर से चिपक जाए तो ढेर सारा खून निकाल लेती है। यही बात मीठा बोलने वालों पर भी लागू होती है, जो अंत में दगा दे ही जाते हैं।
श्रीकांत सिंह के फेसबुक वॉल से