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जगेंद्र हत्याकांड : जांच में सबसे बड़ा रोड़ा सत्ता की खाल में छिपे दलाल पत्रकार

उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव की सरकार में पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्य मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा, कोतवाल श्रीप्रकाश राय और मंत्री के चार अन्य गुर्गों के खिलाफ पत्रकार जगेंद्र सिंह को जिंदा जलाकर मारने के मामले में खुटार थाने में रिपोर्ट दर्ज तो दर्ज हो गई, अब देखिए इस मामले का अंत किस तरह होता है। चाहिए तो था कि हत्या की रिपोर्ट दर्ज करने के साथ ही मंत्री को सरकार से बाहर कर दिया जाता, और उसके बाद जांच अमिताभ ठाकुर जैसे किसी ईमानदार आईपीएस से कराई जाती। लेकिन ऐसा कहां संभव है। मंत्री हत्यारोपी है, उस पर और भी कई मामले पहले से सुर्खियों में हैं। हकीकत है कि सब हाथीदांत जैसा चलता लग रहा है। जब सारे छंटे-छंटाए सियासत के टीलों पर सुस्ता रहे हैं, जिसकी नकाब हटाओ, वही अपराधियों के सरगना जैसा, तो फिर ऐसी जांच की संभावना कहां बचती है। 

 

उत्तर प्रदेश की अखिलेश यादव की सरकार में पिछड़ा वर्ग कल्याण राज्य मंत्री राममूर्ति सिंह वर्मा, कोतवाल श्रीप्रकाश राय और मंत्री के चार अन्य गुर्गों के खिलाफ पत्रकार जगेंद्र सिंह को जिंदा जलाकर मारने के मामले में खुटार थाने में रिपोर्ट दर्ज तो दर्ज हो गई, अब देखिए इस मामले का अंत किस तरह होता है। चाहिए तो था कि हत्या की रिपोर्ट दर्ज करने के साथ ही मंत्री को सरकार से बाहर कर दिया जाता, और उसके बाद जांच अमिताभ ठाकुर जैसे किसी ईमानदार आईपीएस से कराई जाती। लेकिन ऐसा कहां संभव है।

मंत्री हत्यारोपी है, उस पर और भी कई मामले पहले से सुर्खियों में हैं। हकीकत है कि सब हाथीदांत जैसा चलता लग रहा है। जब सारे छंटे-छंटाए सियासत के टीलों पर सुस्ता रहे हैं, जिसकी नकाब हटाओ, वही अपराधियों के सरगना जैसा, तो फिर ऐसी जांच की संभावना कहां बचती है।

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मंत्री तो मंत्री, और सरकार तो सरकार, दोनो के चाल-चलन से लोग भली भांति वाकिफ हैं, सरकार राज्य की हो या केंद्र की, सपा की हो या बसपा की, भाजपा की हो या कांग्रेस की। सबकी थाली एक।  तकलीफ तो उन दलाल पत्रकारों की करतूतें देखकर होती है, जो पूंजीखोर सत्ता की सरपरस्ती में मीडिया का कलंक बन चुके हैं। जिसकी सत्ता होगी, उसके चरणों में लोट लगाएंगे। मजीठिया की बात होगी तो अखबार मालिकों के सगे बन जाएंगे, जगेंद्र की हत्या की बात होगी तो यूपी सरकार के पैरों में पसर जाएंगे।

ये दलाल चौबीसो घंटे सजे-धजे वस्त्रों में एनेक्सी के चक्कर काटते, किसी नेता या अफसर की लार पोंछते, थूक चाटते, किसी थाने की कुर्सी तोड़ते या प्रेस की सियासत की आड़ में पत्रकारिता को कलंकित करते मिलेंगे। इन दलालों को ऐसे ही मौकों की तलाश रहती है, जब कोई जगेंद्र बेमौत मरे, और वे सत्ता की आंख में उगें, अपनी अहमियत का ताल पीटें। बताएं कि कैसे पत्रकारों के हितों की चटनी बनाई जा सकती है, कैसे सरकारी अमलों का जायका सलामत रखा जा सकता है। उनके बारे में हजार किस्से आम हैं, लेकिन वे बेरोक-टोक, छुट्टा दलाली जिंदाबाद के नारे बांचते हुए आजकल हर शहर, हर कस्बे तक मिल जाएंगे। थाना प्रभारी से डीजीपी तक, मोहल्ले के सभासद से मुख्यमंत्री के बरामदे तक। सुबह से ही मुंह में पान मसाला हुए दलाली की जुगालियां भरते हुए। पत्रकारिता के ये चिलमची सुट्टा ऐसा छोड़ते हैं कि पराड़कर जी भी शर्मा जाएं लेकिन लिखने पढ़ने से रत्ती भर वास्ता नहीं।

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शाहजहांपुर की पुवायां तहसील के खुटार के मोहल्ला कोट में एक जून को पत्रकार जगेंद्र सिंह के घर दबिश दी गई। उनके घर में ही उन्हें पेट्रोल डालकर जिंदा जलाया गया, इतने दिन इलाज चला और प्रदेश की राजधानी में उस जुझारू शख्स ने दम तोड़ा लेकिन पत्रकारों की नेतागिरी के नाम पर अपनी गोंटियां चमकाने वाले ये दलाल नेताओं और अफसरों के दड़बे में चाय सुड़ुकते रहे। इन बेशर्मों की जरा सी जुबान तक नहीं हिली। इन्हें मंचों पर बोलते हुए, प्रेस क्लब के चुनाव में पत्रकारों को पटाते हुए कोई देखे तो लगेगा कि इनसे बड़ा कोई खैरख्वाह नहीं है। ये वही जोंक हैं, जिन्हें वक्त रहते पहचानने की जरूरत है। ट्रांसफर-पोस्टिंग से लेकर ठेकेदारों की दलाली तक में माहिर ये कुख्यात मीडिया-फरोश राजधानियों में सरकारी बंगले हथियार का ठाट से सालो-साल से अपनी दुकानें चला रहे हैं। मजीठिया वेतनमान के मुद्दे पर ये दलाल ऐसे खामोशी साध बैठे हैं, जैसे सांप सूंघ गया हो।

होना तो चाहिए था कि जगेंद्र सिंह की अर्थी लखनऊ से तभी बाहर निकलती, जब मंत्री को बर्खास्त कर दिया जाता। लेकिन नहीं, शव राजधानी से खुटार के मोहल्ला कोट पहुंच गया और वहां से श्मशान पर, पुलिस द्वारा मंत्री के खिलाफ रिपोर्ट ना लिखे जाने पर परिजन शवदाह न करने पर अड़ गए, तब जाकर कानून के बस्तों में दुबकी पुलिस मामला दर्ज करने के लिए मजबूर हुई। जगेंद्र की लड़ाई कोई नई नहीं थी। वह काफी समय से तरह तरह के मुद्दों पर फेसबुक पर खबरें लिखते रहे थे। उसी जगेंद्र को जलाने के बाद पुलिस अमानवीय तरीके से घसीटते गाड़ी में डाल कर जिला अस्पताल ले गई। आठ जून की रात जब लखनऊ से पोस्टमार्टम के बाद रात में ही परिजन उनके शव को लेकर घर पहुंचे तो परिवार में कोहराम मच गया। सुबह होते ही घर पर भीड़ जमा हो गई। सुबह एसडीएम भरत लाल सरोज, एसपी देहात आशाराम, सीओ पुवायां, सीओ पूरनपुर राजेश्वर सिंह के साथ कई थानो की पुलिस वहां आ धमकी। जगेंद्र सिंह के बड़े बेटे राघवेन्द्र ने मंत्री राममूर्ति वर्मा, कोतवाल श्रीप्रकाश राय और मंत्री के गुर्गे गुफरान, ब्रह्मम कुमार दीक्षित, अमित प्रताप सिंह भदौरिया, आकाश गुप्ता समेत तीन चार अन्य के खिलाफ एसपी देहात को तहरीर दी।

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इस मामले के वकील वीरेन्द्र पाल सिंह का कहना है कि ‘जगेंद्र बहुत दमदारी के साथ खबरें लिख रहे थे। कभी भ्रष्टाचारियों के दबाव में नहीं आए। इस घटना से कुछ दिन पहले रमामूर्ति वर्मा ने एक महिला के साथ बलात्कार किया था। उस महिला का जगेंद्र ने सहयोग किया, लिखा। महिला को एक जून को एसपी के सामने पेश कराया। वहां से जब हम निकले तो दो बजे के करीब राममूर्ति के गुर्गे गुफरान, ब्रहम कुमार दीक्षित और आकाश गुप्ता आदि आ गए। इंस्पेक्टर पीछे से गाड़ी ले आया और पीड़ित महिला को खींच कर गाड़ी में डाल लिया गया। उसके बाद वे सब जगेंद्र के घर पहुंच गए। वहां कोतवाल राय ने कहा कि गजेंद्र को पेट्रोल डालकर जिंदा जला दो, मामला निपटा लिया जाए। उसके बाद कोतवाल ने पेट्रोल डाल कर आग लाग दी।’ जगेंद्र सिंह के बुजुर्ग पिता सुमेर सिंह का कहना है कि ‘मेरे बेटे को मंत्री ने जला के मरवा दिया। वो उनसे दबता नहीं था। हम न्याय चाहते हैं। मंत्री पद से उसे बरखास्त कर जेल भेजा जाए।’ जगेंद्र सिंह की पत्नी सुमन का कहना है- ‘हमारो आदमी चला गया। हमारे बेटों को नौकरी दी जाए और हमारी जमीन छुटवाई जाए और हमको मुआवजा दिलाया जाए।’ एसपी देहात आशाराम का कहना है- मंत्री, कोतवाल के साथ सभी आरोपियों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कर ली गई है। इसमें विधिक कर्रवाई की जाएगी।’

बहरहाल, अब यह पत्रकारिता ही नहीं, इंसानियत का भी तकाजा है कि शेरदिल जगेंद्र सिंह की कुर्बानी व्यर्थ्य नहीं जानी चाहिए। देश-प्रदेश के ईमानदार पत्रकारों को इस मामले पर एकजुट होकर नतीजा अंजाम तक ले जाना चाहिए। यह लड़ाई सिर्फ जगेंद्र हत्याकांड की ही नहीं, बल्कि उन दलालों के खिलाफ भी है, जो कि मजीठिया वेतनमान मामले में भी राह का सबसे बड़ा रोड़ा बने हुए हैं। इस मुद्दे पर लखनऊ में सबसे बड़ी जवाबदेही ‘उत्तर प्रदेश मान्यताप्राप्त संवाददाता समिति’ के अध्यक्ष हेमंत तिवारी और सचिव सिद्धार्थ कलहंस की बनती है, जो इस पूरे मामले पर अब तक चुप्पी साधे हुए हैं। साथ ही, उत्तर प्रदेश जनर्लिस्ट एसोसिएशन के रतन दीक्षित, ‘इंडियन वर्किंग जर्नलिस्ट फेडरेशन’ के अध्यक्ष एवं वरिष्ठ पत्रकार के.विक्रम राव आदि को भी इस मामले में सामने आना चाहिए। लखनऊ ही क्यों, दिल्ली के भी बड़े-बड़े नामवर पत्रकारों, मीडिया संगठनों की भी जिम्मेदारी बनती है कि वे इतने जघन्य कांड पर अपनी खामोशी तोड़ें वरना वक्त उन्हें भी माफ नहीं करेगा। क्योंकि मजीठिया वेतनमान की लड़ाई के बहाने ही सही, देश भर के पत्रकार अब जाग रहे हैं। इससे जान लेना चाहिए कि दलाल पत्रकारिता का जमाना अब खत्म होने वाला है। अब पत्रकार उन्हें बर्दाश्त नहीं करेंगे, जो संगठन की आड़ में सिर्फ मीडिया मालिकों, आला अफसरों और सरकारों की चाटुकारिता करते रहते हैं।

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शाहजहांपुर के पत्रकार सौरभ दीक्षित की रिपोर्ट पर आधारित

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