सुनील चतुर्वेदी-
मैं सन् नब्बे के दशक में अपने काम के सिलसिले में मध्यप्रदेश के कई गावों में घूमते हुए पानी को लेकर बदलता हुआ मंजर देख रहा था। कुएँ, बावड़ी, तालाब खुदवाने का युग बीत रहा था। सत्तर-अस्सी के दशक में ट्यूबवेल खोदने वाली छुक-छुक मशीन (केलेक्स मशीन) गुम हो रही थी। केलेक्स मशीन 60-70 मीटर से ज्यादा गहरे नहीं खोद पाती थी और उसमें भी महीने भर से ज़्यादा का समय लग जाता। यह वही समय था जब पानी से परलोक सुधारने वाली मान्यता दम तोड़ रही थी। ज़मीन से पानी निकालने वाली फटाफट वाली एक नयी “ट्यूबवेल संस्कृति” का तेज़ी से उदय हो रहा था।
दक्षिण भारत से आयी ट्रक पर कसी पीली मशीनें दिवाली के बाद से ही गाँव-गाँव दिखायी पड़ने लगती। मेरा काम भी बढ़ रहा था। किसान नारियल घुमाने के साथ मशीन से भी पानी चखवाते और हम हाइड्रोजियोलॉजिस्ट किसानी भाषा में “पानी चखने वाले” कहलाने लगे।
गाँव-गाँव एकसे दृश्य थे। धड़-धड़ की आवाज़ के साथ ज़मीन के नीचे कड़क पत्थरों को भेदती मशीनें, 300-350 फुट की गहरायी से ज़मीन के नीचे से फूटता पानी का फ़व्वारा या कहीं केवल धूल का ग़ुबार। सरकार गाँव-गाँव हैंडपंप लगवा रही थी और किसान सिंचाई के लिए निजी ट्यूबवेल खुदवा रहे थे। शहरों, क़स्बों में ट्यूबवेल ठेकेदार नाम की प्रजाति पैदा हो गयी थी। रसूखदार और नेताओं के गठजोड़ से कारपोरेट कल्चर वाली ट्यूबवेल ड्रिलिंग कंपनियाँ बना कर सरकारी ठेके लिये जा रहे थे।
गाँवों में हैंडपंप राजनीति का केंद्र बन रहा था। हैंडपंप के बदले वोट। ड्रिलिंग कंपनियाँ और ठेकेदार 400-450 फुट तक खोदकर पैसा कमा रहे थे और अधिकारी काम देने के बदले मोटा कमीशन। कोई पूछता, कितना गहरा खोदें? जवाब में एक ही जुमला था पानी भले 250-300 पे निकल आये पर कम से कम 400 तो खुदवाओ। दो-पाँच साल में पानी नीचे उतरेगा तो फिर नया बोर नहीं करवाना पड़ेगा। गोया ट्यूबवेल नहीं किसी बच्चे की पेंट सिलवायी जा रही हो। दो-तीन इंच का मार्जिन रखकर उलट दो ताकि बच्चे की लंबाई बढ़ने पर तुरपायी खोली जा सके।
धरती को चीरकर नीचे का पानी निकालने के काम में पैसा ही पैसा था। आज यह कई गुना बढ़ गया है। वर्तमान में भारत में अकेले बोतल बंद पानी का व्यवसाय पच्चीस हज़ार करोड़ से कहीं अधिक का है।
नब्बे के दशक के बाद से ही देश के कई इलाक़ों से गर्मियों के आते ही पानी के संकट की खबरें भी आने लगी थीं। वर्ष 1995 में तो देवास में लोगों की प्यास बुझाने के लिये ट्रेन से पानी मँगवाया गया था। जल संकट के साथ ही शहरों में सड़कों पर ट्रेक्टर के पीछे खींचते टैंकर दिखायी पड़ने लगे जिन पर पीले या नीले रंग से लिखा होता पानी का टैंकर.
धरती का सीना छलनी हो रहा था, पानी गहरे उतर रहा था, पानी से पैसा बन रहा था और हौले-हौले जल संकट पैर पसार रहा था।
क्रमशः
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