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कालों की दुनिया में पहुंचे पत्रकार अभिषेक उपाध्याय गिन रहे गोरों की तादाद…!

अभिषेक उपाध्याय

…काले गोरे के भेद के चलते गांधी को इसी प्लेटफार्म पर फेंक दिया गया था…. तब से अब तक वक़्त पूरे 360 डिग्री पर घूम चुका है… इतिहास एक बार फिर मेरी नज़रों के सामने था…. ”जिसको भी दबाओगे। कुचलोगे। दुत्कारोगे। एक रोज़ पलटकर लौटेगा। हुकूमत तो उसकी भी आएगी। यही प्रकृति का न्याय है। यही मेरा प्रतिशोध है।”

अभिषेक उपाध्याय

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…काले गोरे के भेद के चलते गांधी को इसी प्लेटफार्म पर फेंक दिया गया था…. तब से अब तक वक़्त पूरे 360 डिग्री पर घूम चुका है… इतिहास एक बार फिर मेरी नज़रों के सामने था…. ”जिसको भी दबाओगे। कुचलोगे। दुत्कारोगे। एक रोज़ पलटकर लौटेगा। हुकूमत तो उसकी भी आएगी। यही प्रकृति का न्याय है। यही मेरा प्रतिशोध है।”

Abhishek Upadhyay : ये प्रिटोरिया की यूनियन बिल्डिंग थी। साउथ अफ्रीका के राष्ट्रपति का सरकारी ऑफिस। किसी ने इतिहास की प्लास्टिक सर्जरी कर दी हो जैसे। एकदम नई शक़्ल। मैं इस राष्ट्रपति भवन में खड़े एक एक शख़्स को लगभग घूरने की हालत में देखे जा रहा था। अविश्वास! घोर अविश्वास! कुछ सच ऐसे ही होते हैं। नंगी आँखों से देखकर भी यक़ीन नही होता। हर तरफ़ काले लोग। राष्ट्रपति के गार्ड्स। प्रेसिडेंसियल बैंड। राष्ट्रपति का पर्सनल स्टाफ़। साउथ अफ्रीकन आर्मी। साउथ अफ्रीकन ब्राडकास्टिंग कारपोरेशन। यानि यहां का सरकारी मीडिया। स्कैनर और मेटल डिटेक्टर पर तैनात सुरक्षा कर्मी। 90 से 95 फीसदी तक। काले ही लोग।

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कहीं-कहीं कोई गोरी शक़्ल दिख जाती। तो ऐसा लगता। मानो अरहर के खेत में। किसी ने थोड़ी सी पालक बो दी है। जो है भी। और नही भी है।

‘इन्होंने सब काले भर लिए हैं। ये अफ़्रीकी नेशनल कांग्रेस का नए किस्म का रंगभेद है।’

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ये जोहानसबर्ग में अरसे से काम कर रहा एक भारतीय था। जो उस वक़्त यूनियन बिल्डिंग में ही मौजूद था। मुझसे ये बातें कहते हुए। उसके चेहरे पर। हिकारत की लकीरें साफ़ नज़र आ रही थीं। मगर मेरे भीतर कोई चीख रहा था। प्रतिशोध है ये! प्रतिशोध! इतिहास का। एक भीषण प्रतिशोध! गांधी को। धक्के मारकर। स्टेशन पर फ़ेंक दिया। मंडेला को। पूरे 27 साल। जेल में। लगभग चुनवा ही डाला। दिनों नही। सालों नही। शताब्दियों तक। कालों को। रंगभेद के सिलबट्टे पर पीसकर रखा। उसी दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति के ऑफिस में। मुझे गोरी चमड़ी ढूंढें नही मिल रही थी। प्रतिशोध नही तो और क्या था ये?

“Madam! Please, just a minute. Will take a very brief interview.”

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ये साउथ अफ्रीका की विदेश मंत्री मायते माशाबानी थीं। डिज़ाइनदार बॉर्डर वाली धानी रंग की साड़ी पहने। बस कुछ ही मिनट पहले, पीएम मोदी ने साउथ अफ्रीका को धन्यवाद दिया था। NSG की दावेदारी में समर्थन की खातिर। मेरा कैमरामैन राजीव मुझसे थोड़ी दूरी पर था। मुझ तक आने में उसे तकरीबन तीन से चार मिनट लगे होंगे। इस बीच मैं इन्हें रोकने की जद्दोजहद में लग गया था।

“Madam, Pl wait for a minute!”

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मैं उनका रास्ता रोककर खड़ा हो गया था। दाहिनी तरफ कमरे की दीवार। बायीं तरफ कुर्सियां। बीच में संकरा सा रास्ता। वो उधर से ही निकल रही थीं। मैं इस चार मिनट में कम से कम आठ बार उनसे “Just wait a minute, madam” कह चुका था।”

“Your one minute is really very long. Jaldi keejiye.” वे मुस्कुराईं। और मुझे उन्हें रोकने का एक सूत्र और मिल गया।

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“You just said, ‘Jaldi keejiye’. It means you know hindi. Let’s talk in Hindi” इस बार वे खिलखिलाकर हंसी।

“I was High commissioner in India for 6 years. Namaste. Dhanyawad. Know only this hindi” उनके चेहरे पर हंसी की बर्फ़ सी पिघल रही थी। अब तक राजीव पहुंच चुका था। इंटरव्यू लेते हुए NSG, Terrorism, China, Pakistan जैसे उठापटक वाले मसले खत्म हुए। तो मेरी ज़ुबान से निकला-

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“And about Mahatma Gandhi……”

सवाल हवा में टँगा रह गया। उन्होंने पूरा सुना ही नही और बोलना शुरू कर दिया।

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“Gandhi…He fought for us…..for our freedom…..our right….he was our father….” वे बोले जा रही थीं। मुझे हॉल की दीवारों पर कोई परछाई सी तैरती दिखाई दी। कोई अनजानी सी आकृति। शायद टोह लेने आई थी। काले आज इतने ताकतवर हो चुके हैं! मुझे लगा वो आकृति दीवार से उतरना चाहती है। इस यथार्थ को छूकर देखना चाहती है। सब सच ही तो है न! कहीं कोई तिलिस्म तो नही!

डरबन। प्रिटोरिया। जोहानसबर्ग। हर तरफ। मैं इसी पहेली से जूझ रहा था। टैक्सियों के ड्राइवर काले। होटलों का स्टाफ़ काला। रेस्तरां के मालिक। बैरे काले। जोहान्सबर्ग का एक प्रतिष्ठित अखबार समूह हैं। सन्डे टाइम्स। उसके दफ्तर गया। वहां के अधिकतर पत्रकार काले। हमे एक एडवाइजरी भेजी गई थी। जोहानसबर्ग और डरबन में बेहद ऊंचे क्राइम रेट को लेकर आगाह किया गया था। सतर्क रहने की ताकीद की गयी थी। यहां आकर मालूम पड़ा कि क्राइम के इस सिंडिकेट में भी इन्हीं काले भाइयों का जलवा है। अजीब पागलपन सवार हो चुका था। मैं अब गोरों की गिनती करने पर उतर आया था। कहाँ कितने गोरे मिले। कितने छूटे।

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मैं अब जोहान्सबर्ग से डरबन के रास्ते में हूँ। टैक्सी हायर की है। ड्राइवर का नाम हुली सान है। 23-24 साल का दुबला-पतला लड़का। हाँ, ये भी काला ही है। रास्ते में फिलियास नाम के एक टाउन में हम रुके हैं। पानी की जो बोतल खरीदी है, वो मुझसे खुल नही रही है।

“San, Can you help me.”

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“Oh, Yes.” वो बोतल की तरफ लपका। अगले ही क्षण सान उस बोतल को मुँह में डालता है। बोतल का ऊपर वाला नुकीला ढक्कन बाहर। पानी का रिसना शुरू। बूँद-बूँद पानी मेरे हलक में उतर रहा है। गला कुछ ज़्यादा ही साफ़ लग रहा है। कोई गाँठ गल गई शायद। सान ने गाड़ी की स्पीड 140 पर कर दी है। सुबह-सुबह पीटर मैरिटसबर्ग रेलवे स्टेशन पहुंचना है। 1893 में। गांधी को। काले गोरे के भेद के चलते। इसी प्लेटफार्म पर फेंक दिया गया था। तब से अब तक। वक़्त। पूरे 360 डिग्री पर घूम चुका है। इतिहास एक बार फिर मेरी नज़रों के सामने था-

“जिसको भी दबाओगे। कुचलोगे। दुत्कारोगे। एक रोज़ पलटकर लौटेगा। हुकूमत तो उसकी भी आएगी। यही प्रकृति का न्याय है। यही मेरा प्रतिशोध है।”

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हमारी कार पीटर मैरिटसबर्ग रेलवे स्टेशन पहुंच चुकी थी। वेटिंग रूम के ठीक सामने गांधी की प्रतिमा लगी हुई थी। धूप की उठती-गिरती किरणों के बीच मुझे गांधी का चेहरा बड़ा गोरा सा नज़र आ रहा था! क्या ये भी इतिहास का प्रतिशोध था? उधेड़बुन कायम है।

टीवी पत्रकार अभिषेक उपाध्याय की एफबी वॉल से. अभिषेक इंडिया टीवी में वरिष्ठ पद पर कार्यरत हैं और चैनल के घुमंतू पत्रकार हैं.

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