रिटायर होता चप्पल और केंचुल छोड़ता आदमी…

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यशवंत सिंह-.

रिटायर होता चप्पल और केंचुल छोड़ता आदमी…

कल टहलते हुए कई साल पुराने हवाई चप्पल का फीता टूट गया। आधे रास्ते ये कांड हुआ। न लौट सकता था न आगे बढ़ सकता था। तुरंत कुछ करना था। नंगे पाँव चलने का एक ऑप्शन था। चप्पल को रिटायर मान फेंक देना था। पर सोचने लगा। नंगे पाँव में कुछ धँस सकता है। ऐसे में कुछ देर तक चलने भर के लिए चप्पल को बना लेते हैं। एक प्लास्टिक की पन्नी रास्ते के कूड़े से निकाला। उसी से सेट कर दिया। घर लौटा और भूल गया कि चप्पल को कुछ हुआ था। आज भी दिन भर ये पहने रहा। एक सज्जन ने ध्यान दिलाया तो चौंका। अरे, अब भी इसे ही पहन रहा हूँ। गौर से चप्पलों को देखा। प्लास्टिक जड़ित संयोजन को परखा। सही तो है। चलने दिया जाए। क्या फ़रक पड़ता है। काम चल रहा है।

इस कदर वर्तमान में डूबा रहता हूँ कि आगे पीछे का कुछ ख़याल नहीं रहता। बीस पच्चीस दिन हो गए ग़ाज़ीपुर रहते। यहाँ से जाने का दिल ही नहीं कर रहा। जीवन तो चल ही रहा है। नोएडा से बेहतर ही है सब हवा पानी।

मुझे कुछ याद नहीं। क्या था मैं। क्या हूँ मैं। जानने की कोई इच्छा नहीं। कोई योजना नहीं कुछ बनने या पाने की। जीवन को गुजरते हुए देख रहा हूँ। होश में। बेहोशी में बीत गए पचास बरस। उस बेहोशी का अपना सुख दुख था, अपने स्वर्ग नरक थे। अब होश का सुख दुख गुन रहा हूँ। होश में होना पहले व्याकुल करता रहा। अब होश की लत लग रही है। इस लत को गहराने में लगा हूँ। मदिरा छोड़े अरसा बीत गया। नॉन वेज़ से भी मुक्त कर लिया। सैद्धांतिक तौर पर काफ़ी पहले मुक्त था। बेहोशी में खाए जा रहा था। अब होश बढ़ रहा है तो होश में जी रहा हूँ। होश में जीते वक्त खाने पीने का दुराग्रह ख़त्म हो जाता है। सहज जीवन सहज भोजन का कॉम्बो ग़ज़ब होता है। खिचड़ी और चोखा के क्या कहने। ढेर सारी हरी उबली सब्ज़ियों के क्या कहने। जीवन में घनघोर शांति है। दुर्दम्य सहजता है। मुझे अक्सर लगता है काफ़ी समय से महसूस होता है कि मुझसे कोई कराता है। कोई मेरे में है जो निर्णय लेता है। मुझे ख़ुद पता नहीं होता क्या करूँगा। पर हो जाता है। बेहद ट्रांसपेरेंट पर्सनालिटी के भीतर अदृश्य ताक़तें वास कर पाती हैं। मेरे में कोई बैठा है। मुझे महसूस होता है। मेरी आदतें थ्री सिक्सटी डिग्री बदल गईं हैं। ख़ुद ब ख़ुद। कोई ठेल ठेल के किसी रास्ते पर बढ़ाए जा रहा है। मुझे शराब से मोहब्बत है। पर छूट गई। मुझे नॉन वेज बेहद पसंद है। पर खाने का अब दिल नहीं। ये बातें अंतर्विरोधों लग सकती हैं। पर हैं नहीं। जब जीवन को गहरे उतरकर जान लेते हैं, हर ओर छोर को, तो कहीं किसी काँटे में फँसते नहीं। द्रष्टा भाव ख़ुद को साइलेंट मोड में डालते जा रहा है। न लिखने कहने मिलने घूमने बताने बतियाने की इच्छा और न कोई निष्कर्ष निकालने की जल्दबाज़ी न कुछ समझने की उत्सुकता.. जो जैसा सब चल रहा है वह चल ही रहा है… क्या दिमाग़ लगाना.. कभी कभी लगता है सरेंडर कर चुका हूँ… कभी लगता है जीने की लालसा ख़त्म हो गई है… कभी लगता है रिटायर टाइप हो गया हूँ… चप्पल की तरह अस्थाई जुगाड़ से चले जा रहा हूँ…

पर सही कहूँ… मस्त है सब कुछ… कोई मोह इच्छा हो तो दुख लगे, ख़राब लगे… ख़राब बस ये लग रहा कि यार केंचुल उतर रहा है… पिछले तीस बरस के जीवन आदतों से निर्मित केंचुल… एक नया यशवंत पैदा होते देख रहा हूँ… इस निर्मिति के अपने नशे अपने हैंगओवर और अपने सुख दुख हैं… कुछ भी छूटता है तो दुख लगता ही है… यथास्थितिवादी मन मलिन हो जाता है बदलावों के चक्कर में…

मुझको कुछ कुछ हो रहा है इन दिनों जो कई बरसों से पक पल रहा था भीतर…

इसे नाम नहीं दे पा रहा हूँ…

ये सबको होता है क्या… ???



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