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दिल्ली

किरण बेदी पर शुरू से संदेह था : मेधा पाटकर

नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर अन्ना हजारे के 2011 के उस आंदोलन का भी हिस्सा थीं, जिसमें अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी जुड़े हुए थे. उन्होंने आम आदमी पार्टी से मुंबई से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन नाकाम रहीं. वह कहती हैं कि कुछ लोगों को शुरू से किरण बेदी के भाजपा में जाने का संदेह था. वह वैकल्पिक राजनीति के रूप में जनांदोलन को आज भी जरूरी मानती हैं. ऐसे समय जब अरविंद केजरीवाल की दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी हो रही है, वह अन्ना हजारे के साथ 24 फरवरी को भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जंतर मंतर पर प्रदर्शन की तैयारी कर रही हैं. इन सभी मुद्दों पर अमर उजाला के स्थानीय संपादक सुदीप ठाकुर ने बात कीः

<p>नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर अन्ना हजारे के 2011 के उस आंदोलन का भी हिस्सा थीं, जिसमें अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी जुड़े हुए थे. उन्होंने आम आदमी पार्टी से मुंबई से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन नाकाम रहीं. वह कहती हैं कि कुछ लोगों को शुरू से किरण बेदी के भाजपा में जाने का संदेह था. वह वैकल्पिक राजनीति के रूप में जनांदोलन को आज भी जरूरी मानती हैं. ऐसे समय जब अरविंद केजरीवाल की दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी हो रही है, वह अन्ना हजारे के साथ 24 फरवरी को भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जंतर मंतर पर प्रदर्शन की तैयारी कर रही हैं. इन सभी मुद्दों पर अमर उजाला के स्थानीय संपादक सुदीप ठाकुर ने बात कीः</p>

नर्मदा बचाओ आंदोलन की नेता मेधा पाटकर अन्ना हजारे के 2011 के उस आंदोलन का भी हिस्सा थीं, जिसमें अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी जुड़े हुए थे. उन्होंने आम आदमी पार्टी से मुंबई से लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था, लेकिन नाकाम रहीं. वह कहती हैं कि कुछ लोगों को शुरू से किरण बेदी के भाजपा में जाने का संदेह था. वह वैकल्पिक राजनीति के रूप में जनांदोलन को आज भी जरूरी मानती हैं. ऐसे समय जब अरविंद केजरीवाल की दिल्ली के मुख्यमंत्री के रूप में ताजपोशी हो रही है, वह अन्ना हजारे के साथ 24 फरवरी को भूमि अधिग्रहण के खिलाफ जंतर मंतर पर प्रदर्शन की तैयारी कर रही हैं. इन सभी मुद्दों पर अमर उजाला के स्थानीय संपादक सुदीप ठाकुर ने बात कीः

दिल्ली विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को जिस तरह की कामयाबी मिली है, आप उसे किस तरह देख रही हैं? खासकर इसलिए क्योंकि आप खुद भी पार्टी से जुड़ी रही हैं और आपने लोकसभा का चुनाव भी लड़ा था.

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यह बड़ी कामयाबी है, क्योंकि पूरे देश में मोदी जी की लहर को लेकर अफवाह बनी हुई थी, जो की कुछ समय तक सही भी साबित हुई थी,उसकी असलियत अब सामने आ गई है. दूसरी बात, मोदी और अमित शाह एक नई पार्टी और युवाओं के खिलाफ जिस तरह छोटे छोटे मुद्दे उछाल रहे थे, उसे लोगों ने पसंद नहीं किया. तीसरी बात यह कि एक ओर जाति और संप्रदाय के मुद्दे उछाले गए और दूसरी ओर पैसा और शराब की ताकत दिखाई गई, उसका असर भी लोगों पर नहीं हुआ. चौथी बात यह कि आम आदमी पार्टी के युवा साथियों ने अपनी रणनीति बहुत प्रभावी तरीके से बनाई. जिसका असर यह हुआ कि नीतीश कुमार जैसे नेताओं तक को यह कहना पड़ा कि हम यह मॉडल अपनाएंगे. इसके साथ ही मुख्यधारा की राजनीति और वैकल्पिक एजेंडे के तालमेल ने कांग्रेस और वामपंथी पार्टियों की निराशा से उपजी विपक्ष की जगह को भरने में मदद की. इसका असर दिल्ली से बाहर भी होगा.

आम आदमी पार्टी को आप दूसरे राजनीतिक दलों से कितना अलग मानती हैं?

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इसके नेता खांटी राजनेताओं से अलग हैं. हालांकि पार्टी ने मुख्यधारा की राजनीति के कुछ हथियार भी इस्तेमाल किए, जैसे पैसा वगैरह तो इन्होंने भी खर्च किया, लेकिन भाजपा के मुकाबले यह बहुत कम था.

आप लोगों के नेशनल एलांयस फॉर पीपुल्स मूवमेंट (एनएपीएम) की नवंबर, 2014 में हुई बैठक में यह मुद्दा उठा था कि क्या आम आदमी पार्टी का दिल्ली के बाहर कोई असर है. इन नतीजों के बाद आप क्या सोचती हैं?

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दिल्ली से बाहर जाने की बात थोड़ी अलग तो है. दिल्ली में बड़ा आंदोलन हुआ था और उसके बाद पार्टी बनाने का फैसला हुआ. दिल्ली एक छोटा राज्य है, यह भी सच है. मगर राजनीति भी बहुत विविधातापूर्ण नहीं रही यह भी सच है. दलितों की राजनीति और बहुजन समाज की राजनीति के कारण अन्य राज्यों में थोड़ा अलग माहौल है. शुरू में मेरे जैसे लोगों को लगा था कि दिल्ली में ध्यान केंद्रित करते समय बहुत से ऐसे लोगों को साथ नहीं लिया गया, जो शुरू में साथ थे. वैकल्पिक राजनीति इस पार्टी की बुनियाद है, और उसका विस्तार करने के लिए ऐसे लोगों को साथ लेना होगा. दिल्ली में भी आम आदमी पार्टी ने जो आश्वासन दिए हैं, उसके लिए भी उसे व्यवस्था से लड़ना पड़ेगा और एक मूवमेंट का ही रूप लेना पड़ेगा.

लोकसभा चुनाव लड़ने से पहले तक आप भी यह मानती थीं कि व्यवस्था को बदलने के लिए राजनीतिक दल के रूप में उसका हिस्सा बनना जरूरी नहीं है और जनांदोलनों के जरिये भी नीतियों को जनहित में प्रभावित किया जा सकता है. क्या आपकी सोच अब बदल गई है?

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एनएपीएम ने भी अपनी बैठक में यही तय किया है कि जनांदोलनों को सशक्त करना जरूरी है. इस जीत ने आशा की किरण दिखाई है, लेकिन राजनीति उतनी आसान नहीं है. पैसे का प्रभाव तो राजनीति में है ही, लेकिन आज कंपनियों का जिस तरह का हस्तक्षेप है, वह चिंता की बात है. ये कंपनियां कभी कांग्रेस, को कभी भाजपा को तो कभी उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव की पार्टी और उनकी सरकार के काम में हस्तक्षेप करती आई हैं. मेरी राय आज भी यह है कि राजनीति से बाहर रहकर भी हम नीतियों को जनहित में प्रभावित कर सकते हैं. हालांकि कंपनीकरण, बाजार, संप्रदाय और जातिवादी राजनीति के बीच यदि कुछ अच्छे लोग जाते हैं, तो उनसे अच्छा करने की उम्मीद होती है. जनांदोलनों के जरिये ही जमीन से लेकर जंगल तक के अधिकार मिले हैं और सशक्तीकरण हुआ है. इसकी जरूरत कायम रहेगी. वहीं दूसरी ओर जिस तरह से संविधान की प्रस्तावना को गलत तरीके से व्याख्या करने की कोशिश की गई, या योजना आयोग को जिस तरह भंग किया गया, उससे लगता है कि राजनीति के भीतर जाकर भी हस्तक्षेप करने की जरूरत है.

आपने उत्तर-पश्चिम मुंबई सीट से लोकसभा का चुनाव लड़ा था और उस समय कहा जा रहा था कि नेशनल एलांयस फॉर पीपुल्स मूवमेंट का आम आदमी पार्टी में विलय कर दिया जाना चाहिए, लेकिन आपने ऐसा नहीं किया था. क्या आपको आम आदमी पार्टी की सफलता को लेकर किसी तरह का संदेह था?

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एनएपीएम के आम आदमी पार्टी में विलय की बात कभी भी किसी ने भी नहीं उठाई. उस समय योगेंद्र यादव जी, प्रशांत भूषण जी और अरविंद जी से जो बात हुई थी, उसमें यह साफ था कि आंदोलन का स्वरूप जारी रखते हुए ही हम आम आदमी पार्टी का समर्थन करेंगे. जिन लोगों ने चुनाव लड़ा था, वह एनएपीएम के नहीं आम आदमी पार्टी के उम्मीदवार थे.

आप आंदोलन में ही रहेंगी या आम आदमी पार्टी में जाना चाहेंगी?

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मैंने तो लोकसभा चुनाव के दौरान ही दो महीने का समय निकाला था. आंदोलन के काम में ही मैं अभी व्यस्त हूं.

2011 के भ्रष्टाचार विरोधी अन्ना हजारे के आंदोलन में अरविंद केजरीवाल, किरण बेदी और मेधा पाटकर तीन बड़े चेहरे थे. अरविंद ने अपनी पार्टी बना ली, किरण बेदी भाजपा के साथ चली गईं और आप आंदोलन में लौट गईं. आंदोलन के इस उपसंहार को किस तरह देखती हैं?

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किरण बेदी के बारे में तो हमारे बहुत से साथियों को शुरू से संदेह था कि वह कभी भी भाजपा में जा सकती हैं. लेकिन उस आंदोलन में उन्होंने अपनी भूमिका ईमानदारी से निभाई थी. उसमें किसी तरह की शंका नहीं थी. उनकी अपनी अच्छी छवि रही है, लेकिन उन्होंने भाजपा के साथ जाकर बहुत बड़ी गलती की. उनके भाजपा में जाने से यह संदेह पैदा हुआ कि क्या वह सांप्रदायिकता और मोदी जी के कॉरपोरेटाइजेशन के खिलाफ हैं या नहीं. भाजपा के साथ अरविंद जी ने अपने बहुत से साथियों के साथ बहुत सोच समझकर पार्टी बनाने का निर्णय लिया. प्रशांत भूषण और अरविंद जी ने मुझसे भी चर्चा की थी और सबसे पहले हिमाचल का चुनाव लड़ने की भी बात हुई थी. उनमें गहराई है और रणनीति बनाने में माहिर हैं. कार्यकर्ताओं को भी वैचारिक धरातल पर जोड़ना यह कोई छोटा काम नहीं है.

एक तरफ अरविंद केजरीवाल की ताजपोशी हो रही है और आप और अन्ना हजारे 24 फरवरी को जंतर मंतर पर धरने की तैयारी कर रहे हैं, इसे किस तरह देखा जाए?

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सिर्फ अन्ना या मैं ही नहीं, कई संगठन हैं, जो भूमि अधिग्रहण से संबंधित अध्यादेश और भ्रष्टाचार के मुद्दे पर जंतर मंतर आ रहे हैं. हमारा प्रदर्शन केंद्र सरकार के खिलाफ है, क्योंकि ये मुद्दे उससे जुड़े हुए हैं. अभी यह तय नहीं है कि अन्ना आएंगे या नहीं, क्योंकि उनकी तबियत अभी ठीक नहीं है.

यदि कभी नौबत आई तो आप क्या अरविंद केजरीवाल सरकार के खिलाफ धरना देंगी?

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अभी तो अभिनंदन की घड़ी है, ऐसे में कुछ बुरा सोचें यह अच्छा नहीं. यदि जनहित के मुद्दे पर आम आदमी पार्टी अलग भूमिका लेगी, तो सामने आएंगे. और फिर हम संवाद में यकीन करते हैं, सिर्फ संघर्ष नहीं.

साभार- अमर उजाला

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