Vineet Kumar : नहीं रहे हमारे कृष्णदत्त पालीवाल सर… एमए का आखिरी पेपर उन बच्चों के लिए प्रोजेक्ट हुआ करता था जो ऑप्शन में मीडिया लिया करते थे..और इस प्रोजेक्ट के लिए विभाग से एक गाइड तय किए जाते थे. जब हमने एमए हिन्दी साहित्य में दाखिला लिया तो के डी सर की धूम थी. वो जापान से लौटे ही थे और सीनियर्स को देखता था कि हर दूसरे उन्हीं के साथ पीएचडी करना चाहते थे. एमए की क्लास में गोविंद दर्शन जैसी भीड़ होती. सच पूछिए तो केडी सर और नित्यानंद तिवारी सर के लिए ही हम बच्चे आर्ट्स फैकल्टी जाते..वैसे मैं बैल की तरह पूरी क्लास में मौजूद होता. खैर. एमए की इस प्रोजेक्ट के लिए वो स्वाभाविक रुप से मिल गए. लिस्ट में नाम आने के बाद मैं वहां गया. अपना विषय बताया और कहां सर बताइए- कैसे लिखना है.
उन्होंने बडी ही विनम्रता औऱ साफगोई से कहा- देखो, इस विषय में मेरी कोई खास गति नहीं है, मैं आपको कुछ विद्वानों के नाम बताता हूं, आप उनसे बात कर लियो. हां ये जरूर है कि किसी भी शोध की कुछ अनिवार्यता होती है, वो विषय बदलने के बावजूद एक सी होती है..मैं आपको शोध प्रविधि को लेकर जरूर मार्गदर्शन करूंगा. उसके बाद उन्होंने मुझे जाकिर हुसैन कॉलेज जाकर सुधीश पचौरी और आइआइएमसी जाकर आनंद प्रधान से मिलने कहा..मैं इन दोनों से मिलता रहा और प्रोजेक्ट का काम करता रहा.
बीच में इन्होंने तीन बार मेरा काम देखा और कहा- अच्छा जा रहे हो..बस अब समय पर कर दो. मैं इस काम में इतना उलझ गया था और इमोशनली जुड़ भी गया था कि देर होने लगी. उन्होंने फिर बुलाकर कहा-आप बस अब कर डालो..मुझे अब भी याद है..आखिरी दिन लगा कि बग्गा इस प्रोजेक्ट को लेंगे भी या नहीं तो खुद चलकर उन तक गए और कहा- बच्चे ने मेहनत करी है, जमा ले लो. मैने उनका शुक्रिया अदा किया और फिर पेपर की तैयारी में लग गया. फिर बस जब-तब दुआ सलाम.
एम.फिल् की आधुनिक कविता ऑप्शन में फिर उनकी क्लास में जाना हुआ. वो हमें पुनर्जागरण औऱ आधुनिक हिन्दी कविता पढ़ाते थे..क्लास में इतने कम बच्चे होते कि अपनी केबिन में ही बुलाकर घंटों, देर शाम तक पढ़ाते रहते. एमए में हमें निराला और काव्यशास्त्र का कुछ हिस्सा पढ़ाया था..सो कुछ बातें पहले से पता थी. क्लासरूम के अलावा केडी सर का अलग से मैंने कभी कुछ नहीं पढ़ा. उनका लिखा मुझे बहुत अपील ही नहीं करता. क्लास में जो लय होती वो छपे शब्दों में जाकर टूट जाती..दरअसल हम उनकी बोलने की शैली के मुरीद रहे, लिखे के कभी नहीं. कभी दूरदर्शन, लोकसभा टीवी पर दिख जाते तो जरूर देखता रहा लेकिन जनसत्ता और बाकी मंचों के लेख स्किप कर जाता.
एमए, एम फिल् के अपने इस मास्टर से दो चीजें सीखी..अकादमिक दुनिया में भी और जिंदगी में भी. एक तो ये कि ये मुझे हिन्दी विभाग, दिल्ली विश्वविद्यालय के अकेले ऐसे टीचर लगे जिन्हें पूरा का पूरा पाठ याद होता, पूरी की पूरी राम की शक्ति पूजा, सरोज-स्मृति याद हुआ करती, पाठ पर उनका जोर होता और दूसका कि वो अपने विरोधी विचारवालों को भी बर्दाश्त करते..अपने निजी जीवन में कैसे थे, नहीं पता लेकिन मैंने कुल तीन साल में महसूस किया कि उन लेखकों, विद्वानों को पढ़ने कहते जिनसे वो कभी खुद सहमत नहीं हुए. पढ़ाने-सिखाने की दुनिया में विश्वविद्यालय और विभाग की खेमेबाजी को आने नहीं दिया.
के डी सर अक्सर बात करते हुए, खासकर अकेले में हाथ पकड़ लेते, जोर से दबाते और कहते- बेटा, मैं कह रहा हूं न कि हिन्दी नवजागरण पर डॉ. रामविलास शर्मा को पढ़े बिना बात कर ही नहीं सकते, तू पढ़ लियो. मैं उनके हाथ पकड़े जाने के अंदाज और पैदा हुई गर्माहट को अब भी महसूस कर पा रहा हूं. साहित्य और ज्ञान के प्रति इतना यकीन बहुत कम शिक्षकों में देखा..अपनी तमाम वैचारिक असहमतियों और उखड़ी हुई लेखन शैली के बावजूद पढ़ने-लिखने के प्रति दिलचस्पी पैदा करने में ये मेरा टीचर मेरे भीतर अब भी किसी न किसी रूप में शामिल है, रहेंगे.
युवा मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से.