Sushobhit-
लेखक और विज्ञापन
पिछले दिनों एक लेखक (?) को एक उत्पाद का विज्ञापन करते देखा और उनके इस कृत्य को समर्थन भी मिला। इससे यह प्रश्न हमारे सामने उत्पन्न होता है कि क्या लेखकों को विज्ञापन करना चाहिए? इसे कुछ परिप्रेक्ष्यों में समझने का प्रयास करते हैं।
साल 2007 की बात है। उज्जैन में कवि चन्द्रकान्त देवताले के घर मैं उनसे बात कर रहा था। पीछे टीवी चल रही थी। अचानक टीवी पर एक विज्ञापन आया, जिसमें एक लोकप्रिय ग़ज़ल-गायक गले में ख़राश के एक टॉनिक का एंडोर्समेंट कर रहे थे। विज्ञापन में खांसी शब्द की तुक राग भीमपलासी से मिलाई गई थी। देवताले जी बोलते-बोलते रुक गए। उनके चेहरे पर चिंता और जुगुप्सा के भाव उभर आए। उन्होंने कहा, यह गायक एक-एक शो के लाखों रुपये कमाते हैं, इनके एलबम की लाखों कैसेट बिकती हैं जिससे उन्हें रॉयल्टी मिलती है। इनके चेहरे पर चमक है, ये कला-उद्योग के खाये-पीये-अघाये लोग हैं। फिर भी विज्ञापन कर रहे हैं और वह भी खांसी और भीमपलासी की भौंडी तुक मिलाकर? इनकी भूख मिटती ही नहीं। कलाकार हो जाना एक बात है, लेकिन व्यक्तित्व का विकास एक दूसरा ही आयाम होता है।
हाल में उन लेखक को विज्ञापन करते देख मुझे देवताले जी की वह बात सहसा ही याद हो आई।
अब आप एक दृश्य की कल्पना करें कि एक लेखक आपसे कहता है कृपया आप फलाँ उत्पाद का उपभोग करें। स्वाभाविक ही आप उससे पूछेंगे कि क्यों? इस पर वह क्या उत्तर देगा? यह कि मुझे पता नहीं, पर मुझे ऐसा कहने के लिए कारख़ाने के मालिक के द्वारा पैसे दिये गये थे? इतना ही नहीं, जो पंक्ति मैंने आपसे कही, वह भी मेरी लिखी हुई नहीं थी, उसे मुझे कहने के लिए बोला गया था सो मैंने जस की तस दोहरा दी। तिस पर बहुत सम्भव है कि आप उससे कहें कि तुम दूसरों की लिखी पंक्ति को पैसे लेकर दोहराते हो, तब तुम लेखक हो या घसियारे हो?
कल्पना करें इसके बाद आप उस लेखक से पूछें कि तुम्हें ऐसा क्यों लगा कि तुम मुझसे किसी उत्पाद का उपभोग करने को कहोगे और मैं मान लूँगा? इस पर लेखक क्या कहेगा, सिवाय इसके कि आप मेरा लिखा पसंद करते हैं और मेरी लिखी पुस्तकें पढ़ते हैं तो मुझे लगा मैं आपके निर्णयों को प्रभावित कर सकता हूँ। इसके उत्तर में आप इतना भर ही कहेंगे ना कि इस हरकत के बाद अब मैं आपका लिखा पसंद करने से रहा, क्योंकि अगर कोई आपको पैसे देकर अपना प्रोडक्ट बिकवा सकता है तो इस बात की क्या गारंटी है कि किसी ने आपको पैसे देखकर आपकी किताब में अपनी पसंद का विचार नहीं लिखवाया होगा?
क्योंकि, लेखन की तुलना खेल, सिनेमा, विज़ुअल आर्ट आदि से नहीं की जा सकती। लिखना एक मानसिक प्रक्रिया है। वह एक इंटेलेक्चुअल और क्रिएटिव प्रोसेस है। लेखन में किन्हीं विचारों को प्रस्तुत किया जाता है और वे विचार सही या ग़लत हो सकते हैं, लेकिन लेखक का उनके प्रति निष्ठावान होना अत्यन्त आवश्यक है। अफ़सोस कि विज्ञापन करने वाले लेखक से अपने विचारों के प्रति निष्ठावान होने की अपेक्षा नहीं की जा सकती है।
लेखक के द्वारा विज्ञापन किए जाने की सराहना यह कहकर की गई कि “लेखक क्यों अच्छे और आरामदायक जीवन की अनुशंसा नहीं कर सकता, लेखक भी सलीक़े से रहना चाहता है।” पहली बात तो यह है कि लेखक अनुशंसा कर सकता है या नहीं कर सकता है, किन्तु पैसे लेकर किसी चीज़ की अनुशंसा करना अनैतिक है। दूसरे, अच्छा और सलीक़े का जीवन हम किसे कहेंगे? अच्छा कपड़ा पहनने और महंगी गाड़ी में बैठने से लेखक का जीवन अच्छा नहीं हो जाता, वह वैचारिक निष्ठा और रचनात्मक श्रेष्ठता से होता है। तीसरे, लेखक को आरामदायक जीवन जीने का विचार त्याग देना चाहिए, क्योंकि यह एक कठोर, यंत्रणापूर्ण प्रक्रिया है, और मुक्तिबोध ने कहा था कि अपनी मानसिक शांति को भंग करके ही कोई लेखक बन सकता है।
किसी ने आपसे हाथ जोड़कर निवेदन नहीं किया था कि आप लेखक बनें। किसी ने पीले चावल नहीं भिजवाये थे। संसार में धन कमाने और आराम से जीने के बहुत सारे धंधे हैं और कोई भी व्यक्ति इन्हें चुनने के लिए स्वतंत्र है। लेकिन लेखन धनार्जन और आराम से जीने के लिए नहीं किया जाता, लेखन इसलिए किया जाता है क्योंकि आपके पास विचार होते हैं, कल्पनाएँ होती हैं, कहानियाँ होती हैं और आप इन्हें एक अनुक्रम में रचकर पाठकों से साझा करना चाहते हैं। क्यों? क्योंकि यह एक मानवीय-परिप्रेक्ष्य है कि हम अपने विचारों को दूसरों से बाँटें और समानधर्माओं की खोज करें और अगर आप भाग्यशाली हैं तो खरी और सच्ची सराहना भी पायें। आपको लेखन से धन भी मिल सकता है, लेकिन वह सांयोगिक है। वरदान है। धनार्जन उसका मूल प्रयोजन नहीं। सच तो यह है कि अगर लेखन पर टैक्स लगा दिया जाये तो बहुत सारे लेखक टैक्स चुकाकर भी लिखेंगे, क्योंकि वो लिखे बिना रह ही नहीं सकते। अतीत में लेखकों ने जेल में, बीमारी में, अभावों में, निर्वासन में भी लिखा है, क्योंकि उन्हें लिखना ही था। लेखन एक महान कृत्य है।
लेखक की एक गरिमा होती है और पैसे लेकर किसी उत्पाद का प्रचार करना लेखकीय-गरिमा के विरुद्ध और बाज़ारू-कृत्य है- ऐसा मेरा स्पष्ट मत है।
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