सियासत के खेल ने तहजीब पसंद शहर के चेहरे पर बदनुमा दाग लगा डाला है। तहजीब पेश करने वाले शहर की आत्मा लहूलुहान है। नागरिकता संशोधन एक्ट के विरोध प्रदर्शन के दौरान हुए उपद्रव की आग में केवल लखनऊ की पुलिस चौकी और वाहन ही नहीं जलाये गये हैं, बल्कि तहजीब के शहर में अमन और भाईचारा भी जला दिया गया है। लखनऊ, जिसके अंदाज में नफासत और मिजाज में नजाकत हमेशा से पहचान रही है, वह इस कदर लहूलुहान हो जायेगा, इसकी उम्मीद इस शहर के वाशिंदों को भी नहीं थी। सवाल अब भी लोगों की आखों में है कि इतनी अराजक भीड़ लखनऊ में आई कहां से? भाषा में तमीज सहेजने वाले इस शहर में दूसरे वर्ग को उकसाते नारों की गूंज ने गंगा-जमुनी रवायत की नींव हिलाने का काम किया है।
दरअसल, यह विरोध प्रदर्शन केवल नागरिकता संशोधन कानून से ऊपजी खुन्नस मात्र नहीं है बल्कि यह लोकतांत्रिक रूप लगतार मिल रही पराजय की टीस भी है। तीन तलाक, धारा 370, राममंदिर जैसे मुद्दों पर मजबूरी में चुप रह जाने वाले वर्ग को नागरिकता संशोधन कानून का अराजक विरोध सूट कर रहा है। इस वर्ग के मन में छुपा गुस्सा बाहर आ रहा है, क्योंकि शहर जलाने जैसे हादसे अचानक नहीं होते! सीएए के नाम पर हो रहा अराजक विरोध प्रदर्शन पाकिस्तान, बांग्लादेश और आफगानिस्तान के 31 हजार से कुछ ज्यादा गैर-मुसलमानों को नागरिकता दिये जाने के खिलाफ नहीं वरन लाखों की संख्या में भारत में रह रहे पाकिस्तानी, बांग्लादेशी, आफगानी और रोहिंग्यिा घुसपैठिये मुसलमानों को निकाले जाने का है। लखनऊ बांग्लादेशी-रोहिंग्या घुसपैठियों का गढ़ बन चुका है। अवैध बस्तियां बनाकर यह घुसपैठिये वोट देने का अधिकार तक हासिल कर चुके हैं। यूपी के डिप्टी सीएम का मेयर कार्यकाल बांग्लादेशी घुसपैठियों के लिये स्वर्णिमकाल साबित हुआ है।
देश में तो इन घुसपैठियों की संख्या करोड़ों पार कर चुकी है। 2011 की जनगणना में यह आधिकारिक तौर पर सामने आया था कि 55 लाख से ज्यादा बांग्लादेशी, पाकिस्तानी तथा आफगानिस्तानी मुसलमान भारत में रह रहे हैं। वर्तमान में इसमें बर्मा से भगाये गये रोहिंग्या मुसलमानों की संख्या भी जोड़ लें तो यह आधिकारिक आंकड़ा करोड़ों पार कर चुका होगा। वर्ष 2000 में ही एक आकलन था कि भारत में 12.5 करोड़ से ज्यादा बांग्लादेशी घुसपैठिये रह रहे हैं और भारत सरकार की सुविधाओं का लाभ उठा रहे हैं। भारतीयों के हिस्से का लाभ लेने वाले इन घुसपैठियों को बाहर निकालने को लेकर अब तक कोई भी सरकार गंभीर नहीं थी। वोट के लालच में कुछ सियासी दल तथा सरकारी मशीनरी लंबे समय से बांग्लादेशी घुसपैठियों को वोटर बनाने में जुटे हुए हैं। पश्चिम बंगाल और असम जैसे राज्यों को छोड़ भी दें तो एक अनुमान के मुताबिक प्रत्येक साल उत्तर प्रदेश में 25 हजार से ज्यादा बांग्लादेशी घुसपैठ करते हैं और वोट का अधिकार पाकर यहां के नागरिक बन जाते हैं। एक ऐसा अनुमान है कि लखनऊ एवं आसपास के इलाकों में बांग्लादेशी घुसपैठियों की संख्या 5 लाख की संख्या पार कर चुकी है। विरोध करने वाला वर्ग इसलिये चिंतित नहीं है कि भारत की सरकार गैर-मुसलमानों को अपनाने जा रही है बल्कि उनकी चिंता पड़ोसी देशों से आने वाले घुसपैठी मुसलमानों की बेदखली को लेकर है, जो देश-प्रदेश की कानून-व्यवस्था के लिये भी चुनौती बनते रहते हैं। लखनऊ में ही चोरी-डकैती की कई घटनाओं में बांग्लादेशियों और रोहिंग्या के शामिल होने की बात सामने आ चुकी है।
दरअसल, कश्मीर-लद्दाख से मार-काटकर बेघर कर दिये गये पंडितों-बौद्धों के मसले पर भले ही बामपंथी, बुद्धिजीवी और फिल्मी मंडली चुप्पी साध जाती है, लेकिन उन्हें वर्मा, बांग्लादेश, पाकिस्तान और आफगानिस्तान से आने वाले रोहिंग्या और मुसलमानों का दर्द उन्हें बोलने को मजबूर कर देता है। पड़ोसी देशों से प्रताडि़त होकर आने वाले गैर-मुस्लिमों को लेकर भले ही किसी को फर्क नहीं पड़ता, लेकिन घुसपैठिये रोहिंग्या को देश से निकाले जाने के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर हो जाती है। इसी मानसिकता ने देश में भाजपा जैसी पार्टी को खाद-पानी देने का काम किया है। भाजपा के शासनकाल में नसीरुद्दीन शाह, शाहरूख खान और आमिर खान जैसों कलाकर अक्सर डरे पाये जाते हैं, लेकिन नागरिता संशोधन कानून पर देश भर में फैली अराजकता उन्हें कतई नहीं डराती है। इससे उन्हें कोई डर नहीं लगता कि देश को आग लगाया जा रहा है। पुलिस पर हमला किया जा रहा है। पत्थर फेंका जा रहा है। इन बातों पर प्रधानमंत्री को कोई चिट्ठी नहीं लिखता है। बर्मा में रोहिंग्या पर अत्याचार होने पर मुंबई में शहीद स्मारक तोड़ दिया जाता है। लखनऊ में महावीर की प्रतिमा ध्वस्त कर दी जाती है। फ्रांस में कार्टून बनने पर भारत के शहरों को जला दिया जाता है, लेकिन किसी बुद्धिजीवी को डर नहीं लगता है! यही दोहरापन देश के भीतर एक बड़े वर्ग के असंतोष का कारण बनाता है, जिसका असर समाज के ताने-बाने को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाता है।
नागरिकता संशोधन एक्ट पर उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी और कांग्रेस की तरफ से विरोध प्रदर्शन करने का ऐलान किया गया था। ऐसी आशंका सरकार को भी थी कि जामिया मिलिया में हुए लाठीचार्ज के चलते यह प्रदर्शन थोड़ी उग्र हो सकता है, क्योंकि एक वर्ग विशेष में इस एक्ट के खिलाफ नाराजगी है, लेकिन यह प्रदर्शन अराजक और हिंसक हो जायेगा, इसकी उम्मीद इस शहर को नहीं थी। अयोध्या में बाबरी ढांचा विध्वंस पर जब पूरा देश दंगों की आग में झुलस रहा था, तब भी लखनऊ का मिजाज गर्म नहीं हुआ था। पुलिस की गाडि़यों के साथ मीडिया के ओवी वैन और पत्रकारों के वाहनों को चुन-चुनकर जलाती भीड़ एकबारगी भी आंदोलनकारियों सी नहीं लगी। पुलिस और पत्रकारों पर पत्थर बरसाती यह भीड़ हर बढ़ते कदम के साथ दंगाइयों-बलवाइयों के रूप में तब्दील होती रही। एकबारगी ऐसा लगा कि मुस्कुराते शहर को जैसे किसी की नजर लग गई है। सियासत की आंच पर हिंदू-मुसलमान के रिश्तों को जलाते सियासी दलों का वोट बैंक जरूर बढ़ गया होगा, लेकिन लखनऊ को जो जख्म मिले हैं, वो नासूर ना बनें इसकी दुआ भी करनी होगी। पुलिस और इंटेलीजेंस की असफलता के साथ बाहरी प्रदेशों के उपद्रवियों की गिरफ्तारी से साफ है कि इस शहर की हवा को खराब करने की सोची समझी साजिश रची गई थी, जो तात्कालिक तौर पर तो सफल होती नजर आती है। इस भीड़ में बांग्लादेशी घुसपैठियों के साथ बंगाल से आये अराजक तत्वों के शामिल होने की संभावना है। बंगाल के कुछ लोगों के अरेस्ट होने से इस तथ्य को बल मिलता है।
पर, लखनऊ की रवायत को जानने वाले मानते हैं कि यह एक बेअदब हवा का झोंका था, जो दिन-दो दिन में बदल जायेगा। यहां के निवासी भी मानते हैं कि ‘नखनऊ’ महज एक शहर नहीं बल्कि मिजाज है। इस नवाबी शहर के प्यार भरे तिलिस्म से बच पाना किसी के लिये मुश्किल है। अभी माहौल में तनाव है, कल फिर गुंजने लगेगा, ‘हम फिदा-ए-लखनऊ, है किसमें हिम्मत जो छुड़ाये लखनऊ।
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार अनिल सिंह का विश्लेषण. संपर्क- 09451587800 / 09984920990