फिल्म लेखक संघ बनाम मुस्लिम लेखक संघ

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फिल्म लेखक संघ के मुशायरे को संघ अध्यक्ष जलीस शेरवानी ने मुस्लिम लेखक संघ के मुशायरे में तब्दील कर दिया। यह नजारा देखने को मिला पिछले दिनों रंग शारदा हॉल (बांद्रा) में, जहां बड़े बैनर पर लिखा तो गया था कवि सम्मेलन/ मुशायरा मगर उसमें मुंबई की एक शायरा और एक अन्य हास्य कवि के अलावा एक पाकिस्तान और एक दुबई समेत 14 भारतीय मुस्लिम शायर थे, जिन्हें अच्छे खासे पैसे और प्लेन का टिकट देकर बुलाया गया था। इनमें नवाज देवबंदी और मुनव्वर राणा के अलावा अदब का कोई बड़ा नाम नहीं था। पता चला कि बाकी शायर वे हैं, जिनसे जलीस शेरवानी का मुशायरों का कथित लेनदेन चला करता है- मुझे तुम बुलाओ, तुम्हें मैं बुलाऊं। निमंत्रण पत्र पर लिखा था- फर्स्ट कम फर्स्ट सीट…लेकिन हॉल में पहुंचने पर पता चला कि आधा हॉल रिजर्व रखा गया है…बाद में उन सीटों पर अधिकांश वे लोग दिखे, जो उजले कुर्ते-पाजामे में सिर पर टोपी लगाये बार बार सुभान अल्ला, सुभान अल्ला चिल्ला रहे थे।

फिल्म राइटर्स संघ के समर्थन पत्र की प्रतिलिपि

इस अवसर पर छपी स्मारिका में ठूंस ठूंसकर उर्दू के शब्द रखे गये। हॉल में लगे बैनर पर भी उर्दू लिपि ने अच्छा खासा स्थान घेर रखा था। मुशायरे की निजामत कर रहे दानिश जावेद शायरों की पृष्ठभूमि से बिल्कुल अनजान थे और हर शायर को चुटकुले के एक पुछल्ले के साथ दावत दे रहे थे। उर्दू में अनवर जलालपुरी, मलिकजादा मंजूर, उमर कुरैशी जैसे कुशल संचालकों को दरकिनार कर भाषा और शायरी के स्तर पर इतने कमजोर शख्स को संचालन की जिम्मेदारी देने की क्या वजह थी, इस पर भी संघ का रुख स्पष्ट नहीं। 

दुबई के मुशायरों से नात पढ़ने की परंपरा खत्म हो रही है, लेकिन तरक्कीपसंद कहलाने का दम भरनेवाले इस संघ के मुशायरे में एक शायर ने सिर पर रुमाल बांधकर बीस मिनट तक बार बार दाद की भीख मांगते हुए नात पढ़ी। मुशायरे को याद-ए-कैफी नाम दिया गया था और कैफी की बड़ी तस्वीर भी लगायी गयी थी, जबकि कैफी के बारे में न तो कोई पर्चा पढ़ा गया, न ही और किसी तरह उन्हें याद किया गया। पता चला कि याद-ए –कैफी की यह कवायद इसलिये की गयी थी ताकि जावेद अख्तर और शबाना आजमी सिर के बल दौड़ते वहां पहुंच जाएं। दरअसल, जावेद और शबाना को पर्दे के पीछे का खेल पता चल गया था, इसलिये उन्होंने इस कार्यक्रम से खुद को दूर रखने में ही अपनी भलाई समझी। 

स्टेज पर बड़े अक्षरों में कवि सम्मेलन /मुशायरा लिखा गया था ताकि कहीं से कोई विरोध का स्वर न उभरे….लेकिन अध्यक्ष महोदय यह भूल गये कि वे मुशायरे को जो मजहबी रंग दे रहे हैं, कार्यक्रम में भाग लेने के बाद सारे सदस्य उससे वाकिफ हो जाएंगे। कई सदस्य काफी रोष में दिखे लेकिन इस डर से कि कहीं उन्हें बाउंसरों द्वारा अपमानित कराते हुये प्रतिबंधित न कर दिया जाये, (जैसा कि पहले हो चुका है) चुप रह गये। एक सामान्य पढ़ा लिखा आदमी भी यह समझ सकता है कि अगर समान अनुपात में हिंदी उर्दू के रचनाकार नहीं हैं तो उसे कविसम्मेलन/ मुशायरा का नाम कैसे दिया जा सकता है ?….लेकिन बड़ी बड़ी फिल्में और सीरियल लिखने का दावा करनेवाले कमिटी मेंबरों को भी यह बात समझ में नहीं आयी। पता चला कि अध्यक्ष महोदय का दबदबा वहां इस कदर कायम रहा कि बाकी लोग रबर स्टैंप बने रहे।

पिछले दिनों अत्यंत विवादित और निंदनीय रहे एआईबी शो के पक्ष में संघ द्वारा बाकायदा समर्थन-पत्र जारी किया गया है। जिस शो में मां-बहन की गालियां दी जा रही थीं और सीधे-सीधे (गोपन अंगों का) नाम लेकर करन जौहर कुछ-कुछ होता है गाने की पैरोडी गाने के साथ-साथ खुद के गे होने की घोषणा कर रहा था, उसे यह संघ अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत समर्थन दे रहा है- इससे साहित्य और समाज में फिल्म लेखकों की क्या छवि बनेगी, इसकी कोई परवाह नहीं। उस शो पर मामला अभी अदालत में है। भाग लेनेवालों को दंडित भी किया जा सकता है, ऐसे में संघ क्या करेगा, शर्मिंदगी जाहिर करेगा या भर्त्सना? आखिर देश के कानून से ऊपर तो हो नहीं सकता। 

फिल्म लेखक संघ को भी भारत सरकार ही मान्यता प्रदान करती है और कुछ खास नियम कानूनों के तहत ही इसे चलाया जाता है। यहां भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर कुछ भी नहीं किया जा सकता। व्यक्तिगत स्वतंत्रता और सार्वजनिक स्वतंत्रता में बहुत बड़ा फर्क होता है। फिल्म लेखक संघ बरसोबरस लेखकों के जमा पैसे की बुनियाद पर खड़ा किया गया संगठन है। इस तरह सतही तौर पर उन पैसों का दुरुपयोग कैसे किया जा सकता है। मुशायरे में बुलाये गये शायरों के चयन का आधार क्या था, क्या अध्यक्ष स्पष्ट करेंगे? फिल्म इंडस्ट्री में काम कर रहे कवि -लेखकों से संघ का कोई सरोकार नहीं है। जो मंच उनके खून-पसीने पर खड़ा है, क्या उनके प्रति संघ की कोई जवाबदेही नहीं ?



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