Dayanand Pandey : आज की तारीख़ में लगभग सभी मीडिया संस्थानों में ज़्यादातर पत्रकार या तो अनुबंध पर हैं या बाऊचर पेमेंट पर। कोई दस लाख, बीस लाख महीना पा रहा है तो कोई तीन हज़ार, पांच हज़ार, बीस हज़ार, पचास हज़ार भी। जैसा जो बार्गेन कर ले। बिना किसी पारिश्रमिक के भी काम करने वालों की लंबी कतार है। लेकिन बाकायदा नियुक्ति पत्र अब लगभग नदारद है, जिस पर मजीठिया सिफ़ारिश की वैधानिक दावेदारी बने। फिर भी कुछ भाई लोग सोशल साईट से लगायत सुप्रीम कोर्ट में मजीठिया की लड़ाई लड़ रहे हैं। जाने किसके लिए।
देश में श्रम क़ानून का कहीं अता पता नहीं है। मीडिया हाऊसों में भी नहीं। वैसे भी श्रम विभाग अब नियोक्ताओं के पेरोल पर होते हैं। ट्रेड युनियन पहले दलाल बनीं फिर समाप्त हो गईं। अब उनका कोई नामलेवा नहीं है। इंकलाब जिंदाबाद अब सपना है। मीडिया मालिकों ने मुख्यमंत्री से लगायत अदालत तक को ख़रीद रखा है। सुप्रीम कोर्ट तक इस से बरी नहीं है। मंहगे वकील और तारीख़ देने की नौटंकी अलग है। दुनिया भर को ज्ञान बांटने वाले पत्रकार ख़ुद को ज्ञान देना भूल गए हैं। सच देखना भूल गए हैं। वैसे भी अब तकरीबन नब्बे प्रतिशत पत्रकार दलाली में अभ्यस्त हैं। अजीठिया मजीठिया की उन को कोई परवाह नहीं। मजीठिया पर लड़ाई फिर भी जारी है। हंसी आती है यह लड़ाई देख कर और नीरज के दो शेर याद आते हैं…
हम को उस वैद्य की विद्या पर तरस आता है
जो भूखे नंगों को सेहत की दवा देता है
चील कौवों की अदालत में है मुजरिम कोयल
देखिए वक्त भला क्या फ़ैसला देता है
लखनऊ के वरिष्ठ पत्रकार दयानंद पांडेय के फेसबुक वॉल से.
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