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रिपोर्टरों की इनवेस्गेटिव स्टोरीज पर मीडिया मालिक कर लेते हैं डील… सुनिए एनडीटीवी की कथा

Abhishek Srivastava : एक और कहानी। एनडीटीवी में किसी ने पहाड़ पर लग रही एक परियोजना पर स्‍टोरी बड़ी मेहनत से की। स्‍टोरी लेकर वो आया। इनजेस्‍ट करवाया। जिस दिन उसे प्रसारित होना था, उस दिन उसके पास वरिष्‍ठ का फोन आया। कहा गया- तुम बोलो तो चला दें। अब ये भी कोई बात हुई भला? ख़बर की ही थी चलाने के लिए। न चलाने का विकल्‍प कहां है। रिपोर्टर ने भी स्‍वाभाविक जवाब दिया। ख़बर नहीं चली क्‍योंकि परियोजना और चैनल के बीच एक नाम कॉमन था- जिंदल। अब रिपोर्टर क्‍या करे? नौकरी छोड़ दे? आप उसका घर चलाएंगे? क्‍या वो किसी हथियार कारोबारी सांसद को खोजे अपनी स्‍टोरी पर पैसा लगाने के लिए? अगर उसकी नीयत और उसका विवेक सही है तो वह ऐसा कुछ नहीं करेगा, बल्कि बिना बिदके अगली बढि़या स्‍टोरी करेगा। क्‍यों? क्‍योंकि एक स्‍तर पर अपनी की हुई ख़बर से वह मुक्‍त हो चुका है और अपनी सीमाएं जानता है।

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Abhishek Srivastava : एक और कहानी। एनडीटीवी में किसी ने पहाड़ पर लग रही एक परियोजना पर स्‍टोरी बड़ी मेहनत से की। स्‍टोरी लेकर वो आया। इनजेस्‍ट करवाया। जिस दिन उसे प्रसारित होना था, उस दिन उसके पास वरिष्‍ठ का फोन आया। कहा गया- तुम बोलो तो चला दें। अब ये भी कोई बात हुई भला? ख़बर की ही थी चलाने के लिए। न चलाने का विकल्‍प कहां है। रिपोर्टर ने भी स्‍वाभाविक जवाब दिया। ख़बर नहीं चली क्‍योंकि परियोजना और चैनल के बीच एक नाम कॉमन था- जिंदल। अब रिपोर्टर क्‍या करे? नौकरी छोड़ दे? आप उसका घर चलाएंगे? क्‍या वो किसी हथियार कारोबारी सांसद को खोजे अपनी स्‍टोरी पर पैसा लगाने के लिए? अगर उसकी नीयत और उसका विवेक सही है तो वह ऐसा कुछ नहीं करेगा, बल्कि बिना बिदके अगली बढि़या स्‍टोरी करेगा। क्‍यों? क्‍योंकि एक स्‍तर पर अपनी की हुई ख़बर से वह मुक्‍त हो चुका है और अपनी सीमाएं जानता है।

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कहने का लब्‍बोलुआब ये है कि ख़बर करना एक बात है और ख़बर से मुक्‍त हो जाना दूसरी बात। हर रिपोर्टर जब तक ख़बर लिख नहीं लेता, उसके मन पर एक बोझ-सा बना रहता है। ख़बर फाइल कर देने के बाद वह बोझमुक्‍त हो जाता है। फिर वो छपे या न छपे, चले या न चले- अपनी बला से! पत्रकारिता में अगर कोई रचना-प्रक्रिया होती होगी, तो सहज यही है। जो पत्रकार ख़बर से मुक्‍त नहीं हो पाता यानी हर कीमत पर अपनी ख़बर को प्रसारित करवाने के लिए भिड़ा रहता है और जोड़तोड़ से ऐसा कर भी ले जाता है, मुझे उसकी मंशा पर शक़ होता है। ख़बर के आगे-पीछे लगा लाभ-लोभ का लासा ऐसे रिपोर्टर के भीतर बैठे ‘पत्रकार’ को अंतत: ले डूबता है। ऐसा सब नहीं कर पाते, लेकिन जो कर पाते हैं वे ही एक दिन संपादक, मालिक, सीईओ बनते हैं और फिर ताजि़ंदगी खबरों को दबाने का धंधा करते हैं।

एनडीटीवी जैसे हज़ारों केस होंगे। हैं भी। ऐसे तमाम रिपोर्टर अपनी खबर दबाए जाने पर दुखी होते हैं और रात में किसी तरह ग़म भुलाकर अगले दिन फिर नई स्‍टोरी पर लग जाते हैं। इनमें कुछ ऐसे भी होते हैं जो एकाध घटनाओं के बाद मान बैठते हैं कि एक उदार पूंजीपति ही पत्रकारिता की रक्षा कर सकता है। फिर उनका चौबीस घंटा इसी फॉर्मूले को पुष्‍ट करने में बीतता है और हर नए संभ्रांत की हैसियत नापने में उसकी आंख मोतियाबिंद का शिकार हो जाती है। निष्‍कर्ष यह निकलता है कि फि़लहाल पत्रकारिता में भरोसा रखने वाले केवल दो ही किस्‍म के प्राणी शेष हैं- एक जो चुपचाप स्‍टोरी किए जा रहे हैं और दूसरे, जो किसी दैवीय फंडर की आस में कलम खड़ी कर चुके हैं। बाकी यानी बहुतायत केवल ईएमआइ चुकाने के लिए दस घंटे की स्‍टेनोग्राफी कर रहे हैं क्‍योंकि वे पत्रकारिता को ‘क्रांति’ करना मानते हैं और यह उनके वश में नहीं।

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कई अखबारों में वरिष्ठ पद पर रहे और इन दिनों सोशल मीडिया समेत कई मंचों पर सक्रिय पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.

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