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सियासत

सिर्फ रस्म-अदायगी भर बनकर रह गया है मई दिवस

आज 1 मई अर्थात् ‘मई दिवस’ है। आज दुनिया भर के मजदूरों की काम से छुट्टी रहेगी और वे परस्पर ‘दुनिया भर के मजदूरो एक हो जाओ’ का सामूहिक मंत्रजाप कर अपनी एकजुटता का आह्वान करेंगे। भले ही इसे मजदूर आंदोलनों के सामाजिक और आर्थिक उपलब्धियों का एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव के तौर पर प्रचारित किया जाता है और यह संसार भर में मई दिवस ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस’ या ‘श्रम दिवस’ के रूप में श्रमिक संगठनों, राजनीतिक दलों तथा समाजवादी समूहों द्वारा प्रदर्शनों, सभा-सम्मेलनों आदि विभिन्न तरीकों से श्रमिकों के हित-साधन के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है, लेकिन यह भी एक कटुसत्य है कि यह दिन एक सालाना कर्मकाण्ड की रस्म-अदायगी मात्र से अधिक कुछ भी नहीं रह गया है।

<p>आज 1 मई अर्थात् ‘मई दिवस’ है। आज दुनिया भर के मजदूरों की काम से छुट्टी रहेगी और वे परस्पर ‘दुनिया भर के मजदूरो एक हो जाओ’ का सामूहिक मंत्रजाप कर अपनी एकजुटता का आह्वान करेंगे। भले ही इसे मजदूर आंदोलनों के सामाजिक और आर्थिक उपलब्धियों का एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव के तौर पर प्रचारित किया जाता है और यह संसार भर में मई दिवस ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस’ या ‘श्रम दिवस’ के रूप में श्रमिक संगठनों, राजनीतिक दलों तथा समाजवादी समूहों द्वारा प्रदर्शनों, सभा-सम्मेलनों आदि विभिन्न तरीकों से श्रमिकों के हित-साधन के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है, लेकिन यह भी एक कटुसत्य है कि यह दिन एक सालाना कर्मकाण्ड की रस्म-अदायगी मात्र से अधिक कुछ भी नहीं रह गया है।</p>

आज 1 मई अर्थात् ‘मई दिवस’ है। आज दुनिया भर के मजदूरों की काम से छुट्टी रहेगी और वे परस्पर ‘दुनिया भर के मजदूरो एक हो जाओ’ का सामूहिक मंत्रजाप कर अपनी एकजुटता का आह्वान करेंगे। भले ही इसे मजदूर आंदोलनों के सामाजिक और आर्थिक उपलब्धियों का एक अंतर्राष्ट्रीय उत्सव के तौर पर प्रचारित किया जाता है और यह संसार भर में मई दिवस ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस’ या ‘श्रम दिवस’ के रूप में श्रमिक संगठनों, राजनीतिक दलों तथा समाजवादी समूहों द्वारा प्रदर्शनों, सभा-सम्मेलनों आदि विभिन्न तरीकों से श्रमिकों के हित-साधन के उत्सव के तौर पर मनाया जाता है, लेकिन यह भी एक कटुसत्य है कि यह दिन एक सालाना कर्मकाण्ड की रस्म-अदायगी मात्र से अधिक कुछ भी नहीं रह गया है।

दरअसल, मई दिवस किसी जमाने के उत्तरी यूरोपीय विभिन्न मूर्तिपूजक त्यौहारों से परंपरागत रूप में जुड़ा हुआ है और इसी सिलसिले में ‘श्रमिकों के अवकाश’ का विचार 1856 में ऑस्ट्रेलिया में शुरू हुआ। इसके बाद काम की अवधि आठ घंटे किये जाने और सप्ताह में एक दिन की छुट्टी की मांग को लेकर 1 से 4 मई 1886 के बीच शिकागो (संराअ) में मजदूरों ने भारी प्रदर्शन किया। इस शांतिपूर्ण आयोजन के बाद वहाँ एकत्र भारी पुलिस बल के ऊपर एक अज्ञात सिरफिरे ने बम फैंक दिया जिससे सात पुलिसकर्मी मारे गये और अनेक घायल हुए। प्रतिक्रिया में पुलिस द्वारा की गई फायरिंग में कुछ मजदूरों की भी मृत्यु हो गई। तभी से 1 मई को श्रमिकों के दिन के रूप में मनाये जाने की शुरुआत हुई।

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इसके तीन वर्ष बाद 1889 में पेरिस में अंतर्राष्ट्रीय महासभा की द्वितीय बैठक में फ्रांस की क्रांति को याद करते हुए इस दिन को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मनाने का एक प्रस्ताव पारित किया गया। कालान्तर में मई दिवस को ‘अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस’ या ‘श्रम दिवस’ की मान्यता दी गई और तभी से दुनिया के 80 देशों में मई दिवस राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाने लगा। भारत में 1 मई का दिन 1923 से राष्ट्रीय अवकाश के रूप में मनाया जाता है।

यदि ऐतिहासिक दृष्टि से देखें तो ज्ञात होता है कि प्रथम और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान सारे श्रमिक संगठन और इनके नेता अपने देश के झंडों के साथ एकतावद्ध हो गए थे। द्वितीय विश्व युद्ध के दौर में संकट में फंसे सोवियत संघ में यह नारा दिया गया कि मजदूर और समाजवाद अपनी-अपनी पैतृक भूमि को बचाएं। इसके बाद पश्चिमी देशों में समाजवादी लोकतंत्रीय शासन-व्यवस्था की मजबूती के साथ-साथ मई दिवस को भी नये आयाम मिले। इसके बावजूद ‘दुनिया के मजदूरो एक हो जाओ’ का नारा भी दुनिया के श्रमिकों को दो खेमों में बंटने से रोक नहीं पाया। अमीर और गरीब देशों के मजदूरों के बीच बड़ा फर्क था। सारे विश्व में कुशल और अकुशल श्रमिक एक साथ ट्रेड यूनियन में भागीदार नहीं थे।

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सोवियत संघ के टूटने के साथ ही दुनिया बहुत बदल चुकी है। यह अब एकध्रुवीय रह गई है। दुनिया भर में पसरी धन-संग्रह की अनंत भूख ने मनुष्य को धनपशु बना दिया है। पूँजीवाद की चकाचौंध और धनपशुओं की आपसी प्रतिस्पर्द्धा में कभी उसका विकल्प माना जाने वाला समाजवाद कहीं खो गया है। संसार भर में औद्योगिक उत्पादन तंत्र और तकनीक का विस्तार होने के साथ ही उद्योग जगत की निर्भरता मानव श्रम की अपेक्षा यांत्रिक उपकरणों पर लगातार बढ़ती गई। जो काम पहले 100 मजदूर मिलकर करते थे, उसे अब एक रोबोट कर लेता है। इसका परिणाम यह हुआ कि करोड़ों-अरबों रुपए के निवेश वाली किसी फैक्टरी में यदि एक नौकरी निकलती है तो यह किसी मजदूर को नहीं बल्कि तकनीकी रूप से उच्च शिक्षित अर्थात् किसी धनवान परिवार के व्यक्ति को मिलती है।

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यांत्रिक व तकनीकी उन्नति के कारण श्रमिकों पर निर्भरता कम होने से कम पढ़े-लिखे गरीब व अकुशल लोगों का जीवन बहुत कठिनाई में पड़ गया है। देश व दुनिया में जिस अनुपात में पूँजीवाद तथा औद्योगीकरण बढ़ रहा है, उससे पहले की अपेक्षा आज कई गुना अधिक लोग बेरोजगार हैं, जिनके पास रोजगार है भी उनके सिर पर इसके कभी भी छिन जाने की नंगी तलवार चौबीसों घंटे लटकी रहती है। बढ़ते हुए पूँजीवाद का एक अभिशाप यह भी है कि श्रमिकों के एक साथ एक जगह काम करने व रहने से जो लयवद्ध कोरस की संगीत-लहरी पैदा होती थी, वह आज महज एक सपना बन कर रह गई है।

बढ़ते हुए औद्योगीकरण ने अपने उत्पादों को खपाने के लिए उपभोक्तावाद को बढ़ावा दिया जिससे बहुत तेजी से दुनिया भर में समाजवाद का गला घोंट कर उसके स्थान पर पूँजीवाद ने कब्जा जमा लिया और लोकतंत्र के सपने को लूटतंत्र में तब्दील कर दिया गया। इसी से दुनिया भर में आज समाजवाद की आवाज कम ही सुनाई देती है। ऐसे हालात में मई दिवस की दशा और दिशा क्या होगी, यह सवाल प्रासंगिक हो गया है।

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इस सबके बावजूद आये दिन संसार भर में हजारों नौजवान सड़क पर उतर कर अंतर्राष्ट्रीय मुद्राकोष (आइएमएफ) और विश्व बैंक की आदमखोर नीतियों का विरोध करते हैं लेकिन मनुष्य में धन-संग्रह की निरंतर बढ़ती जा रही प्रवृत्ति इसे कहाँ ले जाकर पटक देगी, इस बुनियादी सवाल का जवाब किसी के भी पास नहीं है। इतना सब कुछ होते हुए भी दुनिया भर में किसी तरह हाड़तोड़ मेहनत से अपनी शुद्ध रोटी का जुगाड़ करने में संलग्न श्रमिक भाई-बहनों को मई दिवस की रस्म पर हजारों-हजार हार्दिक शुभकामनाएं।

श्याम सिंह रावत
[email protected]

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