देश की आज़ादी से लेकर वर्तमान विकास तक जिस पत्रकारिता ने अपना अमूल्य योगदान दिया उसके साथ ही देश के संविधान ने सौतेला व्यवहार किया। यह संस्था वह कभी नहीं पा सकी स्थान नहीं पा सकी जिसकी यह हकदार थी।इस संस्था को पता ही नहीं चला कि कब इसके लोगों ने पत्रकारिता की पीठ में खंज़र भोंक दिया।आज भी चौथा स्तम्भ का अस्तित्व प्रसादपर्यंत है। आज चारों ओर पत्रकारिता के पेशे को बहुत ही घटिया नज़र से देखा जाने लगा है। जब कि आज भी यदि देश में कुछ अच्छा हो रहा है तो उसका पूरा श्रेय मीडिया को ही जाता है। लेकिन जो कुछ भी बुरा हो रहा है उसके लिए भी मीडिया ही जिम्मेदार है।
आज मीडिया एक मंडी बन चुकी है जहाँ रंडियों का राज है, खूब मोलभाव जारी है। कोई भी जाकर खरीदारी कर सकता है। हर वर्ग के लिए एक दूकान सजी है जिसके पास जितनी तथा है वह उतनी ही कथा सुन पा रहा है। कोई इससे अछूता नहीं। मीडिया की हालत और बद से बद्दतर होने वाली है क्योंकि मीडिया पर कब्ज़ा बड़े-बड़े व्यवसायी घरानों का है जिसे भेद पाना संभव नहीं। जाहिर है ऐसे में जो लोग मीडिया में आने की गलती कर चुके हैं वह किसी न किसी तरह अपने आप को जिन्दा रखना ही चाहेंगे। अब उनका जिन्दा रहना भी लोगों को अखरने लगा है। इसमें कोई संदेह नहीं कि मीडिया में गिरावट हो चुकी है। लेकिन एक बड़ा सवाल यह भी है कि ऐसा कौन सा क्षेत्र है जहाँ गिरावट न दर्ज की जा रही हो। मीडिया उससे अछूता कैसे रह सकता है।
मीडिया भी एक उद्योग बन चुका है। बहुत शातिराना अंदाज़ से मीडिया को बदनाम करने की साजिश सरकारें कर रही हैं। मीडिया को बाज़ार में बिकता कंडोम बना दिया है। यह जो है नहीं वह हमेशा से बताया गया। लिखत-पढ़त में संविधान के केवल तीन ही अंग है विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका चौथे को मीडिया बताया गया। जिस आधार पर मीडिया को चौथा स्तम्भ कहा गया उस आधार पर देश का हर नागरिक पत्रकार है खासकर वर्तमान में जब सोशल मीडिया का तेजी से विस्तार हो रहा है। एक तरफ पूंजीपतियों का मीडिया पर कब्ज़ा है जिसे वही करना है जो सरकार चाहती है क्योंकि उनकी गर्दन सरकारों के हाथ में है। दूसरी ओर वह मीडिया वाले हैं जो अपने अखबार, न्यूज़ चैनल और अपने परिवार के जीवन यापन के लिए संघर्षरत हैं। इस दूसरे वर्ग के लिए न तो कोई मानदेय है और न ही कोई पूछनेवाला। अब इस दूसरे वर्ग की काबिलियत कहें या थेथरपन कि इनको गरियाते हुए ही सही कुछ समझ लिया जाता है।
आज सभी प्रोफेशन में या तो सैलरी है या फिर फीस. इस प्रोफेशन में न तो सैलरी है और न ही फीस। जैसे डाक्टर,वकील,इंजिनियर, आर्किटेक्ट, ज्योतिष, अध्यापक, मकैनिक इन सबको या तो सरकार नौकरी देकर सैलरी देती है या फिर ये स्वयं मेहनत कर फीस लेकर काम करते हैं जिसे समाज और सरकार में मान्यता मिली है। अब बताईये पत्रकार क्या करे। कुछ पूंजीपतियों के यहाँ चाकरी करने वालों को छोड़ दें तो बाकी 80 फीसदी पत्रकार क्या करे और कहाँ जाए। सरकार के मानक पर खरे नहीं कि वह इन्हें विज्ञापन दे, जनता को इन्हें विज्ञापन देने से कोई लाभ नहीं।
सरकार ने बड़ी चालाकी से पत्रकारिता को छोड़ सभी प्रोफेशन में आने के लिए एक मानक तय की है लेकिन सम्पादक व पत्रकार बनाने के लिए उसके पास कोई मानक नहीं। भारत सरकार यह कभी नहीं पूछती कि अखबार या न्यूज़ चैनल चलाने वालों का शैक्षिक रिकार्ड क्या है। आखिर क्यों ? सरकार उसके अखबार,पत्रिका अथवा न्यूज़ चैनल के लिए मानक तय करती है। क्योंकि वह जानती है कि ये सब पूंजीपतियों का खेल है न कि बुद्धिजीवियों का। सरकारें यह भी जानती हैं कि कुछ दिनों में ही इनमे से 98 प्रतिशत बुद्धिजीवियों की जीविका बुद्धि पर आधारित न होकर सड़क से सदन तक दलाली और चाटुकारिता होकर सरकारी प्रतिनिधियों या नौकरों के तलवे चाटने को मजबूर होंगे। बाकी दो फीसदी बुद्धिजीवी केवल उधार की जिंदगी जीते हुए कभी सरकार को और कभी अपने आप को कोसते हुए पाए जायेंगे। इस तरह बिना सरकार के मर्ज़ी के कोई नहीं चल पायेगा वह चाहे करोड़पति हो या विपन्न पति। क्योंकि करोड़पति सरकारों से दोस्ती रखने को मजबूर है और विपन्नपति सरकार और सरकारी लोगों के रहमो – करम पाने को मजबूर है।
सबसे मजे की बात है कि अपने आपको चौथे स्तम्भ नामक अदृश्य पिलर के रक्षक होने का दावा विपन्न बुद्धिजीवी ही सबसे ज्यादा करते हैं। इनमे एक खास बात और है कि इनमे कुछ तो बुद्धिजीवी हैं और कुछ बनने का ढोंग करते हैं लेकिन कालांतर में यह फर्क करना भी मुश्किल हो जाता है। क्योंकि एक बेशर्मी से खा पीकर मोटा हो चुका है जिसे यह पता हो चला है कि ज्यादातर लोग ऐसे ही हैं और वह खूब बोलता है, और दूसरे का पेट पीठ में धंसा चला जाता है जिससे बोलने की तो शक्ति छोड़िए जनाब सोचने की भी शक्ति क्षीण हो जाती है, और इसमें वह आगे निकल जाता है जो सिर्फ ढोंग करता था। अब आप सब स्वयं मंथन करो कि ऐसी दशा में आप पत्रकारिता से क्यों और कैसी उम्मीद करोगे? इसमें पत्रकारों का क्या दोष है? उन्हें तो गुमराह कर उनके कंधे का मात्र इस्तेमाल किया जा रहा है। और आपको नहीं लगता कि उपरोक्त दशा में उनका इस्तेमाल होना लाज़मी है।
लेखक शिव कृपाल मिश्र लखनऊ के पत्रकार हैं.