Connect with us

Hi, what are you looking for?

सियासत

वह सुबह कभी तो आयेगी…..

ठीक साल भर पहले सुबह से दिल की धडकन देश की बढ़ी थी । हर की नजरें न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर लोकसभा चुनाव परिणाम का इंतजार कर रही थी। ऐसे में न्यूज चैनल के भीतर की धड़कने कितनी तेज धड़क रही होंगी और जिसे न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आकर चुनाव परिणाम की कमेंट्री से लेकर तमाम विश्लेषण करना होगा उसकी धडकनें कितनी तेज हो सकती हैं। यह सिर्फ महसूस किया जा सकता है। रिजल्ट सुबह आठ बजे से आने थे लेकिन हर चैनल का सच यही था कि उस रात रतजगा थी। और रिजल्ट से पहले वाली रात को देश सोया जरुर लेकिन एक नयी सुबह के इंतजार में। सुबह 5 बजे से गजब का शोर हर चैनल के दफ्तर में । एडिटर से लेकर चपरासी तक सक्रिय। सुबह साढे चार बजे घर से नोएडा फिल्म सिटी जाते हुये पहली बार यह एहसास अपने आप जागा कि आज सुबह वक्त से पहले क्यो नहीं। सुबह की इंतजार इतना लंबा। वही एहसास यह भी जागा कि जिस सुबह की आस में बीते कई बरस से देश छटपटा रहा है, वह सुबह आ ही गई ।

<p>ठीक साल भर पहले सुबह से दिल की धडकन देश की बढ़ी थी । हर की नजरें न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर लोकसभा चुनाव परिणाम का इंतजार कर रही थी। ऐसे में न्यूज चैनल के भीतर की धड़कने कितनी तेज धड़क रही होंगी और जिसे न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आकर चुनाव परिणाम की कमेंट्री से लेकर तमाम विश्लेषण करना होगा उसकी धडकनें कितनी तेज हो सकती हैं। यह सिर्फ महसूस किया जा सकता है। रिजल्ट सुबह आठ बजे से आने थे लेकिन हर चैनल का सच यही था कि उस रात रतजगा थी। और रिजल्ट से पहले वाली रात को देश सोया जरुर लेकिन एक नयी सुबह के इंतजार में। सुबह 5 बजे से गजब का शोर हर चैनल के दफ्तर में । एडिटर से लेकर चपरासी तक सक्रिय। सुबह साढे चार बजे घर से नोएडा फिल्म सिटी जाते हुये पहली बार यह एहसास अपने आप जागा कि आज सुबह वक्त से पहले क्यो नहीं। सुबह की इंतजार इतना लंबा। वही एहसास यह भी जागा कि जिस सुबह की आस में बीते कई बरस से देश छटपटा रहा है, वह सुबह आ ही गई ।</p>

ठीक साल भर पहले सुबह से दिल की धडकन देश की बढ़ी थी । हर की नजरें न्यूज चैनलों के स्क्रीन पर लोकसभा चुनाव परिणाम का इंतजार कर रही थी। ऐसे में न्यूज चैनल के भीतर की धड़कने कितनी तेज धड़क रही होंगी और जिसे न्यूज चैनल के स्क्रीन पर आकर चुनाव परिणाम की कमेंट्री से लेकर तमाम विश्लेषण करना होगा उसकी धडकनें कितनी तेज हो सकती हैं। यह सिर्फ महसूस किया जा सकता है। रिजल्ट सुबह आठ बजे से आने थे लेकिन हर चैनल का सच यही था कि उस रात रतजगा थी। और रिजल्ट से पहले वाली रात को देश सोया जरुर लेकिन एक नयी सुबह के इंतजार में। सुबह 5 बजे से गजब का शोर हर चैनल के दफ्तर में । एडिटर से लेकर चपरासी तक सक्रिय। सुबह साढे चार बजे घर से नोएडा फिल्म सिटी जाते हुये पहली बार यह एहसास अपने आप जागा कि आज सुबह वक्त से पहले क्यो नहीं। सुबह की इंतजार इतना लंबा। वही एहसास यह भी जागा कि जिस सुबह की आस में बीते कई बरस से देश छटपटा रहा है, वह सुबह आ ही गई ।

एंकरिग करने बैठा तो जहन में बचपन के वह दिन याद आने लगे जब रात साढे ग्यारह बजे पिताजी ने झटके में जगाया और कहा कि इंदिरा गांधी चुनाव हार गई है। याद करने लगा कि क्या खुशी थी उस रात पिताजी के चेहरे पर । फिर बोले सो जाओ लेकिन मैंने जगाया इसलिये क्योंकि इतिहास के गवाह बन सको। अब देश बदलेगा। मार्च 1977 । रात बारह बजे भी चुनाव परिणाम को लेकर इतना जोश इतना उत्साह क्यो था यह तो धीरे धीरे समझा लेकिन 16 मई 2014 को मेरी घड़कन चुनाव परिणाम आने से पहले क्यों बढ़ी हुई है । क्या वाकई बदलाव सुबह का एहसास करा देता है। सुखनवर भरा यह एहसास ही रात भर मेरी भी आंखों से नींद गायब कर चुका था। और घर से दफ्तर तक पहुंचते पहुंचते मेरा दिल मान चुका था कि रात कोई भी सोया नहीं होगा। हर किसी को सुबह का इंतजार ही होगा। और सुबह भी हुई तो ऐसे सुनामी के साथ की रात की जड़ें हिल गई । दरख्त टूट गये। पत्तिया झड़ गईं। इतिहास के सबसे अंधेरे अध्याय को समेटे कांग्रेस का वृक्ष ओ हेनरी की कहानी “द लास्ट लीफ” की तर्ज पर सोनिया-राहुल गांधी की जीत में उम्मीद जैसा ही नजर आया है । वहीं सुबह के नायक नरेन्द्र मोदी लारजर दैन लाइफ हो चुके थे। और शायद इसी एहसास को महसूस करने ही दोपहर दो बजे तक लगातार एंकरिंग के बाद बिना कुछ खाये मैं भी अपने सहयोगी गोपाल को लेकर बीजेपी हेडक्वार्टर पहुंचने के लिये लालयित हुआ । दफ्तर से चला तो 2004 का बीजेपी दफ्तर याद आ गया । जहां शाइनिंग इंडिया की हवा में प्रमोद महाजन की तूती बोलती और जिस दिन लोकसभा चुनाव के परिणाम आये उसी बीजेपी हेडक्वार्टर में कौवा भी कांव कांव करने नहीं पहुंचा। उस दोपहर महसूस किया कि बीजेपी सत्ता वाली पार्टी बन चुकी है और एसी के सुकून तले सड़क पर संघर्ष अब बीजेपी में दूर की गोटी हो चुकी है । 

Advertisement. Scroll to continue reading.

शायद यह एहसास राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वयंसेवक में भी रहा इसीलिये वहां से चार किलोमीटर दूर झंडेवालान के संघ हेडक्वार्टर में चाय की चुस्की स्वयंसेवकों को खासी मीठी लग रही थी। उस वक्त राम माधव बोल गये कि हिन्दू संगठन नाराज थे । लेकिन सच यह भी निकला कि संघ को जिताने से ज्यादा हराकर अपनी लीक पर चलने के लिये बीजेपी को असहाय बनाने का सुकून हर कोई महसूस कर रहा है। फिर याद 24 अकबर रोड भी आया। झटके में महसूस किया जो कांग्रेसी तरसते थे कोई बात करें वहीं कांग्रेसी सत्ता की आहट सुन मचलने लगे। 2009 का नजारा तो भूलाये नहीं भूलता कैसे जनार्दन द्विवेदी मशगूल थे कैमरे को देखकर और हिकारत से देख रहे थे पत्रकारों को। जयराम में कुछ सरोकार बचे थे तो जीत के बाद भी पत्रकारों के अभिवादन पर मुस्कुरा रहे थे । और 2009 में सूने पडे बीजेपी हेडक्वार्टर में प्रवक्ता जरुर पहुंचे । कुछ कहा। कुछ माना । दरअसल हमेशा लगा कि ग्राउंड जीरो से पार्टी की जीत हार को समझना है तो चैनल का स्टूडियो छोड पार्टी हेडक्वार्टर पहुंच कर ही तापमान देखा जाये । लेकिन 16 मई 2014 को बीजेपी हेडक्वार्टर पहुंच कर तापमान देखने से ज्यादा तापमान सहना पड़ेगा । यह एहसास आज भी सिहरन ही पैदा करता है। क्योंकि दोनो तरफ से बंद अशोक रोड में 10 नंबर तक पहुंचने से पहले पुलिस का जमावडा और नारो की गूंज तो सामान्य थी । लेकिन बीजेपी हेडक्वार्टर में पहुंचते ही हर नारा हर हर मोदी की गूंज में सुनाई देने लगा । 

एक तरह की सुरसुरी तो पूरे शरीर में थी क्योंकि दिल्ली में बैठे बीजेपी के नेताओं में मनमोहन सरकार के दौर में जितनी जंग लग चुकी थी उसका एहसास हर बार मनमोहन की आवारा पूंजी की अर्थव्यवस्था पर चोट करने के बाद बीजेपी नेताओ से मुलाकात में लगता रहा । मनमोहन की आर्थिक नीतियों से लेकर सरकार चलाने के तौर तरीकों के खिलाफ इतना कुछ अखबारो में लिखा। एसआईजेड से लेकर खुदकुशी करते किसानो के मसले से लेकर राडिया टेप में गुम सरकार का कच्चा-चिट्टा भी सबसे पहले सचिन पाय़लट के सामने यह सोच कर रखा कि संचार मंत्रालय में ए राजा के वक्त जो हो रहा था उसे युवा कांग्रेसी नेता मंत्री समझे । लेकिन उस दौर में सचिन सरीखा संचार राज्यमंत्री भी कैसे मनमोहन सरकार की हवा में खामोश रह कर गुस्सा पीते हुये काम करने को ही सही मानता यह भी महसूस किया और उस दौर में कांग्रेसी कुछ इस भाव में रहे जैसे राडिया टेप या स्पेक्ट्रम का खेल कुछ भी नायाब नहीं है । कोयला घोटाला तो नही लेकिन घोटाले की दिशा को ही नीतिगत तौर पर मनमोहन सरकार कैसे अपना रही है इसपर भी कलम चलायी लेकिन तब भी कांग्रेसियो ने इसे अर्थव्यवस्था को ना समझने या आर्थिक सुधार के लिये इसे जरुरी करार दिया । तब भी दिल्ली में बीजेपी नेता खुश हुये कि मनमोहन सरकार के खिलाफ लिखना तो शुरु हुआ । आर्थिक सुधार के खिलाफ माहौल तो बन रहा है । यानी मनमोहन सरकार जायेगी यह तो तय था । इसीलिये दिल्ली में बैठे बीजेपी नेताओं में आगे बढने की होड थी । पूर्ती मामले में बीजेपी अध्यक्ष नीतिन गडकरी के मुंबई दफ्तर पर छापा उसी दिन पड़ा जाये जिस दिन गडकरी के कार्यकाल को बढाने पर फैसला होना है । यह कांग्रेस नहीं बीजेपी के ही नेताओ का असर रहा । बंद कमरे में मीडिया ब्रीफिंग के जरीये अपने ही साथी नेता को कैसे कमजोर साबित किया जा सकता है यह बिसात भी दिल्ली में बीजेपी नेता ही बिछाते रहे । इसलिये 16 मई 2014 को मोदी मोदी की गूंज भी अच्छी लगी कि चलो अब तो लुटियन्स की दिल्ली पर से रेशमी लिबास हटेगा । सियासी बिसात पर शह मात अपने अपनों के बीच खेला जाना बंद होगा। 10 अशोक रोड के भीतर एक नये तरह का उल्लास नजर आया । घुसते ही पता चला बीजेपी अध्यक्ष राजनाथ प्रेस कांन्फ्रेस कर रहे हैं। तो दफ्तर में घुसने की जगह हेडक्वार्टर के अंदर खुले मैदान में जमा लोगों के बीच चल पड़ा । नारे तेज होने लगे । गुलाल उड रहे थे । झटके में कोई आया और मेरे चेहरे पर भी गुलाल लगा तेजी से निकल पड़ा और उसके बाद चारों तरफ से मोदी मोदी की गूंज के बीच किसी ने धकेला । तो किसे ने फब्ती कसी । टीवी स्क्रीन पर कैसे मोदी को लेकर विश्लेषण कर सकते हैं और चुनाव प्रचार के वक्त जैसे ही पेड मीडिया शब्द होने वाले पीएम के मुख से निकला तो मीडियाकर्मी मोदी मोदी के नारे लगाते भक्तों के बीच खलनायक हो चुके थे । शायद इसीलिये समझ न आया कि जो चुनाव प्रचार के वक्त मीडिया या पत्रकारों को लेकर नरेन्द्र मोदी की टिप्णिया थीं उसी को फब्ती में बदलकर खुले तौर पर बीजेपी हेडक्वार्टर में एक नये तरह की भीड की गूंज थी। चेहरे भी नये थे । चारो तरफ  सिर्फ लोग थे तो समझ ना आया कि कौन सी दिशा पकड़ी जाये । बस एक तरफ चल पड़ी । और इस बीच किसी ने झटके में मेरा हाथ पकडकर मुझे अपने पास खींच लिया । ध्यान दिया तो वह राजनाथ सिंह थे । जिन्होंने अपने एसपीजी के दायरे में मुझे खिंचने की कोशिश की । लेकिन भीड़ का रेला ऐसा कि लगा फिर वही भींड में समा जाऊगा । तबतक राजनाथ सिंह के पीछे रविशंकर प्रसाद ने मेरा हाथ पकडा और एसपीजी से कहा इन्हें अंदर ले लें । अंदर घुसा तो हेडक्वार्टर में अक्सर दिखायी देने वाले बीजेपी के पहचाने चेहरे दिखायी दिये जो अक्सर बीजेपी हेडक्वार्टर के भीतर किताब की दुकान पर जाने के दौरान बीते कई बरसो से मिलते रहे । हंगामे-शोर-नारो के बीच किसी तरह हेडक्वार्टर के भीतर पहुंचा। राजनाथ सिंह के दरवाजे पर तैनात रहने वाले कार्यकर्ता ने पानी की बोतल ला कर दी । फिर किसी ने कहा आप बगल के कमरे में बैठें । वहां गया तो बीजेपी के ही एक कार्यकर्ता ने कुछ ऐसा टोका कि मैं भी उसे बस देखता ही रह गया । आप खुले मैदान में क्यों चले गये । आपको लगा नहीं कि काफी भीड है। आपने महसूस नहीं किया कि बीजेपी का दफ्तर बदल गया है । बदल गया है । यह शब्द कुछ ऐसे थे जिसे बीजेपी हेडक्वार्टर में बैठे बैठे मैं सोचता रहा । क्या वाकई बीजेपी हेडक्वार्टर बदल गया । तब तो बीजेपी भी बदलेगी । कामकाज के तरीके भी बदलेंगे । झटके में मैंने भी जबाब दिया तब तो अच्छा है। नहीं तो बीजेपी का कांग्रेसीकरण हो चला था । बदलने का मतलब कांग्रेसीकरण से मत जोड़ें । आपने देखा नहीं एकदम नये चेहरो की भरमार। अब राजनाथ सिंह के बदले अमित शाह होंगे । अभी तो चुनाव के परिणाम ही आये हैं और अध्यक्ष बदलने की सुगबुगाहट ही नहीं बल्कि कौन होंगे, यह भी तय हो चला है । बदलाव की रफ्तार इतनी तेज होगी । उस दिन भी अच्छा ही लगा कि बीजेपी बदलेगी । बदलाव होगा । तमाम विश्लेषण के साथ मैंने भी 17 मई 2014 को ही दिल्ली के राष्ट्रीय अखबार में एलान कर दिया कि अब अमितशाह होंगे बीजेपी अध्यक्ष । लेकिन बीतते वक्त के साथ जब सरकार का एक बरस पूरा हो चुका है तो कई सवाल सरकार से हटकर पहली बार बीजेपी के बदलाव से टकरा रहे हैं। संघ की विचारधारा से टकरा रहे है। कद्दावर नेताओं के आस्तित्व के संघर्ष से टकरा रहे हैं । वैकल्पिक राजनीति पर भारी पडती सत्ता की समझ से टकरा रहे हैं । और सत्ता के खातिर संस्थानों के कमजोर होने के हालात से खुलेतौर पर दो दो हाथ करने की जगह कंधे पर बैठाकर जीत के नारे लगाने से नहीं चूक रहे । दरअसल तमाम सवाल बार बार 16 मई 2014 और 26 मई 2015 के दौर में ही पैदा हुये है । इसीलिये यह सवाल बड़ा होते जा रहा है कि आखिर देश की दिशा होगी क्या । जो  20 मई 2014 को सेन्ट्रल हाल में नरेन्द्र मोदी ने कहा या फिर 26 मई 2014 के बाद से जो प्रधानमंत्री मोदी कह रहे हैं । दोनों के बीच का अंतर सिर्फ व्यापक ही नहीं है बल्कि देश की भावनाओं के साथ राजनीतिक सत्ता का खुले तौर पर माखौल उड़ाना है । बरस पूरा हो रहा है तो सरकार चलाने से ज्यादा सरकार के कामकाज को किस रोशनी में रखना चाहिये यह मैनेज हो जाये ।

Advertisement. Scroll to continue reading.

यानी पेड मीडिया कोई मायने नहीं रखता । सूचना प्रसारण मंत्री रात के अंधेरे में कभी चेहते तो कभी बीट रिपोर्टर तो कभी मालिकान को दावत पर बुलाकर पीएम के आकस्मिक दर्शन कराकर अभिमूत हैं । दर्शन करने वाला मीडियाकर्मी भी अभिभूत हैं । क्योंकि झटके में वह सरकार के चुनिंदा चहेतों में शामिल हो गया । तो फिर पत्रकारिता की क्यों जाये । गुणगान में ही सारे तत्व छिपे हैं । इसी रास्ते विकास की धारा है । विदेशी पूंजी भी मंजूर, मजदूरों के हक खत्म करने वाले कानूनो को लागू कराना भी मंजूर , किसानों को सरकारी मदद के लिये ताकते रहने वाली नीतियां भी मंजूर , शिक्षा से लेकर स्वास्थय को मुनाफाखोरों के हाथो सौप कर विकास का नारा लगाना भी मंजूर । यह मंजूरी उसी संघ की है जो वाजपेयी सरकार से सिर्फ इसलिये रुठ गई थी क्योंकि स्वदेशी को ताक पर रखा गया था । राम मंदिर मसले को दबा दिया गया था । और खुली पूंजी के खेल में छोटे-छोटे तबको का धंधा मंदा पड़ गया था । नार्थ-ईस्ट में स्वयंसेवक मारा जा रहा था और गृहमंत्रालय संभाले लालकृष्ण आडवाणी बेबस दिखायी दे रहे थे । लेकिन मोदी सरकार तो कई फर्लांग से निकल चुकी है । लेकिन संघ बेबस नहीं बल्कि खुश है कि वह भी तो आवारा पूंजी की तर्ज पर कुलांचे मार सकता है । यानी हिन्दू आतंकवाद का कानूनी भय नहीं । और हिन्दू राष्ट्रवाद का नारा लगाने का वक्त है तो फिर आर्थिक विवशता में जकडे जाते देश को लेकर फिक्र क्यो की जाये । तो फिर साल भर पहले मोदी की जीत का मतलब जीत पर टिके संघ परिवार और बीजेपी की महत्ता तो होगी लेकिन विचारधारा की माला जपते हुये चुनाव हारने वालों की कोई पूछ नहीं होगी । जाहिर है किसी कारपोरेट के मुनाफे की तर्ज पर किसी सीईओ के भविष्य की तरह ही चुनावी जीत की माला भी बूंथी गई तो साल भर बाद हर किसी के सामने यही सवाल बडा होने लगा कि अगर जीत न मिले तो क्या होगा । यह सवाल किसी कार्यकर्ता से नेता पूछ सकता है । नेता से पार्टी अध्यक्ष और पार्टी अध्यक्ष से पीएम पूछ सकता है । शायद इसीलिये सरकार हो या पार्टी चुनाव के वक्त समूचा तंत्र ही जुट जाता है । यानी सरकार देश चलाये लेकिन सवाल बीजेपी की चुनावी जीत का होगा तो देश से पहले पार्टी । क्योकि पार्टी जीतेगी नहीं तो फिर राजनीतिक सत्ता भी कहा बचेगी । तो क्या यह भी बदलाव की रणनीति का हिस्सा है जहा जीते तो हम । हारे तो सभी । दिल्ली में बीजेपी हारे तो खलनायक बीजेपी के भीतर से नहीं बल्कि बाहर से किरण बेदी को खरीद कर ले आया गया. तो क्या बिहार, यूपी बंगाल में भी यही होगा । या फिर बिहार का दांव बीजेपी अध्यक्ष की कुर्सी पर जा लगा है । क्योंकि गुजरात से आकर यूपी के बीजेपी वालो को कोई मैनेजर वाले स्किल सिखाकर चुनाव जीत जाये । यह कैसे संभव है । बिहार को सिर्फ जातीय आधार पर टटोलकर राजनीतिक बिसात बिछाकर कोई चुनाव जीत जाये यह कैसे संभव है। खासकर बीजेपी के ही कार्यकर्ता से लेकर नेताओ की पूरी फौज ही जब बिहार यूपी की जमीनी राजनीति का पाठ पढते हुये बीजेपी को राष्ट्रीय स्तर पर खड़ा कर पायी और उसे ही कारपोरेट पूंजी या जीत की थ्य़ोरी के पाठ तले दबा कर रखा जाये । यह संभव है या नहीं सवाल अब यह नहीं बल्कि सवाल यह है कि क्या बीजेपी वाकई बदल गई । जिसका जिक्र 16 मई 2014 को बीजेपी हेडक्वाटर में बैठा कार्यकत्ता जीते के हंगामे और हर हर मोदी के नारे के बीच कर गया । तब तो मोदी सरकार के बरस भर का पाठ यह भी है कि अब राजनीति बदलेगी । 

अब विकास आर्थिक नीतियो पर नहीं बल्कि राष्ट्रवाद या हिन्दु राष्ट्रवाद की थ्योरी तले देश को विकास के कटघरे में बांटने के सिलसिले से शुरु होगा । कटघरा इसलिये क्योकि विदेशी पूंजी और देसी बाजार से जो 25 करोड समायेगा और जो सौ करोड बचेगा दोनो के बीच के वही चुनी हुई सरकार राज करेगी जो कुछ इस हाथ बांटेगी । कुछ उस हाथ लुटायेगी । यह थ्योरी जीत के बाद जीत के लिये राजनीतिक बिसात पर मोहरो को बदलने से लेकर बिसात तक बदलने की कवायद करती है । सवाल सिर्फ आडवाणी या मुरली मनोहर जोशी को दरकिनार करने का नहीं है । सवाल सिर्फ बीजेपी या संघ हेडक्वाटर को भी उसकी कमजोरी के लिहाज से खामोश समर्थन पाने का नहीं है ।सवाल सिर्फ चुनावी के वक्त वादो की फेरहिस्त को भुलाते हुये या राजनीतिक जुमलो में बदलते हुये नई लकीर खिचने भर का भी नहीं है । सवाल है कि 16 मई 2014 के पहले का जो वातावरण देश में बना था और 16 मई 2015 के बाद जो वातावरण देश में बन रहा है उसमें मोदी सरकार कहां खड़ी है । और आम जनता की भावनायें क्या सोच रही है । वित्त मंत्री, सूचना प्रसारण मंत्री , मानव संसाधन मंत्री चुनाव हारे हुये नेता है । और वाणिज्य मंत्री , रेल मंत्री, संचार मंत्री,ऊर्जा मंत्री, पेट्रोलियम मंत्री , अल्पसंख्यक मामलो के मंत्री समेत दर्जन भर से ज्यादा मंत्री ने तो मोदी की एतिहासिक जीत में चुनाव लडकर सीधी भागेदारी की ही नहीं । फिर दर्जन भर से ज्यादा मंत्री ऐसे है जो बीजेपी के भीतर कद के लिहाज से दूसरी या तीसरी पायदान पर खडे है । तो उन्हे मंत्री बनाकर साल बर के भीतर उन्ही के मंत्रालयो को पीएमओ से संभालवकर देश को संकेत भी दे दिये कि प्रधानमंत्री मोदी को ही देश ने चुना तो देश के लिये वही अकेले काम भी कर रहे है । फिर लोकसभा में चुन कर आये दागी सांसदों के खिलाफ कानून को काम करते हुये संसद को पाक साफ बनाना चाहिये यह कथन साल भर का था लेकिन साल भर सिर्फ कथन के तौर पर ही रहा । लोकसभा में 185 दागियो में से 97 तो बीजेपी के दागी है । लेकिन उनको लेकर भी कोई निर्णय नहीं लिया गया । वैसे बरस भर में बेहद महीन राजनीति ने बीजेपी के भीतर इस सवाल को खडा जरुर कर दिया कि बीजेपी में मोदी की जीत के सामने किसी सांसद या किसी भी कद्दावर नेता के पास कोई नैतिक बल नहीं है कि वह अपने तजुर्बे या अपने प्रभाव का इस्तेमाल कर राजनीति करने के लिये आगे बढे । यह सवाल बीजेपी के लोकतांत्रिक ढांचे के लिये नुकसानदायक हो सकता है लेकिन समझना यह भी होगा कि मोदी का विरोध बीजेपी में कौन से नेता कर सकते है । हर किसी पर कोई ना कोई दाग है ही । या जो दागदार नहीं है वह इतने कमजोर है कि पार्षद का चुनाव नहीं जीत सकते है । और कुछ सत्ता के साथ खडे होकर नारे लगाते हुये कद्दावर होने का सपना पाल कर वक्त निकालने में माहिर है । यानी साल भर पहले जो वाज गुजरात से निकली उसने सिर्फ काग्रेस को ही पराजित नहीं किया बल्कि बीजेपी के भीतर के उस काग्रेसी कल्चर को हराया जो लुटियन्स की दिल्ली पर काबिज थी । इसिलिये साल भर पहले बीजेपी हेडक्वाटर के हंगामे और हर-हर मोदी, घर-घर मोदी के नारे में भी सुकुन था कि अब लुटियन्यस की दिल्ली का नैक्सेस खत्म होगा । इंडिया इंटरनेशनल सेंटर, तीन मूर्ती से लेकर पार्लियामेंट एनेक्सी के बीच घुमडती सत्ता की ताकत खत्म होगी । लेकिन यह किसे पता था साल भर बीतते बीतते सत्ता के नये केन्द्र कही ज्यादा खतरनाक तरीके से पुराने केन्द्र को पीछे भी छोडेगें और लुटियन्स की दिल्ली को आधुनिक तरीके से लुभायेगें भी कि वह या तो सत्ता के नये केन्द्रो में शामिल हो जाये । या फिर सियासी कटघरे में ट्रायल के लिये तैयार रहे । यानी जो धड़कन 16 मई 2014 को देश के भीतर थी । वही घडकन 16 मई 2015 के बाद भी घुमड रही है अंतर सिर्फ इतना है साल भर पहले सुबह का इंतजार था। साल भर बाद सुबह को अंधेरे से बचाने के संघर्ष की धड़कन है ।

Advertisement. Scroll to continue reading.

पुण्य प्रसून बाजपेयी के ब्लॉग से 

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement