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उत्तर प्रदेश

राम जन्म भूमि विवाद में मोदी सरकार का नया पैतरा

अयोध्या में गैर-विवादित जमीन वापस करने की अनुमति सुप्रीमकोर्ट से मांगी केंद्र ने

रामजन्मभूमि विवाद में एक नया मोड़ आया है।जो काम प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया जा सकता उसे अप्रत्यक्ष रूप से करने का प्रयास केंद्र सरकार कर रही है। केंद्र ने अयोध्या में विवादास्पद राम जन्मभूमि बाबरी मस्जिद स्थल के पास अधिग्रहित 67 एकड़ जमीन उसके मूल मालिकों को लौटाने की अनुमति के लिए मंगलवार को उच्चतम न्यायालय में याचिका दाखिल की है। हालाँकि इस मामले में अबतक हुई सुनवाई और उच्चतम न्यायालय द्वारा पारित आदेशों को देखते हुये सबकी निगाहें एक बार फिर से उच्चतम न्यायालय की ओर लग गयी हैं।

केंद्र ने इस याचिका में कहा है कि उसने 2.77 एकड़ विवादित राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद स्थल के पास 67 एकड़ भूमि का अधिग्रहण किया था और अब वह इस अतिरिक्त जमीन को उनके मूल मालिकों को लौटाने की अनुमति चाहता है।दरअसल विवादित स्थान को छोडकर यदि बाकि जमीन वापस करने की अनुमति दे दी जाती है तो उसपर मन्दिर का निर्माण इस तरह होगा कि रामलला का गर्भगृह छोड़कर बाकी निर्माण होगा और विवाद को बनाये रखा जायेगा ताकि इसका राजनितिक फायदा मिलता रहे और धर्मप्राण सनातनधर्मियो का मन उद्वेलित बना रहे।

क्या गैर-विवादित जमीन वापस मिल सकती है?
सरकार के इस कदम के बाद सबसे बड़ा सवाल यह है कि क्या उच्चतम न्यायालय गैर-विवादित जमीन को संबंधित मालिकों को लौटा सकता है। 2003 में असलम भूरे मामले के फैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा था कि विवादित और गैर-विवादित जमीन को अलग करके नहीं देखा जा सकता। अधिग्रहित जमीन को उनके मालिकों को वापस लौटाया जा सकता है, लेकिन इसके लिए जमीन मालिकों को उच्चतम न्यायालय में अर्जी दायर करनी होगी। इसके बाद राम जन्मभूमि न्यास ने अपनी गैर-विवादित जमीन 42 एकड़ पर अपना मालिकाना हक हासिल करने के लिए सरकार से गुहार लगाई। 2019 में केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में दाखिल अर्जी में कहा है कि राम जन्मभूमि न्यास ने अपने हिस्से की गैर विवादित जमीन की मांग की है।अब यह भी यक्ष प्रश्न है कि जमीन मालिकों ने उच्चतम न्यायालय में अर्जी दायर करने के बजाय केंद्र सरकार ने क्यों उनकी ओर से अर्जी दायर की है।

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केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में दी गई अर्जी में 1993 में अधिग्रहीत 67 एकड़ जमीन को गैर-विवादित बताते हुए इसे इसके मालिकों को लौटाने की अपील की है। इलाहाबाद हाई कोर्ट ने 2010 में 2.77 एकड़ जमीन को विवादित बताते हुए 3 हिस्सों में बांट दिया था। अब केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में जो अर्जी दी है, उसमें उसने 0.313 एकड़ जमीन को ही विवादित बताते हुए संबंधित पक्षों को वापस सौंपने की अपील की है। इस 67 एकड़ में राम जन्मभूमि न्यास की 42 एकड़ जमीन शामिल है। सरकार के इस कदम को बिना अध्यादेश लाए गैर-विवादित जमीन पर मंदिर निर्माण का रास्ता साफ करने की कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है।

अधिग्रहित जमीन की कथा
1993 में 67 एकड़ जमीन का केंद्र सरकार ने अधिग्रहण किया था। विवादित जमीन के आसपास की जमीन का अधिग्रहण इसलिए किया गया था ताकि विवाद के निपटारे के बाद उस विवादित जमीन पर कब्जे या उपयोग में कोई बाधा नहीं हो। इसमे करीब 42 एकड़ की जमीन रामजन्म भूमि न्यास की है। केंद्र सरकार ने 3 अप्रैल 1993 को अयोध्या की विवादित ज़मीन के अधिग्रहण से जुड़े क़ानून की अधिसूचना जारी की थी। इसमें कहा गया था कि परिसर के रख-रखाव, देश में सांप्रदायिक सद्भाव और भाईचारे की भावना को बढ़ावा देने के लिए उस ज़मीन का अधिग्रहण किया जा रहा है।

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समय समय पर सुप्रीमकोर्ट ने क्या कहा
वर्ष 1994 में इस्माइल फारूकी मामले में उच्चतम न्यायालय ने अपने फैसले में कहा था कि विवादित जमीन पर न्यायालय का फैसला आने के बाद गैर विवादित जमीन को उनके मूल मालिकों को वापिस लौटाने पर विचार कर सकती है।1996 में सरकार ने रामजन्म भूमि न्यास की मांग ठुकरा दी थी । इसके बाद न्यास ने हाईकोर्ट का दरवाजा खटखटाया जिसे कोर्ट ने 1997 में खारिज कर दिया।

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वर्ष 2002 में जब गैर-विवादित जमीन पर पूजा शुरू हो गई तो असलम भूरे ने उच्चतम न्यायालय का दरवाजा खटखटाया। इस याचिका पर सुनवाई के बाद 2003 में उच्चतम न्यायालय ने 67 एकड़ पूरी जमीन पर यथास्थिति कायम रखने का आदेश दिया। 2003 में असलम भूरे फैसले में उच्चतम न्यायालय ने कहा कि विवादित और गैर-विवादित जमीन को अलग करके नहीं देखा जा सकता। न्यायालय ने अधिग्रहित जमीन वापसी पर पक्षकारों से अर्जी मांगी।

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अब राम जन्मभूमि न्यास ने अपनी गैरविवादित जमीन 42 एकड़ पर अपना मालिकाना हक हासिल करने के लिए सरकार से गुहार लगाई है ।मंगलवार(29जनवरी 19)को केंद्र ने उच्चतम न्यायालय में दायर याचिका में कहा है कि राम जन्मभूमि न्यास ने अपने हिस्से की गैर विवादित जमीन की मांग की है।

उच्चतम न्यायालय में 14 अपील लंबित
गौरलतब है कि उच्चतम न्यायालय में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के सितंबर 2010 के फैसले के खिलाफ 14 अपील लंबित हैं। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ खंडपीठ ने अयोध्या विवाद को लेकर फैसला सुनाया था। जस्टिस सुधीर अग्रवाल, जस्टिस एस यू खान और जस्टिस डी वी शर्मा की बेंच ने अयोध्या में विवादित 2.77 एकड़ जमीन को 3 हिस्सों में बांट दिया था।बहुमत से दिए गए फैसले में एक हिस्सा (जहां राम लला की प्रतिमा विराजमान है) हिंदुओं को मंदिर के लिए, दूसरा हिस्सा (जहां सीता रसोई और राम चबूतरा है) निर्मोही अखाड़ा को और तीसरा हिस्सा सुन्नी वक्फ बोर्ड को देने का फैसला सुनाया था. इस फैसले को निर्मोही अखाड़े और सुन्नी वक्फ बोर्ड ने नहीं माना और उसे उच्चतम न्यायालय में चुनौती दी गई। उच्चतम न्यायालय ने 9 मई 2011 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। उच्चतम न्यायालय में यह केस तभी से लंबित है। इलाहाबाद हाईकोर्ट के 2010 के फैसले के खिलाफ दायर 14 अपीलों पर उच्चतम न्यायालय में सुनवाई होनी है।

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लगातार टल रही है सुनवाई
उच्चतम न्यायालय में इस मसले पर सुनवाई लगातार टल रही है। उच्चतम न्यायालय में मंगलवार को इस मामले की सुनवाई करने वाली पांच सदस्यीय पीठ के सदस्य न्यायमूर्ति एस ए बोबडे के उपलब्ध नहीं होने के कारण राजनीतिक रूप से संवेदनशील राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद भूमि विवाद की सुनवाई रविवार 28 जनवरी को रद्द कर दी थी।

चुनाव से मोदी सरकार एक्शन में
इससे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि सरकार उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद ही कोई कदम उठाएगी, लेकिन केंद्र सरकार पर मंदिर के निर्माण को लेकर चौतरफा दबाव पड़ रहा है। ऐसे में कहा जा सकता है कि चुनाव में इसे लेकर कोई नुकसान ना हो, इसलिए मोदी सरकार एक्शन में आ गई है।

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लेखक जेपी सिंह इलाहाबाद के वरिष्ठ पत्रकार और कानूनी मामलों के जानकार हैं.

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