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सियासत

डरे हुए लोग जाते हैं ज्योतिषियों के पास!

ज्योतिषियों के पास कोई आध्यात्मिक पुरुष थोड़े ही जाता है। ज्योतिषियों के पास तो संसारी आदमी जाता है। कहता है : भूमि-पूजा करनी है, नया मकान बनाना है, तो लगन-महूरत; कि नई दुकान खोलनी है, तो लगन-महूरत; कि नई फिल्म का उद्घाटन करना है, लगन महूरत; कि शादी करनी है बेटे की, लगन-महूरत। संसारी डरा हुआ है : कहीं गलत न हो जाए! और डर का कारण है, क्योंकि सभी तो गलत हो रहा है; इसलिए डर भी है कि और गलत न हो जाए! ऐसे ही तो फंसे हैं, और गलत न हो जाए!

<p>ज्योतिषियों के पास कोई आध्यात्मिक पुरुष थोड़े ही जाता है। ज्योतिषियों के पास तो संसारी आदमी जाता है। कहता है : भूमि-पूजा करनी है, नया मकान बनाना है, तो लगन-महूरत; कि नई दुकान खोलनी है, तो लगन-महूरत; कि नई फिल्म का उद्घाटन करना है, लगन महूरत; कि शादी करनी है बेटे की, लगन-महूरत। संसारी डरा हुआ है : कहीं गलत न हो जाए! और डर का कारण है, क्योंकि सभी तो गलत हो रहा है; इसलिए डर भी है कि और गलत न हो जाए! ऐसे ही तो फंसे हैं, और गलत न हो जाए!</p>

ज्योतिषियों के पास कोई आध्यात्मिक पुरुष थोड़े ही जाता है। ज्योतिषियों के पास तो संसारी आदमी जाता है। कहता है : भूमि-पूजा करनी है, नया मकान बनाना है, तो लगन-महूरत; कि नई दुकान खोलनी है, तो लगन-महूरत; कि नई फिल्म का उद्घाटन करना है, लगन महूरत; कि शादी करनी है बेटे की, लगन-महूरत। संसारी डरा हुआ है : कहीं गलत न हो जाए! और डर का कारण है, क्योंकि सभी तो गलत हो रहा है; इसलिए डर भी है कि और गलत न हो जाए! ऐसे ही तो फंसे हैं, और गलत न हो जाए!

संसारी भयभीत है। भय के कारण सब तरफ सुरक्षा करवाने की कोशिश करता है। और जिससे सुरक्षा हो सकती है, उस एक को भूले हुए है। वही तो पलटू कहते हैं कि जिस एक के सहारे सब ठीक हो जाए, उसकी तो तू याद ही नहीं करता; और सब इंतजाम करता है : लगन-महूरत पूछता है। और एक विश्वास से, एक श्रद्धा से, उस एक को पकड़ लेने से सब सध जाए–लेकिन वह तू नहीं पकड़ता, क्योंकि वह महंगा धंधा है। उस एक को पकड़ने में स्वयं को छोड़ना पड़ता है; सिर काट कर रखना होता है।

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महत्वाकांक्षा दुनिया का सबसे खतरनाक धीमा जहर है.. किसी भी शराब से अधिक, यहाँ तक कि मरिजुआना या एल.सी.डी. जैसे मादक द्रव्यों से भी अधिक खतरनाक धीमा जहर। क्योंकि, महत्वाकांक्षा आपके पूरे जीवन को बर्बाद करके रख देती है। वह आपको गलत दिशा में गतिशील रखती है। वह आपको धारणाएं बनाने, तरह-तरह की इच्छाएँ पालने, दिवास्वप्न देखने में व्यस्त रखती है, और आपको तरह-तरह से अपने पूरे जीवन को बर्बाद करने में लगाए रखती है।

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महत्वाकांक्षा का अर्थ है मन में एक सूक्ष्म अहंकार का निर्माण हो जाना। एक बार उस अहंकार के निर्मित हो जाने पर वह आपको अज्ञान के अंधकार भरे सघन कोहरे में खींचता चला जाता है। फिर, उसी अहंकार के आधार पर आपका पूरा सामाजिक तानाबाना खड़ा होने लगता है। आपकी सारी सोच इस दिशा में कार्य करने लगती है, “सबसे आगे बढ़ो, सबसे पहले पहुँचो”। फिर, आप जहाँ कहीं होते हैं, जो कुछ भी कर रहे होते हैं, सबसे आगे बढ़ जाने, सबसे पहले पहुँच जाने की कवायद में लग जाते हैं, चाहे उसके लिए कुछ भी करना पड़े। साम, दाम, दंड और भेद – कोई भी पैंतरा आजमाना पड़े, कोई भी समझौता करना पड़े, किसी की चापलूसी भी करनी पड़े, झूठ, अभिनय और डींग का सहारा भी लेना पड़े, आपके लिए इससे कोई फर्क नहीं पड़ता, बस हर कीमत पर सफल हो जाना है, मानो कि सफलता ही जीवन का पर्याय हो गई हो! असल में, जीवन का सफलता से कोई लेना-देना नहीं है। सफलता आपको भविष्य की दिशा में गतिशील करने का भ्रम रचती है और मदहोश बनाकर रखती है। आने वाले बेहतर कल की उम्मीद में उलझाए रखकर वर्तमान के सहज और आनंद भरे जीवन से वंचित रखती है।”

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भोजन करते हुए या पानी पीते हुए भोजन या पानी का स्वाद ही बन जाओ, और उससे भर जाओ। हम खाते रहते हैं, हम खाए बगैर नहीं रह सकते। लेकिन हम बहुत बेहोशी में भोजन करते हैं-यंत्रवत। और अगर स्वाद न लिया जाए तो तुम सिर्फ पेट को भर रहे हो। तो धीरे-धीरे भोजन करो, स्वाद लेकर करो और स्वाद के प्रति सजग रहो। और स्वाद के प्रति सजग होने के लिए धीरे-धीरे भोजन करना बहुत जरूरी है। तुम भोजन को बस निगलते मत जाओ। आहिस्ते-आहिस्ते उसका स्वाद लो और स्वाद ही बन जाओ। जब तुम मिठास अनुभव करो तो मिठास ही बन जाओ। और तब वह मिठास सिर्फ मुंह में नहीं, सिर्फ जीभ में नहीं, पूरे शरीर में अनुभव की जा सकती है। वह सचमुच पूरे शरीर पर फैल जाएगी। तुम्हें लगेगा कि मिठास-या कोई भी चीज-लहर की तरह फैलती जा रही है। इसलिए तुम जो कुछ खाओ, उसे स्वाद लेकर खाओ और स्वाद ही बन जाओ।

तंत्र कहता है कि जितना स्वाद ले सको उतना स्वाद लो। ज्यादा से ज्यादा संवेदनशील बनो, जीवंत बनो। इतना ही नहीं कि संवेदनशील बनो, स्वाद ही बन जाओ। अस्वाद से तुम्हारी इंद्रियां मर जाएंगी, उनकी संवेदनशीलता जाती रहेगी। और संवेदनशीलता के मिटने से तुम अपने शरीर को, अपने भावों को अनुभव करने में असमर्थ हो जाओगे। और तब फिर तुम अपने सिर में केंद्रित होकर रह जाओगे।

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पानी पीते हुए पानी का ठंडापन अनुभव करो। आंखें बंद कर लो, धीरे-धीरे पानी पीओ और उसका स्वाद लो। पानी की शीतलता को महसूस करो और महसूस करो कि तुम शीतलता ही बन गए हो। जब तुम पानी पीते हो तो पानी की शीतलता तुममें प्रवेश करती है, तुम्हारा अंग बन जाती है। तुम्हारा मुंह शीतलता को छूता है, तुम्हारी जीभ उसे छूती है और ऐसे वह तुम में प्रविष्ट हो जाती है। उसे तुम्हारे पूरे शरीर में प्रविष्ट होने दो। उसकी लहरों को फैलने दो और तुम अपने पूरे शरीर में यह शीतलता महसूस करोगे। इस भांति तुम्हारी संवेदनशीलता बढ़ेगी, विकसित होगी और तुम ज्यादा जीवंत, ज्यादा भरे-पूरे हो जाओगे।

जाने-माने दार्शनिक ओशो के अलग-अलग प्रवचनों के कुछ अंश.

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