मनमीत-
रूक जाना नहीं, तुम यूं हारकर… ये लेख उन पत्रकारिता से जुड़े नए साथियों के लिये हैं जो कई बार अपनी सैलरी और पॉजिशन के चलते डिप्रेशन में आ जाते हैं। कई इस दौरान पेशे को छोड़ देते हैं और कई अपने हालातों से समझोता करते हुये आगे बढ़ते है, लेकिन डिप्रेशन में रह कर। हालांकि कुछ बहुत अच्छा भी कर जाते हैं। दोस्तों, पत्रकारिता के पेशे में अक्सर नये और पुराने लोगों से मिलता हूं तो सुनता हूं कि शौक के लिये पत्रकारिता करनी चाहिये और अजीविका के लिये कुछ और धंधा। ये बात कोई बीस तीस साल पहले कहता तो शायद ठीक होती। आज के वक्त में ऐसा नहीं है। आज पत्रकारिता में अच्छा पैसा मिल रहा है।
मैं आज ईमानदारी से अपनी ही कहानी सुनाता हूं। मैंने जिस शिक्षण संस्थान से पत्रकारिता का स्नातक कोर्स किया, उसके पहले साल में ही मुझे लग गया था कि यहां से तो मैं अच्छा या सफल पत्रकार नहीं बन सकूंगा। उस वक्त में पहाड़ से मैदान आया हुआ एक शर्मिला और दब्बू किस्म का छात्र था, जो देहरादून जैसे शहर में ‘कल्चरल शॉक’ से भी जूझ रहा था। लेकिन, धीरे धीरे मैंने लिखना सीखा, लेकिन उससे पहले पढ़ना। मैं स्कूल में पढ़ाई में बिल्कुल निचले स्तर का स्टूडेंट रहा हूं। जिसने महज इसलिये किताबें खोली कि एग्जाम में बस पास होने लायक नंबर ले आऊं। बेखबर और लापरवाह इतना की मुझे ग्रजुएशन के बाद पता चला कि दिल्ली में आईआईएमसी नाम का एक पत्रकारिता का शीर्ष संस्थान हैं। इस संस्थान का नाम भी मुझे तब पता चला जब मेरे साथ ग्रजुएशन करने वाले दोस्त ने आईआईएमसी का एग्जाम दिया और पास किया।
खैर, अपनी ग्रेजुएशन करने के बाद मैं समझ गया कि हालात इतने आसान नहीं है और रवीश कुमार बनना बहुत कठिन है। उसी दौरान 2008 मेें देहरादून में हिन्दुस्तान अखबार की लांचिग हुई और मुझे वहां पर पहली स्ट्रिंगर (कॉन्ट्रेक्ट टाइप) की नौकरी मिली। मैं उस वक्त पत्रकारिता बीए दूसरे साल का छात्र था। मेरी तनख्वाह हुई पांच हजार रूपये और बीट मिली स्पोटर्स। मैंने अपनी लाइफ में न तो कभी क्रिकेट खेला और न फुटबॉल। खेल में मुझे कोई खास रूची नहीं रही। लेकिन मुझे अब खेल बीट ही कवर करनी थी। मैंने एक माह में खेलों के बारे में इतना पढ़ लिया कि ठीक ठाक औसत खबर लिखने लगा। कुछ समय बाद में क्राइम बीट भी देखने लगा।
मैं अपने काम में महत्वकांक्षी रहा हूं। महत्वकांक्षी होना जरूरी शर्त इसलिये भी थी क्योंकि मुझे पता था कि पत्रकारिता में मेरा कोई गोडफादर नहीं है। इसलिये मैंने अपने काम को गोडफादर बनाया। मुझे जो बीट दी गई, मैंने उस पर मेहनत से काम किया। चालाकियां सीखी और उससे जरूरी ‘स्मार्ट काम’ कैसे किया जाता है, ये सबसे पहले सीखा। धीरे धीरे हिन्दुस्तान होते हुये अमर उजाला और फिर दैनिक जागरण और उसके बाद फिर हिन्दुस्तान में पहुंचा। अब मैं, उप संपादक बन गया था। लेकिन मैं फिर भी संतुष्ट नहीं था। मेरी सैलरी हुई 35 हजार रूपये और उम्र 30 साल। पांच साल में महज तीस साल की ग्रोथ। मैं डिप्रेशन मोड पर जाने लगा। हालांकि मेरे स्कूल के दोस्त मुझे डीएम और एसएसपी सरीखे अधिकारियों के साथ देखते तो मुझे चने के झाड़ पर चढ़ाते। मैं उन के कई काम चुटकियों में कर देता। अपने दोस्तों के बीच सत्ता का सुख भोग रहा था। मेरे एक फोन पर कुछ भी हो रहा था। लेकिन मैं खुशकिस्मत था कि मैं जल्द समझ गया कि ये सब दिखावा मात्र है। सत्ता का हैंगओवर कभी मुझे चढ़ा ही नहीं। क्योंकि ये बात मैं पहले दिन से जानता था कि कोई नेता, आईएएस या आईपीएस आपको इसलिये लिफ्ट दे रहा है, क्योंकि आप एक संस्थान का प्रतिनिधित्व कर रहे हो। जिस दिन संस्थान गया, उस अधिकारी का आपके लिए प्रेम और इज़्ज़त भी गया।
2015 में मैं, इन सभी बातों से उब गया। मैंने दुबारा पढ़ना शुरू किया। मैंने भारतीय, अमेरिकन, रूसी, कोरियन, अफ्रिकन साहित्य पढ़ना शुरू किया तो कई इतिहासकारों से टयूशन लेना शुरू किया। मसलन, विजय रावत से मैंने इस्लाम का टयूशन लिया तो स्व बची राम कोंसवाल से द्वंद्वात्मक भौतिकवाद का। मैंने अपने बौद्धिक स्वार्थ के लिए अपने आसपास मौजूद इंटेलेक्चुअल्स का इतना दिमाग खा लिया कि वो मुझसे दूर भागने लगे।
मैंने फासीवाद का गहरा अध्ययन किया। जर्मनी, तुर्की, पोलेंड और न जाने कितने ही देशों में आये राष्ट्रवादी इतिहास को गहरा से समझा। इससे मेरी राजनीतिक समझ पुख्ता हुई। हिमालय को समझने के लिये मैंने लंबी लंबी काराकोरम से ग्रेट हिमालय की यात्रायें की। मैंने ग्लेशियरों, दर्रों, झीलों, घाटियों, शीत मरूस्थलों, पठारों और नदियों को पार किया और हर उस प्राकृतिक भौगोलिक सरचनाओं को गौर से देखा और समझा। इससे में जैव विविधता को गहरे से समझा। मैं समझ पाया कि क्यों ये बहुत जरूरी हैं।
2018 तक मैं फ्रिलांसर के रूप में दिल्ली के कई नेशनल पोर्टल में लिखने लगा। मुझे सबसे पहले मौका डाउन टू अर्थ और न्यूज क्लीक ने दिया। जहां पर मैं हिमालय से जुड़े पर्यावरण पर लिखता और एक लेख के मुझे 2500 से तीन हजार रूपये मिलते। धीरे धीरे ये लेख इतने हो गये कि मुझे अपनी अखबार की नौकरी की खटकने लगी। आखिरकार मैंने एक दिन अपनी नौकरी छोड़ दी और पूरी तरह से फ्रिलांसिग करने लगा। लेकिन, एक बात साफ कर दूं। अखबारों ने मुझे अनुशासन और लिखने की स्पीड दी। प्रेशर में काम करने का हुनर दिया। कॉर्डिनेशन का समझ दी। तो नॉन स्ट्रीम जर्नलिज़्म प्लेटफॉर्म ने धैर्य से लिखने और रेफरेंस के इम्पोर्टेंस की बुनियादी सीख दी।
आज में पूरी तरह से बारामासा के साथ जुड़ा हूं। वो मेरा अपना संस्थान है। लेकिन कई जगह बतौर फ्रिलांसर भी काम करता हूं। जो मुझे महीने इतने पैसे देते हैं, जितना मेरी अखबारों में पांच माह की तनख्वाह होती थी। आज में प्रोफेशनल डिप्रेशन में नहीं हूं। अपने यात्रायें करता हूं और खबरें लिखता हूं। मेरा शोक ही मेरी अजीविका भी है।
लब्बोलुआब ये है कि किसी भी एक विषय पर अपनी पकड़ बनाइये। उस पर इतना अध्ययन करिये और लिखये कि आप उसके कथित एक्सपार्ट माने जाये। फिर देखिये क्या होता है। अब पत्रकारिता में ईमानदारी से पैसे कमाये जा सकते है। कई संस्थान तो एक फोटो के लिये ही तीन से चार हजार रूपये तक देते है। मैं एक ऐसे संस्थान के लिये भी लिखता हूं, जिसने मुझे एक लेख के लिये 25 हजार रूपये तक दिये हैं। इसलिये डिप्रेशन में आने की जरूरत नहीं है। अपने काम को पसंद करिये, मेहनत करिये और आगे बढ़िये। पत्रकारिता दिवस की खूब बधाई।
Bimal Rai
June 1, 2022 at 7:37 pm
बहुत अच्छा अनुभव, प्रेरणादायक
बिमल राय
Dharmendra Singh
June 5, 2022 at 9:30 pm
प्रेरणा दायक आलेख, साधुवाद।
मनमीत जी के इतिहास, यात्र, पर्यावरण आदि संबंधित लेख/खबर/रिपोर्टाज पढ़ने की इच्छा है। ये कहां उपलब्ध हो सकता है।
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