शाहनवाज़ हसन-
लोकतांत्रिक मूल्यों की रक्षा के लिए चौथा स्तंभ कितना सशक्त?
आलोचनात्मक रवैया रखनेवाले पत्रकारों को चुप कराने के लिए आईपीसी की धारा 124ए का बेजा इस्तेमाल कर ‘राजद्रोह’ तक का मुकदमा दर्ज किया जाता है, जिसमें उम्र क़ैद तक की सज़ा का प्रावधान है। लोकतंत्र के चौथे स्तंभ की स्वतंत्रता के लिए सभी राजनीतिक दलों द्वारा सत्ता पक्ष को तब तक निशाना बनाया जाता है जब तक वे विपक्ष में रहते हैं। सत्ता पर काबिज़ होने के साथ ही वे उस रुदाली को भूल जाते हैं, जो विपक्ष में रहते उन्होंने की होती हैं।
पिछले दिनों अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के विरुद्ध अमेरिकी मीडिया ने जिस तरह एकजुटता दिखाते हुए विश्व के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र के राष्ट्रपति को माफ़ी मांगने पर मजबूर कर दिया था, वह अपने देश भारत में कितना प्रासंगिक हो सकता है, इस पर चर्चा करने के लिए भी कोई पत्रकार संगठन तैयार नहीं है।देश की राजधानी दिल्ली में किसान आंदोलन को कवर कर रहे पत्रकारों की दिल्ली पुलिस द्वारा गिरफ्तारी लोकतांत्रिक मूल्यों की हत्या है। दिल्ली पुलिस की गिरफ़्तारी के विरुद्ध उच्चतम न्यायालय ने अब तक स्वतः संज्ञान नहीं लिया है। गिरफ्तारी के विरुद्ध विरोध के स्वर टुकड़ों में सुनाई दे रहे हैं।
पत्रकार संगठनों का रवैया पिछले दो दशक से पत्रकार हितों की रक्षा के नाम पर धंधेबाजी और दुकानदारी तक सीमित रह गया है।गिरफ्तारी के पक्ष और विरोध में पत्रकार आपस में ही बंटे हुए हैं। अर्णव गोस्वामी की गिफ्तारी के बाद देशभर के पत्रकार दो धुरी पर बंट गये थे। एक अर्णव के साथ खड़े थे, तो दूसरे अर्णव की गिरफ्तारी को जायज़ ठहरा रहे थे। किसान आंदोलन का कवरेज कर रहे पत्रकारों की गिरफ्तारी को लेकर भी पत्रकार और पत्रकार संगठन दो धुरी पर बंटे हुए हैं, जिसका लाभ सदैव सत्ता पर आसीन रहनुमाओं को मिलता आया है ; चाहे वह आपातकाल का समय रहा हो या वर्तमान समय। आज देश के सदूर क्षेत्रों में पत्रकारिता करनेवालों के लिए निष्पक्ष रूप से पत्रकारिता कर पाना जोखिम भरा हो गया है।
पत्रकारों के मुद्दों पर केन्द्र एवं राज्य सरकार के बीच की कड़ी प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री के मीडिया सलाहकार हुआ करते थे। मीडिया सलाहकार पत्रकारों के पक्ष की समझ रखते हुए प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री को समस्या के समाधान के लिए पहल किया करते थे। प्रधानमंत्री एवं मुख्यमंत्री के प्रेस सलाहकार रखने के रिवाज को भी समाप्त कर दिया गया है। पहले सलाहकार मीडिया का व्यक्ति हुआ करता था। अब प्रधानमंत्री से लेकर मुख्यमंत्री तक के मीडिया सलाहकार पत्रकार नहीं हैं। ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर वे पत्रकारों के दृष्टिकोण को सरकार के समक्ष कैसे रख सकते हैं ? अब मीडिया को यही समझ में नहीं आता कि आखिर वह पीएमओ और सीएमओ में संपर्क करे, तो किससे…?
मीडियाकर्मियों के लिए आज एक तरफ कुआं है, तो दूसरी तरफ खाई। ऐसे में पत्रकार संगठनों का यूं मौन रहना पत्रकार एवं पत्रकारिता जगत के लिए घातक सिद्ध होगा।
लेखक झारखण्ड जर्नलिस्ट एसोसिएशन के संस्थापक एवं भारती श्रमजीवी पत्रकार संघ, नई दिल्ली के राष्ट्रीय महासचिव हैं।