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सुख-दुख

पत्रकारों की फूट का लाभ उठाते मालिक

अमित बैजनाथ गर्ग

सभी पत्रकार साथी एकता के साथ काम करना सीखें। एक बनकर रहेंगे तो कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा। अपने पत्रकारीय हितों के लिए लड़ें। मीडिया घरानों की फर्जी कंपनियों में खुद को शामिल होने से हर हाल में बचाएं। अपने हक पर किसी को भी डाका नहीं डालने दें।

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समझ में नहीं आता कि कहां से शुरू करूं? 14 साल की सक्रिय पत्रकारिता करने के बाद कई तरह के अनुभवों से सामना हुआ है। बड़े से लेकर छोटे संस्थानों तक में नौकरी की है। हालांकि ज्यादातर अनुभव कड़वे ही रहे हैं। शुरुआत इस बात से करता हूं कि अब पत्रकारिता पहले की तरह नहीं रह गई है। बहुत तरह के बदलाव आए हैं, जिनका सामना सभी पत्रकारों को करना पड़ रहा है। तकनीक भी पहले से कहीं अधिक हावी हो गई है। इन सबके बीच यह सोचने की बात है कि क्या हम पत्रकार रह गए हैं? हम जिन संस्थानों की नौकरी करते हैं, क्या वे हमें पत्रकार मानते भी हैं? क्या एक पत्रकार के रूप में हम सहजता के साथ जीवन-यापन करने और अपने परिवार की जरूरतों को पूरा करने में सक्षम हैं? एक पत्रकार के रूप में क्या हम अपने सामाजिक सरोकारों को निभा पा रहे हैं?

हालांकि बहुत कड़वी बात है, लेकिन इसे कहना बहुत जरूरी है। अब हम व्यक्तिगत रूप से तो पत्रकार हो सकते हैं, लेकिन जिन संस्थानों की हम नौकरी करते हैं, वे हमें पत्रकार नहीं मानते। अब संस्थानों से अपनी मूल कंपनी के अलावा कई फर्जी कंपनियां बना ली हैं, जिनमें वे अपने कर्मचारियों को ट्रांसफर कर रहे हैं। इन कंपनियों में शामिल होने के बाद कोई भी खुद को किसी भी तरह से पत्रकार साबित नहीं कर सकता। पत्रकार अब कंटेंट राइटर रह गए है। राजस्थान ही नहीं, पूरे देश के मीडिया घरानों का हाल कमोबेश एक सा ही है। सभी ने फर्जी कंपनियां बनाकर अपने अधिकतर पत्रकारों को उनमें जबरन समाहित कर दिया है। इसके बाद वे किसी भी तरह से पत्रकार नहीं रह जाते। खास बात यह भी है कि इन फर्जी कंपनियों का अनुभव प्रमाण-पत्र किसी भी काम का नहीं है।

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अपने मीडिया आउटलेट्स के माध्यम से इनके मालिक लंबे-चौड़े आलेख और भाषण देकर देशभर में ईमानदारी और नैतिकता का ढिंढोरा पीटते हैं। यह शुद्ध रूप से एक ढोंग है, इससे बढ़कर कुछ भी नहीं। सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद भी अखबारों के मालिक अपने कर्मचारियों को मजीठिया आयोग द्वारा तय किए गए वेतन-भत्ते नहीं दे रहे हैं। इसके उलट केस करने वाले कर्मचारियों को इन मालिकों ने कोर्ट की लंबी कार्यवाहियों में फंसा दिया है। आखिर यह इन मालिकों का दोहरा चरित्र नहीं तो और क्या है? एक तरफ तो ये सभी को ईमानदारी और नैतिकता का ज्ञान परोसते हैं, दूसरी तरफ खुद ही अपने कर्मचारियों को उनके हक का लाभ नहीं देते हैं। यह कहानी केवल राजस्थान की नहीं है, बल्कि पूरे देश के अखबार मालिकों की है।

मुझे याद है कि कोरोना काल में इन मालिकों ने अपने कर्मचारियों के साथ कितनी बदतमीजियां की हैं। कोरोना काल की शुरुआत में पूरे देश में पत्रकारों की बंपर छंटनियां हुईं। इसके साथ ही बचे हुए सभी कर्मचारियों की सैलेरी काटी गई। एक भी कर्मचारी को नहीं बख्शा गया। हजारों लोग एक झटके में बेरोजगार कर दिए गए। उन्हें संभलने तक का मौका नहीं दिया गया। क्या युवा पत्रकार और क्या वरिष्ठ पत्रकार, सभी को एक डंडे से हांक दिया गया। अधिकतर लोगों को घर बैठने या दूसरा कोई रोजगार तलाशने के लिए मजबूर होना पड़ा। सैलेरी काटने का जो ट्रेंड चला, वह अभी तक भी जारी है।

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अखबारों-चैनलों के मालिक सरकारों से तो सभी तरह के लाभ लेना चाहते हैं, लेकिन अपने पत्रकार कर्मचारियों को कोई लाभ देना नहीं चाहते। लाभ तो बहुत दूर की बात है, ये अपने कर्मचारियों को अब पत्रकार तक नहीं मानते। कर्मचारियों के बल पर सालों तक करोड़ों-अरबों कमाने वाले मालिक कोरोना काल में एक साल के लिए भी अपने कर्मचारियों को नहीं संभाल पाए। कई मालिक तो अपने कर्मचारियों को यह भी कहते हैं कि अपने बच्चों को भी हमारी कंपनी में नौकरी पर लगाओ। क्या इन मालिकों की बातों का कोई कर्मचारी अब भरोसा कर सकता है? बिल्कुल नहीं।

बहुत विनम्रता के साथ माफी मांगते हुए मैं यह भी कहना चाहता कि आज पत्रकारों की जो दयनीय स्थिति हुई है, उसके लिए पत्रकार खुद भी कम जिम्मेदार नहीं हैं। उनकी आपसी फूट और साथी पत्रकारों की टांग खींचने की आदत ने मालिकों को इतनी ताकत दी है। अगर पत्रकार एकता के साथ रहते तो क्या नेता और क्या मालिक, कोई भी उनका बुरा करना तो दूर, ऐसा करने की सोच भी नहीं पाता। आप किसी भी मीडिया संस्थान में चले जाएं, पत्रकारों में एकता आपको कहीं पर भी देखने को नहीं मिलेगी। अलबत्ता गुटबाजी और एक-दूसरे की टांग खींचते आपको कई पत्रकार मिल जाएंगे। इसी बात का फायदा मालिकों ने जमकर उठाया है। अब संपादक भी अधिकतर वे लोग बनते हैं, जो मालिकों की पसंद होते हैं। भले ही वे काबिल हों या नहीं हों। ऐसे संपादक मालिकों का ही हित साधते हैं। उन्हें अपने कर्मचारियों की हालत से कोई लेना-देना नहीं होता।

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अंत में मैं यह बात जरूर कहना चाहता हूं कि सभी पत्रकार साथी एकता के साथ काम करना सीखें। एक बनकर रहेंगे तो कोई कुछ बिगाड़ नहीं पाएगा। अपने पत्रकारीय हितों के लिए लड़ें। मीडिया घरानों की फर्जी कंपनियों में खुद को शामिल होने से हर हाल में बचाएं। अपने हक पर किसी को भी डाका नहीं डालने दें। नए साथियों से आग्रह करना चाहता हूं कि अपनी काबिलियत के बल पर आगे बढ़ें। किसी भी हाल में अपना शोषण नहीं होने दें। काबिल बनेंगे तो पचासों नौकरियां मिल जाएंगी। फर्जी कंपनियों में किसी भी तरह से ज्वॉइनिंग नहीं लें, क्योंकि इनका अनुभव कहीं भी मान्य नहीं होगा। बिना अनुभव प्रमाण-पत्र के आप सरकारी नौकरियों या अन्य नई कंपनियों में आवेदन नहीं कर सकेंगे। अखबार-चैनल की आड़ में छत्तीसों धंधे करने वाले मालिकों के सच को पहचानिए और इनके फालतू के ईमानदारी तथा नैतिकता के अग्रलेखों को कूड़ेदान में डालिए। अच्छा पढ़ेंगे-लिखेंगे तो जीवन में जरूर आगे बढ़ेंगे। सभी पत्रकार साथियों और मीडिया के क्षेत्र में आने युवाओं को मेरी हार्दिक शुभकामनाएं।

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