हिंदी के प्रख्यात आलोचक एवं साहित्यकार प्रभाकर श्रोतिय का गुरुवार की रात दिल्ली के सर गंगाराम अस्पताल में निधन हो गया. वे 76 वर्ष के थे तथा लंबे समय से बीमार चल रहे थे. वे अपने पीछे पत्नी तथा एक पुत्र एवं पुत्री का भरापूरा परिवार छोड़ गए हैं. उनका अंतिम संस्कार हरिद्वार में किया जाएगा. प्रभाकर क्षोत्रिय ने हिंदी की कई प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिकाओं का संपादन किया. क्षोत्रिय के निधन से हिंदी साहित्य जगत को गहरा धक्का पहुंचा है.
डॉ. प्रभाकर क्षोत्रिय का जन्म मध्य प्रदेश के जावरा में 19 दिसंबर 1938 को हुआ था. उज्जैन में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह भोपाल के हमीदिया कालेज में शिक्षक नियुक्त हो गए थे. उन्होंने हिंदी में पीएचडी एवं डीलिट की थी. हिंदी पट्टी में उनकी गिनती जाने-माने आलोचक और नाटककार के तौर पर होती थी. हिंदी आलोचना के अलावा उन्होंने साहित्य और नाटकों को भी एक नई दिशा प्रदान की.
क्षोत्रिय जी सबसे पहले मध्य प्रदेश साहित्य परिषद के सचिव एवं ‘साक्षात्कार’ व ‘अक्षरा’ के संपादक रहे. इसके अलावा वे भारतीय भाषा परिषद के निदेशक एवं ‘वागर्थ’ व ‘नया ज्ञानोदय’ के संपादक पद पर कार्य करने के साथ-साथ भारतीय ज्ञानपीठ नई दिल्ली के निदेशक पद पर भी रहे. प्रभाकर क्षोत्रिय बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी रहे और उन्होंने साहित्य की लगभग सभी विधाओं में अपनी कलम चलाई, लेकिन हिंदी साहित्य में आलोचना, निबंध और नाटक के क्षेत्र में उनका योगदान अविस्मरणीय है.
उनकी प्रमुख आलोचनात्मक कृतियों में ‘सुमनः मनुष्य और स्रष्टा’, ‘प्रसाद का साहित्यः प्रेमतात्विक दृष्टि’, ‘कविता की तीसरी आख’, ‘संवाद’, ‘कालयात्री है. इसके अलावा कविता’ संग्रह में ‘रचना एक यातना है’, ‘अतीत के हंसः मैथिलीशरण गुप्त’, जयशंकर प्रसाद की प्रासंगिकता’. ‘मेघदूतः एक अंतयात्रा, ‘शमशेर बहादुर सिंह’, ‘मैं चलूं कीर्ति-सी आगे-आगे’, ‘हिंदी – कल आज और कल’ प्रमुख कृतियां रहीं. इसके साथ ही हिंदीः दशा और दिशा’, ‘सौंदर्य का तात्पर्य’, ‘समय का विवेक’, ‘समय समाज साहित्य’ भी प्रमुख कृतियां रहीं. जबकि नाटक ‘इला’, ‘साच कहू तो…’, ‘फिर से जहापनाह’, जैसा अविस्मरणीय निबंधों को भी लिखा.
प्रभाकरजी के निधन पर देश भर के हिंदी साहित्यकार एवं पत्रकारों ने सोशल मीडिया पर अपने-अपने तरीके से याद किया. जनसत्ता के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार एवं साहित्यकार ओम थानवी ने लिखा है : ”वरिष्ठ हिंदी आलोचक और अनेक साहित्यिक पत्रिकाओं के सम्पादक रहे डॉ प्रभाकर श्रोत्रिय नहीं रहे। महभारत पर उनका बड़ा काम है। वे 76 वर्ष के थे और कुछ समय से ज़्यादा ही अस्वस्थ चले आ रहे थे। उनसे पहले-पहल 1984 में बरगी नगर (मध्यप्रदेश) में मिलना हुआ था, जब अज्ञेय जी ने वहां पांचवा वत्सल निधि शिविर आयोजित किया। बरसों बाद जनसत्ता आवास में उनके पड़ोस में रहने का सुख हासिल था। पीटर ब्रुक की तीन घंटे लम्बी नाट्य-फ़िल्म ‘महाभारत’ (मूल प्रस्तुति नौ घंटे) उन्होंने हमारे यहा एकाधिक बार देखी। मैंने बाद में उसकी प्रति तैयार कर उन्हें भेंट की थी। जब उनकी ‘महाभारत’ छप कर आई तो उसे देने स्वयं आए। जब स्वस्थ थे जनसत्ता आवास में शाम को सैर की फेरी लगाते थे। बाइपास के बाद तो नियमित रूप से। उस रास्ते पर उनकी पदचाप हमें लम्बे समय तक सुनाई देती रहेगी।”