प्रभाष परंपरा न्यास द्वारा आयोजित कार्यक्रम पर जनसत्ता के कुछ पुराने लोगों की चर्चा…. प्रभाष प्रसंग में नहीं जा सका। अफ़सोस था। फिर फेसबुक पर किसी का लिखा ये पढ़ा और अफ़सोस कम हुआ: “अभी वरिष्ठ पत्रकार एवं पर्यावरणविद् डॉ. क्लॉड अल्वारेस का ‘गणेश और आधुनिक बुद्धिजीवी’ विषय पर प्रभाष परंपरा न्यास द्वारा आयोजित कार्यक्रम में व्याख्यान चल रहा है। वे महत्वपूर्ण बात कह रहे हैं, “वैसे तो मेरे परिचय में कहा जाता है कि मैं ‘रोमन कैथोलिक’ हूं लेकिन रोम से हमारा क्या लेना-देना, वास्तव में मैं ‘हिंदू क्रिश्चियन’ हूं, क्योंकि मेरे पूर्वज हिंदू थे और मैं मानता हूं कि जो भारत में रहता है वह सब हिंदू है।”
सबको हिंदू घोषित करने की ये बीमारी भारत को कहीं पाकिस्तान न बना दे!
उन्होंने और भी दिलचस्प बातें कहीं। चूक गए। अफसोस करो। कहीं हिंदू राष्ट्र तो घोषित नहीं कर दिया?
उन्होंने बताया कि बैगन की 3500 प्रजातियां हैं और चावल की 350000। लग रहा था हम पूसा इंस्टीट्यूट में बैठे हैं।
अच्छा। और ये कि ये सब प्रजातियाँ आर्यावर्त ने ही विश्व को दीं। जिन्हें अब मोन्सान्टो बेच रहा है जैसे बोईंग ने पुष्पक विमान का ब्लूप्रिंट चुरा लिया था और अब मज़े कर रहा है।
बिल्कुल। अगर तुम वहां नहीं थे। फिर भी पता है तो ये पार्टी लाइन का ही मामला लगता है।
उन्होंने बताया कि प्रधानमंत्री ने ठीक कहा था कि गणेश जी की प्लास्टिक सर्जरी हुई थी। लोगों ने उनका मजाक उड़ाया पर कोई उनके बचाव में नहीं आया। फिर बताया कि प्लास्टिक सर्जरी सबसे पहले भारत में ही शुरू हुई थी। बहुत ही ज्ञानवर्धक भाषण था।
अब अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं रहा। लेकिन वो तो एक हिस्सा भर था। बाकायदा – लैपटॉप प्रेजेंटेशन के जरिए (यह सब बताया गया)। प्रधानमंत्री जो कहते हैं ठीक ही कहते होंगे। (आज के आयोजन में) प्रभाष परंपरा न्यास की विविधता दिखी। प्रधानमंत्री के @#$%^^& का भरपूर, तर्कसंगत बचाव किया गया।
आज प्रभाष जोशी होते तो कल सुबह के जनसत्ता में ये सब सुनकर क्या लिखते? अब बस कल्पना ही कर सकते हैं। जीवित नहीं रह पाते। वो तो बहुत पहले की स्थितियां नहीं झेल पाए। पेड न्यूज ने ही उनकी बलि ले ली। ये सब उनके वश का नहीं था। राय साब का लिखा छपता। (जो छपा है पढ़ सकते हैं)।
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वे एनजीटी (नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल) में हैं ये भी तो है। शायद इसीलिए वहां वंदना शिवा भी थीं। इतना ही नहीं, वहां एक और सज्जन जिन्हें गैलिलियो प्राइज भी मिला और वे बच्चों को एक हफ्ते में maths समझा देने में समर्थ भी हैं (भी मौजूद थे)। दिग्गज आलोचक नामवर सिंह ने कहा हिन्दुस्तान में भुलाने का एक दौर रहा है। महत्वपूर्ण ये है कि तीसरा press commission जल्दी ही घोषित हो जाएगा।
अब उन्हीं की याद में पुनरुत्थानवादी डंका बजा रहे हैं। इससे भयानक और क्या हो सकता है। “संघ कबीले” पर प्रभाष जी के लिखे को न्यूट्रलाइज ऐसे ही किया जा सकता है। आज तो लगा कि प्रभाष जी (उनकी यादों को) संघ ने गोद ले लिया है। हालांकि एक ही व्यक्ति का भाषण खतरनाक था। बाकी झेलने लायक थे। कौन थे वो सज्जन? (यह सवाल गैलिलियो प्राइज विजेता के लिए है)। गणित के उस्ताद बताया। तीन दिन में कैलकुलस पढ़ा देने का दावा करते हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कृत हैं। नाम याद नहीं रहा। श्रोताओं में थे। (एक नाम, को संबोधित) उनकी योग्यता और तर्क शक्ति पर संदेश नहीं है। पर मौका और तथ्य …. प्रभाष जोशी को भी संघ ने एप्रोप्रिएट किया!!
प्रभाष जी ऐसे पोंगों के खिलाफ थे….अफ़सोस ये है कि उनकी मृत्यु के बाद उनके लिखे पर बात ही नहीं की जा रही है। और ये एक साज़िश के तहत हो रहा है। ठीक वैसे ही जैसे भगत सिंह की तस्वीर पर फूल चढ़ाने वाले नहीं चाहते कि भगत सिंह का लिखा पढ़ा जाए। बिलकुल यही बात है। हुआ तो लगभग वही। हालांकि, संदेह का लाभ देते हुए कहा जा सकता है कि आयोजकों की जिम्मेदारी वक्ता के चयन तक ही थी। और मंच पर जिस तरह राय साब उनके पास गए, और उन्होंने कई पन्ने (एक साथ) पलट दिए और अचनाक समय कम होने की बात कर उपसंहार करने लगे उससे लगता है कि आयोजकों की सहमति नहीं भी हो सकती है। और उनसे बाकायदा जल्दी समाप्त करने के लिए कहा गया हो। क्या प्रभाष जी के लेखन पर एक कार्यशाला आयोजित नहीं करनी चाहिए ताकि उनको सिर्फ़ एक परंपरा-प्रेमी संपादक के तौर पर प्रोजेक्ट करने के षड्यंत्र को कुछ तो रोका जा सके।
मेरा सवाल है: आज प्रभाष जोशी के व्यक्तित्व पर बात करना ज़्यादा प्रासंगिक है या उनके लेखन पर? अगर कोई उनके लेखन पर चुप्पी साधे है और सिर्फ़ उनके व्यक्तित्व पर पुष्पांजलि देना चाहता है तो मुझे इसमें षड्यंत्र साफ़ नज़र आता है। आयोजकों की नीयत पर मुझे शक नहीं है। प्रभाष जी के लेखन पर जरूर बातचीत होनी चाहिए। उनके लेखन में जो बदलाव आया उस पर भी सोचा जाना चाहिए। ये शोध की बात है। आयोजक-प्रायोजक तो अपना नफा-नुकसान देखेगा ही। किसी फेसबुकिया की सन्दर्भ से काट कर की गई आधी-अधूरी रिपोर्टिंग से पूरे आयोजन के बाबत निष्कर्ष निकाल कर फ़तवा देने की हड़बड़ी क्यों? विद्वतजनों से सादर फतवा यहां कौन किसको देगा। कौन नवसिखुआ है। पर ब्रेकिंग न्यूज का अलग मजा है। इसे झेलना सीखना ही होगा। टन टना टन्न लगता है कानों में … सोच समझ कर बैलेंस करके लिखा पढ़ने में कहां मजा आएगा।
……. भाई ने मुद्दे की बात उठाई है ………
प्रभाष जी के जमाने में ही संघमार्का हिंदू वादियों की भरमार थी। अब उस इतिहास में क्या कोई संशोधन मुमकिन है? मैं सिर्फ़ और सिर्फ़ प्रभाष जी के लेखन को इस दौर में फिर से याद करने की गुज़ारिश कर रहा हूँ। हम प्रभाष जी को ज़रूर याद रखें पर उनके लेखन को पशेपर्दा करना एक साज़िश से कम नहीं है। ज़िम्मेदार कोई भी हो। एक गोष्ठी सिर्फ़ उनके लिखे पर होनी चाहिए। इस पर नहीं कि वो कितने महान संपादक थे। प्रभाष जी को महान उनके लेखन और विचार ने बनाया। इसका ध्यान रखा जाए। प्रभाष जी के लेखन पर चर्चा उत्तम आइडिया है …….. ।
(बगैर अनुमति उद्धृत किया जा रहा है इसलिए नाम जानबूझ कर हटा दिए गए हैं। हालांकि, चर्चा सार्वजनिक और सबकी जानकारी में रिकार्डेड है।)
लेखक संजय कुमार सिंह जनसत्ता अखबार में लंबे समय तक काम कर चुके हैं और सोशल मीडिया पर अपने बेबाक लेखन / टिप्पणियों के लिए जाने जाते हैं.