Connect with us

Hi, what are you looking for?

प्रिंट

प्रदीप प्रसंग-1 : भारत के सबसे बड़े और अति प्रतिष्ठित मीडिया संगठन में नौकरी पाने के कुछ महीने बाद ही छोड़ देना अक्लमंदी नहीं थी!

प्रदीप कुमार-

नवंबर १९७८ में नवभारत टाइम्स, दिल्ली में चयन हो जाने के बाद लगा था कि कुबेर का खजाना हाथ लग गया है। ‘ नवजीवन ‘ के तत्कालीन संपादक कृष्ण कुमार जी, कुछ अन्य सहयोगियों, वीरेंद्र यादव और नदीम सरीखे मित्रों को छोड़ इसकी अहमियत सिर्फ रानी की समझ में आई थी।

उस समय के हिसाब से वेतन अच्छा था लेकिन कड़वी हकीकत दो महीने बाद ही सामने आने लगी थी। मैं एक साल के बेटे सौरभ, रानी, अम्मा और छोटी बहन मधु को लखनऊ में ही छोड़ आया था। रानी नौकरी कर रही थीं, पर उनकी पगार घर के खर्च के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसलिए मैं आधा वेतन घर भेज दिया करता था। बाकी आधे में जैसे-तैसे मेरा काम चलता था। दिल्ली आने से पहले ‘ नवजीवन ‘ के एक वरिष्ठ सहयोगी ने सुझाव दिया था कि दिल्ली में राजवल्लभ ओझा से ज़रूर मिलूँ। मैं हफ्ते में औसतन दो बार उधर से निकलता था। हर बार सोचता, ओझा जी से मिलना है। एक दिन बिना किसी पूर्व योजना के बाराखंभा रोड के बस स्टॉप पर उतर गया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

भारत में सोवियत संघ के दूतावास का सूचना केंद्र २५, बाराखंभा रोड पर था। दस कदम की दूरी पर ‘ स्टेट्समैन ‘ की पुरानी शैली की शानदार बिल्डिंग थी। और भी कार्यालय थे। लेकिन बाराखंभा रोड की व्यापक पहचान सोवियत सूचना केंद्र की वजह से बनी। बाराखंभा रोड का मतलब ही होता था, सोवियत सूचना केंद्र। कुछ मिनट झिझकने के बाद मैं रिसेप्शन में खड़ा था।रिसेप्शनिस्ट ने मंतव्य पूछने के बाद किसी के साथ मुझे ओझा जी के चैंबर तक पहुँचा दिया। इस पहली मुलाकात से जो स्नेह संबंध बना,वह उनकी अंतिम साँस तक बना रहा। इसका एक कारण यह भी था कि ‘ नवजीवन ‘ के अपने.दिनों में ओझा जी और मेरे स्वर्गीय ससुर राजबहादुर जी अच्छे मित्र थे। राजबहादुर जी सर्कुलेशन मैनेजर थे और ओझाजी समाचार संपादक। दोनों प्रगतिशील।

ओझा जी उसी दिन शाम को ड्यूटी के बाद प्रेस एन्क्लेव, साकेत स्थित अपने फ़्लैट पर ले गए। अब किसी औपचारिकता की गुंजाइश नहीं बची थी।

Advertisement. Scroll to continue reading.

कुछ ही दिन बीते होंगे, ओझा जी ने फोन पर कहा, आज शाम को आफिस आ जाओ, तुम्हें दिल्ली घुमाता हूं। पहली बार नाथू स्वीट हाउस में उनके साथ बैठकर मैं बंगाली मार्केट घूमा । अगले दिन उन्होंने सुबह बुलाया था। उन दिनों कंपूचिया का मसला ज्वलंत था। स्तालिन और माओ त्सेतुंग की खूनी परंपरा में ३० लाख से अधिक कंपूचियाई जनता के हत्यारे, चीन समर्थक, पोल पोत की सरकार से निजात दिलाने के लिए विएतनाम की सेना कंपूचिया में प्रवेश कर चुकी थी। विएतनाम की पीठ पर सोवियत संघ का हाथ था। चीन, अमेरिका और अन्य नाटो देश पोल पोत सरकार के साथ थे। ओझा जी ने इस विषय पर लेख लिखने को कहा। मैंने उन्हीं के चैंबर में बैठे-बैठे, बगैर किसी संदर्भ सामग्री के लिख दिया। तीन दिन बाद वह लेख किसी अन्य नाम से एक बड़े हिंदी अखबार में छपा।

तब हिंदी के सबसे साधन संपन्न अखबार, नवभारत टाइम्स में एक लेख का पारिश्रमिक पचास रुपये था। ओझा जी ने उस लेख के लिए दो सौ रुपये दिए थे। मैं समझ गया था। वह अंतरराष्ट्रीय मामलों की मेरी समझ और सोवियत प्रचार तंत्र में मेरी उपयुक्तता की परीक्षा ले रहे थे। वह लेख छपने के बाद उन्होंने एक रूसी से मिलवाया।इसके बाद नौकरी का प्रस्ताव रख दिया।

Advertisement. Scroll to continue reading.

तंगहाली में, नवभारत टाइम्स में मिल रहे वेतन से ढाई गुने के ऑफर में प्रबल आकर्षण था पर मेरे जीवन का अनुभव यह था कि अदबदा कर कोई चीज़ न तो स्वीकार करनी चाहिए और न अस्वीकार। भारत के सबसे बड़े और अति प्रतिष्ठित मीडिया संगठन में नौकरी पाने के कुछ महीने बाद ही छोड़ देना अक्लमंदी नहीं थी, पैसा भले ही कम मिल रहा हो। दो दिन बाद मुझे लखनऊ जाना था। मैंने सोचा, अम्मा और रानी से राय लेने के बाद ओझा जी को अपने फैसले की जानकारी दूंगा।

अम्मा की देसी बुद्धि प्रायः सही बैठती थी और रानी तो प्रेस के माहौल में पली ही थीं। अम्मा ने मना कर दिया। रानी ने कहा , नवभारत टाइम्स की सोने जैसी नौकरी छोड़ने का विचार ही न करो, ओझा जी से कहो कि हर महीने अतिरिक्त आमदनी के लिए काम देते रहें। मेरे मन में यह भी था कि २९ साल की उम्र में पत्रकारिता से इश्किया रिश्ता तोड़कर विदेशी दूतावास की नौकरी में फंसे,.तो यहीं बंधकर रह जाएंगे।आज सोवियत संघ से भारत की दोस्ती है,कल न रहे तो क्या होगा!

Advertisement. Scroll to continue reading.

लखनऊ से लौटते ही मैंने ओझा जी के सामने अपना काउंटर प्रस्ताव इस तरह रखा : आप मेरी पत्नी को बेटी की तरह मानते हैं। क्या दामाद को बेनेट कोलमैन की पक्की नौकरी छोड़ने की सलाह देंगे ? उन्होंने अपनी चिर-परिचित स्टाइल में ठहाका लगाते हुए कहा, ‘ तुमने तो मुझे फंसा दिया। ” फिर जवाब दिया-‘ ठीक है, नवभारत टाइम्स की नौकरी मत छोड़ो और उसके साथ ही हमसे सहयोग करते रहो। उन्होंने कहा, ट्रांसलेशन-वांसलेशन तो हम लोग पार्टी की तरफ से आने वाले लोगों को पकड़ा देते हैं। तुम्हारे लिए कोई शानदार योजना तैयार करते हैं ,दो-चार दिन बाद मेरे फोन का इंतज़ार करो।

अगले सप्ताह वह मुझे उनके आफिस से पांच मिनट की दूरी पर स्थित युनाइटेड कॉफी हाउस ले गए। रूसी इंचार्ज से बात करने के बाद ओझा जी ने यह योजना पेश की : सोवियत विदेश नीति और भारत-सोवियत मैत्री के तकाजों के अनुरूप मैं महीने में चार लेख लिखूँ और हर लेख के २०० रुपये मिलेंगे। यह मेरे लिए चुटकी बजाने जैसा काम था। टाइम्स ऑफ इंडिया की लाइब्रेरी में आमतौर से अनुपलब्ध पुस्तकें और फॉरेन अफेयर्स, फॉरेन पॉलिसी, एशियन सर्वे व इंटरनेशनल सिक्युरिटी सरीखी अंतरराष्ट्रीय पत्रिकाएँ रहती थीं। अमेरिकन लाइब्रेरी का सदस्य मैं था ही। इन सुविधाओं का भरपूर लाभ उठाते हुए मैं हर महीने चार लेख ओझा जी को नियमित रूप से देने लगा। ११०० रुपया वेतन पाने वाला मैं इसे मंथली लॉटरी मानने लगा था।

Advertisement. Scroll to continue reading.

दिल्ली में पांच वर्ष के प्रवास की पूरी अवधि में यह व्यवस्था चलती रही। इससे परिवार की आर्थिक संरचना बदलने में निर्णायक मदद मिली। पांच वर्ष टिक जाने की भी एक कहानी है। अकसर चर्चा होती रहती थी कि लखनऊ से नवभारत टाइम्स निकलने वाला है। दिल्ली जैसे महानगर में आकर एक औसत कस्बाई व्यक्ति में जो आशंकाएं,भय और असुरक्षाएं होती हैं, मुझमें वे सब थीं। घर की जिम्मेदारियां भी थीं, इसलिए लखनऊ वापसी का मन और भी था। इंतज़ार लंबा हो गया। नवंबर १९८३ में लखनऊ से नवभारत टाइम्स का प्रकाशन शुरू होने पर यह संभव हो पाया।

जारी…

Advertisement. Scroll to continue reading.
Click to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Advertisement

भड़ास को मेल करें : [email protected]

भड़ास के वाट्सअप ग्रुप से जुड़ें- Bhadasi_Group

Advertisement

Latest 100 भड़ास

व्हाट्सअप पर भड़ास चैनल से जुड़ें : Bhadas_Channel

वाट्सअप के भड़ासी ग्रुप के सदस्य बनें- Bhadasi_Group

भड़ास की ताकत बनें, ऐसे करें भला- Donate

Advertisement