Abhishek Srivastava : पिछले दो महीने से समकालीन तीसरी दुनिया का प्रकाशन नहीं हो पा रहा था। अब अक्टूबर-दिसंबर, 2016 का संयुक्तांक आपके सामने है। भारी मन से यह बताना पड़ रहा है कि पिछले 35 वर्षों से रुक-रुक कर निकल रही और पिछले करीब छह वर्ष से नियमित निकल रही यह पत्रिका इस अंक के बाद नहीं निकल पाएगी। ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ दो साल पहले ही बंद हो जाती अगर कुछ सरोकारी पाठकों और शुभचिंतकों ने लगातार आर्थिक मदद नहीं की होती। करीब डेढ़ वर्ष पहले एक अपील जारी की गई थी और यह कहा गया था कि कोई समूह इसकी वैचारिकी के साथ छेड़छाड़ किए बगैर इसका प्रकाशन अपने हाथ में ले सके तो बेहतर हो, लेकिन यह भी मुमकिन नहीं हो सका।
इसके बाद बंदी की आशंका के मद्देनज़र पाठकों से वार्षिक शुल्क लेना बंद कर दिया गया। अब यह आखिरी अंक आपके सामने है। इस अंक के इनसाइड कवर पर पत्रिका के बंद होने के संबंध में एक आवश्यक सूचना संपादक Anand Swaroop Verma की ओर से दी गई है। इसे स्थायी बंदी न माना जाए, बल्कि यह प्रकाशन का स्थगन है। यह स्थगन कब तक चलता है, यह इससे तय होगा कि ऐसी पत्रिका की जिन्हें आज वास्तव में ज़रूरत है, वे किस स्तर पर इसमें योगदान देने को भी तैयार हैं। अगर हिंदी के पाठकों को वाकई ऐसी किसी पत्रिका की ज़रूरत नहीं रही, तो फिर इसे बंद ही हो जाना चाहिए।
Abhishek Ranjan Singh : ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ एक जनपक्षधर पत्रिका है. मेरी कई ग्राउंड रिपोर्ट इसमें प्रकाशित हुई हैं. इस पत्रिका में छपने का एक अपना आनंद है, जो किसी दूसरी पत्र-पत्रिकाओं में संभव नहीं है. आज अक्टूबर-दिसंबर, 2016 का संयुक्तांक मिला, लेकिन इस दुःखद सूचना के साथ कि यह पत्रिका इसके बाद नहीं निकल पाएगी. बेशक, मौजूदा समय में पत्र-पत्रिका निकालना एक युद्ध लड़ने के समान है. संपादक आनंद स्वरूप वर्मा एक ऐसे ही योद्धा हैं, जो तमाम आर्थिक संकटों के बीच इस पत्रिका को निकालते रहे. बावजूद हम आशा करते हैं कि पत्रकारिता की ऐसी धारा अविरल बहती रहे. ‘समकालीन तीसरी दुनिया’ के इस संग्रहणीय अंक में बड़कागांव गोलीकांड से संबंधित मेरी ग्राउंड रपट भी शामिल है….
पत्रकार अभिषेक श्रीवास्तव और अभिषेक रंजन सिंह की एफबी वॉल से.