अम्मा भी अखबार के जैसी रोज सुबह
पन्ना-पन्ना घर भर में बंट जाती हैं
ये दो लाइनें किसी का भी मन बरबस अपनी ओर खींचने को काफी हैं। कितनी गहराई है इन दो लाइनों में। कोई गंभीर पत्रकार जब शायर या गज़लकार के रूप में सामने आता है तो कुछ ऐसे ही गजब ढाता है। गजल, शायरी में अपनी अलग किस्म की पहचान रखने वाले प्रताप सोमवंशी के सौ शेर प्रकाशित हुए हैं।
हिन्दुस्तानी साहित्य की पत्रिका ‘गुफ्तगू’ ने इसे प्रकाशित किया है। एक से बढ़कर एक उम्दा शेर। खासियत यह कि इसे पढ़ते हुए ज्यों-ज्यों आगे बढ़ते हैं, ऐसा लगता है कि पहले वाले से ये शेर ज्यादा बेहतर है… रचनाओं का बेहतर खजाना। शुरू में ही पहला शेर अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराता है। अब इसके आगे का शेर-
लायक कुछ नालायक बच्चे होते हैं
शेर कहां सारे ही अच्छे होते हैं।
केवल लिखना भर ही नहीं, लिखने के बाद, अगर खुद पढ़ते हुए रचनाकार को वो कमतर लगे तो कम-बेसी का अहसास तो होने लगता ही है। शायद रचनाकार को भी इसका आभास होने लगता है- ‘लायक कुछ नालायक बच्चे होते हैं…’। ईमानदारी के साथ, बेधड़क सच को स्वीकारने में भी वे पीछे नहीं हटते। सजग रचनाकार की ये पहचान भी होती है। रचना की तुलना अपने बच्चों के होने जैसा करना, रचना की गंभीरता को दर्शाता है। अलग-अलग मायने में उकेरे गए शब्द-चित्र जो शेरों-शायरी की इस तरह की भी शक्ल अख्तियार कर लिए हैं।
दो दशक से ज्यादा पत्रकारीय अनुभवों से रूबरू होना, उसे सहेजना, शब्दों का खिलंदड़पन, ये सब प्रतापजी की आदत में शुमार है। इनको करीब से जानने वाले ये मानते हैं कि पैनी दृष्टि, संदर्भित विषयों की अच्छी पकड़, शब्दों और भावों की बेहतरीन प्रस्तुतियों के लिए प्रताप भाई पहले से ही ‘ख्यात-कुख्यात’ रहे हैं। जनसत्ता से लेकर कई बड़े अखबारों में प्रभावी और यादगार रिपोर्टिंग करने वाले प्रताप सोमवंशी की मजबूत पकड़ गजल-शायरी लेखन के क्षेत्र में भी उतनी ही मजबूत है।
सद्यः प्रकाशित इनके सौ शेर पढ़ते समय ये बात फिर से एक बार साबित हो जाती है। लेखकीय अनुभवों का एक बड़ा खजाना मौजूद है प्रताप सोमवंशी के पास। अलग-अलग विषय, अलग-अलग बिंब, प्रतीक, शब्द-शिल्प देखने के बाद मजबूत पकड़ होने वाले दावे को और ज्यादा बल मिलता है। शेर संग्रह में जीवन की विसंगतियों, उतार चढ़ाव, सामाजिक विद्रूपता का सुंदर उदाहरण मिलता है, साथ ही सच के एकदम नजदीक ही दिखता है। देखिये इन शेरों को आप भी मान जाओगे।
राम तुम्हारे युग का रावण अच्छा था
दस के दस चेहरे सब बाहर रखता था
झूठ पकड़ना कितना मुश्किल होता है
सच भी जब साजिश में शामिल होता है
लक्ष्मण रेखा भी आखिर क्या कर लेगी
सारे रावण घर के अंदर निकलेंगे
गमछे बिछा के सो गयी घर की जरूरतें
जागी तो साथ हो गयीं घर की जरूरतें
इससे जियादा मां को चाहिए भी क्या
बच्चों के दरमियान मुहब्बत बची रहे
गालियों की तरह ही लगती है
ये जो नकली-सी मुस्कराहट है
कवि-शायर को अक्सर खुद से भी लड़ना पड़ता है। कई मौके ऐसे भी आते हैं, जब वैचारिक द्वंद्वों की मुठभेड़ किसी सर्जिकल स्ट्राइक से कम नहीं साबित होती। कुछ उदाहरण साफतौर पर मिलते हैं-
खुद को कितनी देर मनाना पड़ता है
लफ्जों को जब रंग लगाना पड़ता है
बेबसी हो मुफलिसी हो या दूसरी मजबूरियां
रोकती हैं ये सभी अक्सर मगर बोलूंगा मैं
रात और नींद रोज लड़ते रहे
और ख्वाबों ने खुदकुशी कर ली
तुममें सुनने का सब्र जब न रहा
मैंने बातों में ही कमी कर ली
आ जाएगा आसानी से अब मुझको संभलना
आदत तेरी मेरे लिए ठोकर की तरह है
प्रताप सोमवंशी के सौ शेर में ज्यादातर भोगे हुए यथार्थ और सच के एकदम करीब दिखते हैं-
आ जाए कौन कब कहां कैसी खबर के साथ
अपने ही घर में बैठा हुआ हूं मैं डर के साथ
सूरज की रोशनी में यह बातें याद रखना
डेहरी से जब बढ़ोगे परछाइयां भी होंगी
रेस में होंगी सड़क पर जिंदगी की गाड़ियां
एक अस्सी तो होगी एक की रफ्तार सौ
एक बूढ़ा जो दुखों का पूरा दस्तावेज है
वो बहाने, वायदे, धोखा लिए मिलता है रोज
नीचे के लिखे ये शेर भी देखिये जो मौजूदा सामाजिक विद्रूपताओं का बेहतरीन उदाहरण तो मिलता है साथ ही व्यवस्था पर ये तंज भी कसता है-
उनकी झोली में भलाई के हैं किस्से कितने
बात करते हैं मिसालों से घिरे रहते हैं
साहब जी ने ऐब तलाशे
हमने जब अधिकार तलाशा
उस दिन हम अपने आप पे काबू न रख सके
जिस दिन लिपट के रो गईं घर की जरूरतें
मीठे लोगों से मिलकर हमने जाना
तीखे कड़वे अक्सर सच्चे होते हैं
रोटी की खातिर उसका जुनूं दब के मर गया
बचपन में ही डुबो गयीं घर की जरूरतें
एक भारत वो है जो भूख से मरता है रोज
एक वो भी है जहां पर रेस्तरां खुलता है रोज
मेरे दौर को कुछ यूं लिक्खा जाएगा
राजा का किरदार बहुत ही बौना था
सुना है तेरे नगर में
जो सच्चा है वही घबरा रहा है
कुल मिलाकर प्रताप सोमवंशी के ये सौ शेर संग्रह न सिर्फ अपनी दमदार उपस्थिति दर्ज कराते हैं, बल्कि अलग अलग मुकम्मल घटनाओं की उलाहनाभरी तहरीर होने का आभास भी कराते हैं। बेहतर…उम्दा… आमीन!
शिवा शंकर पांडेय
वरिष्ठ पत्रकार, इलाहाबाद
मोबाइल- 9565694757