प्रभात रंजन-
कोरोना काल को लेकर कई किताबें पढ़ी। अंग्रेज़ी नमिता गोखले का उपन्यास ‘ब्लाइंड मैट्रियार्क’, प्रवीण कुमार का उपन्यास ‘अमर देसवा’ लेकिन देवेश का उपन्यास ‘पुद्दन कथा’ सबसे बाद में पढ़ा। लेकिन इसकी तासीर अभी तक बाक़ी है।
गाँव देहात में कोरोना को लेकर क्या कहानी चल रही थी? उसके नैरेटिव को किस तरह गढ़ा-समझा जा रहा था? ग्रामीण समाज उससे किस तरह प्रभावित-अप्रभावित था इसको लेकर इतनी अच्छी कथा कहीं नहीं पढ़ी। इस लिहाज़ से यह किताब बहुत मौलिक है।
ऐसा लगता है जैसे किसी जादुई संसार में सैर पर निकल गए हों। भाषा वही पुरबिया। इस उपन्यास को पढ़ते हुए मैं लगातार यह समझने की कोशिश करता रहा कि नेपाल की सीमा के पास मेरे गाँव में क्या कुछ हुआ होगा? समाज में कैसी हलचल मची होगी, शादी-ब्याह में कैसे हुआ होगा, लॉकडाउन का क्या असर रहा होगा, लोगों ने कोरोना को किस तरह से लिया होगा?
न कहानी न भाषा कुछ भी कृत्रिम नहीं, सब कुछ सहज भाव से। कोई लेखकीय मुद्रा नहीं। बस बाइस्कोप के खेला की तरह यह उपन्यास चलता रहता है। पढ़ते हुए लगा जैसे अपनी आँखों के सामने सब कुछ घटित हो रहा हो। सबसे अच्छा लगा पुरबिया गाँव की मासूमियत पर पकड़। इससे सहसा रेणु की याद आई।
लेकिन यह कोई तुलना नहीं बस याद है। पढ़ने के बाद अफ़सोस हुआ कि इतने अच्छे किस्सागो ने पुद्दन की कथा इतनी कम क्यों लिखी।
आश्चर्य की बात यह है कि मैं इस किताब से पहले लेखक देवेश के बारे में बिलकुल नहीं जानता था। लेकिन अब उनके मेट्रोनामा का नियमित पाठक हो गया हूँ। बहुत अच्छा लिखते हैं और हर बार कोई नई बात निकाल लाते हैं।
मेरी सलाह मानें तो ‘पुद्दन कथा’ एकदम टू टाइट किताब है। पढ़िएगा तो उस ब्लैक हयुमर से आनंदित हो उठिएगा जिसमें यह युवा लेखक सिद्धहस्त है।
किताब का प्रकाशन राजकमल प्रकाशन समूह से हुआ है।