Abhishek Srivastava : Raman Raghav 2.0 को अगर उसके दार्शनिक आयाम में समझना हो, तो Slavoj Žižek को पढि़ए। इसे अगर आप कमर्शियल सिनेमा मानकर देखने जा रहे हों तो बीच के मद्धम दृश्यों में सोने के लिए तैयार रहिए। इस फिल्म में रमन का किरदार Badlapur (film) में लियाक़ के किरदार का एक्सटेंशन है। लोकप्रियता के लिहाज से भले ही इसे साइको-थ्रिलर का नाम दिया जा रहा हो, लेकिन यह बुनियादी तौर पर एक राजनीतिक फिल्म है जो एक आदतन अपराधी को हमारे समाज में मौजूद तमाम किस्म के अपराधियों के ऊपर प्रतिष्ठापित करती है। इस हद तक, कि फिल्म के अंत में रमन बोधिसत्व की भूमिका में आ जाता है- बोधिसत्व यानी निर्वाण का वह चरण जहां आपका कुकर्म कोई बुरी छाप नहीं छोड़ता, बल्कि आप दूसरे के कुकर्मों से उनको बरी करने की सलाहियत हासिल कर लेते हैं।
नैतिकता के स्तर पर देखें तो यह फिल्म बेहद अनैतिक और विद्रूप है- Anurag Kashyap की उधार और खिचड़ी शैली की एक विशिष्ट फिल्म, जिसमें अपराध के संगीनतर होते जाने के साथ उसका बोध खत्म होता जाता है। हर संगीन अपराध एक बीथोवन की सिम्फनी-सा सहज गुज़र जाता है। दो लोगों का क़त्ल करते हुए मुर्गा-चावल खाना और डकार मार के झटके में तीसरा क़त्ल कर देना अनुराग के ही बस की बात है। फिल्म निर्माण की दृष्टि से यह थोड़ा हटकर बेशक है, लेकिन एक अतीत के वास्तविक पात्र पर केंद्रित होने के नाते बायोपिक जैसी बनकर रह जाती है।
मुझे लगता है कि आज से बीस साल बाद इस समाज में हर किस्म की हिंसा के प्रति लोगों के पत्थरदिल होते जाने की वजहें जब खोजी जाएंगी, तब अनुराग कश्यप की फिल्में शोध का विषय होंगी। अनुराग बेहतर फिल्मकार होंगे, लेकिन फिल्मों का अगर थोड़ा भी असर समाज पर पड़ता होगा तो वे इस समाज को और ज्यादा विद्रूप, जघन्य, असंवेदी, हिंसक, असहिष्णु और मनोविकारी बनाने के लिए इतिहास में याद किए जाएंगे।
फिल्म और मीडिया समीक्षक अभिषेक श्रीवास्तव की एफबी वॉल से.
इसे भी पढ़ें….