Shukla SN : रवीश कुमार: भीड़ में एक चेहरा! मीडिया में आया हर पत्रकार रवीश जैसी चकाचौंध चाहता है, ग्लैमर चाहता है पर रवीश बनना आसान नहीं है. उन जैसे सरोकार तलाशने होंगे और उन सरोकारों के लिए एकेडिमक्स यानी अनवरत पढ़ाई जरूरी है. रवीश बताते हैं कि साहित्य या फिक्शन की बजाय वह इकोनामिक्स और सोशियोलाजी तथा साइसं पढ़ते हैं और इन्हीं विषयों की किताबें खरीदते हैं. उनकी किताब खरीद का बजट कोई दस हजार रुपये महीना है.
रवीश ने बिजली वाली स्टोरी करने के लिए बिजली के बारे में ही नहीं पढ़ा बल्कि इसके लिए बिजली से बनते-बिगड़ते अर्थशास्त्र को जानने के लिए उन्होंने अमेरिका से पांच हजार रुपये की एक किताब मंगवाई. इसी तरह कचरे पर अरबनाइजेशन पर वे निरंतर पुस्तकें पढ़ते रहते हैं. यह जरूरी भी है सरोकार का टारगेट समझना जितना आवश्यक है उतना ही आवश्यक उस सरोकार से होने वाले विकास को समझना. विकास एक द्विअर्थी शब्द है जिसका प्रतिक्रियावादी और प्रगतिकामी अलग-अलग अर्थ बताते हैं. एक विकास नरेंद्र मोदी का है तो दूसरा नीतीश कुमार का, अखिलेश यादव का और मायावती का. पर प्रश्न वही है कि आप किस तरह के सरोकारों के साथ खड़े हैं. (‘शुक्रवार’ मैग्जीन के अगले अंक में मेरे लेख “रवीश के सामाजिक सरोकार” से)”
वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला के फेसबुक वॉल से.