Shambhunath Shukla : मेनस्ट्रीम मीडिया, चाहे वह ‘जी’ टीवी हो, ‘आजतक’ हो या ‘एनडीटीवी’ अथवा हिंदुस्तान टाइम्स या टाइम्स ऑफ़ इंडिया सब कारपोरेट हाउस के चाकर है। आटो एक्सपो को ऐसी कवरेज दे रहे हैं मानों आज की सबसे बड़ी ख़बर किसी बहुराष्ट्रीय कंपनी के कारों की बिक्री ही है। यहाँ तक की वे वर्नाक्यूलर …
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साहसी पत्रकार यशवंत सिंह पर हमला करने वालों के विरुद्ध तत्काल कार्रवाई करे सरकार : शंभूनाथ शुक्ल
Shambhunath Shukla : वरिष्ठ पत्रकार Yashwant Singh पर हुए हमले पर पत्रकार जगत चुप है. असहिष्णुता को लेकर हल्ला-गुल्ला करने वालों ने भी एक शब्द नहीं कहा. जबकि यशवंत पर हमला सही में एक ज़मीनी पत्रकार पर हमला है. पत्रकारों की अपनी रोज़ी-रोटी और उसकी अपनी अभिव्यक्ति के लिए सिर्फ यशवंत सिंह ही लड़ रहे हैं. उन्होंने मीडिया हाउसेज और सत्ता की साठगाँठ की परतें उजागर की हैं.
वीपीआई हामिद अंसारी का विदाई समारोह : संजय राउत ने चुटकी ली- ‘राज्यसभा टीवी चलता रहे!’
Shambhu Nath Shukla : हामिद अंसारी साहब बहुत याद आएंगे। पूरे दस साल वे भारत के वाइस प्रेसीडेंट रहे और राज्य सभा में कड़क प्रिंसिपल की तरह। सबको डांटते रहे, लड़ियाते भी रहे। मगर आज विदाई के दिन उन्हें प्रिंसिपल का चोला उतार देना था। आज भी अपने सम्मान में वक्ताओं का समय भी उन्होंने ही तय किया और बीच-बीच में हड़काते भी रहे।
भारतीय रेल के लिए मोदी राज है ‘नर्क काल’, ताजा अनुभव सुना रहे वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला
Shambhunath Nath : कहीं रेलवे को बेचने की तैयारी तो नहीं!… आज रेलवे की भयानक अराजकता और रेल कर्मचारियों की लापरवाही के साक्षात दर्शन हुए। सुबह मुझे कानपुर शताब्दी (12033) पकड़कर वापस गाजियाबाद आना था। कानपुर स्टेशन से यह गाड़ी सुबह छह बजे खुलती है। कानपुर में मैं वहां जहां रुका था, वह जूही कलाँ दो के विवेक विहार डब्लू-टू का इलाका स्टेशन से करीब सात किमी होगा। सुबह पहले तो बुकिंग के बावजूद ओला ने धोखा दे दिया। वह कैब आई ही नहीं और ड्राइवर ने फोन तक नहीं रिसीव किया। तब मेरे बहनोई स्वयं मुझे छोडऩे आए। इस तरह दो लोगों की नींद में खलल पड़ा।
पत्रकारिता की राह पर शंभूनाथ शुक्ला का सफर… कुछ यादें, कुछ बातें
अतुल माहेश्वरी की पुण्य स्मृति : इतनी विनम्रता और संकोच शायद ही किसी मालिक में रहा होगा…
Shambhunath Shukla : नौकरी छोड़े भी चार साल हो चुके और अमर उजाला में मेरा कुल कार्यकाल भी मात्र दस वर्ष का रहा पर फिर भी उसके मालिक की स्मृति मात्र से आँखें छलक आती हैं। दिवंगत श्री अतुल माहेश्वरी को गए छह वर्ष हो चुके मगर आज भी लगता है कि अचानक या तो वे मेरे केबिन में आ जाएंगे अथवा उनका फोन आ जाएगा अरे शुक्ला जी जरा आप यह पता कर लेते तो बेहतर रहता। इतनी विनम्रता और संकोच शायद ही किसी मालिक में रहा होगा।
प्रॉपर्टी डीलरों को सदस्यता, पत्रकारों की बेदख़ली… यह है प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का सच!
कल दिल्ली स्थित प्रेस क्लब ऑफ इंडिया की वोटिंग है। मुझे एक संजीदा पत्रकार मानते हुए लोगबाग मुझे भी अप्रोच कर रहे हैं कि मैं उनके पैनल को वोट करूं। मगर मैं करूं तो कैसे, मेरा वोट ही कहां है? आज तक मुझे प्रेस क्लब के पदाधिकारियों ने यह जवाब नहीं दिया कि मुझे इस क्लब का सदस्य नहीं बनाने के पीछे उनका तर्क क्या है। क्या मैं उनके मानकों को पूरा नहीं करता? पिछले 33 साल से मैं पत्रकार हूं और वह भी श्रमजीवी। इंडियन एक्सप्रेस समूह में बीस साल रहा। 12 साल अमर उजाला में और पिछले 17 वर्षों से मान्यताप्राप्त पत्रकार हूं तथा आज भी यह मान्यता है। क्लब के मानकों के अनुरूप मेरी नियमित मासिक आय जो पहले दो लाख के करीब थी अब रिटायर होने के बाद घट अवश्य गई लेकिन पत्रकारीय पेशे से ही मुझे 50 हजार रुपये मासिक की आय तो आज भी है।
रेणुका शहाणे नाम की एक सामान्य और औसत दर्जे की अभिनेत्री ने सभी पत्रकारों का अपमान किया
Shambhunath Nath : रेणुका शहाणे नाम की एक सामान्य और औसत दर्जे की अभिनेत्री ने कल एक लिंक शेयर किया जिसमें उन्होंने बताया था कि पत्रकार कितने मूर्ख, जाहिल और अपढ़ होते हैं कि वे इंटरव्यू करते समय कोई होमवर्क करके नहीं आते। इसके बाद जैसे ही यह लिंक फेसबुक पर वायरल हुआ तमाम तरह के संघी, मुसंघी और सेकुलर संघी टूट पड़े पत्रकारों के बारे में कुछ भी आँय-बाँय-साँय लिखने लगे। लगभग सभी ने कहा कि पत्रकार दलाल होते हैं, पढ़े लिखे नहीं होते और मूर्खतापूर्ण बातें करते हैं और सारे के सारे पत्रकार दंभी होते हैं। लेकिन क्या वे महान संघी, मुसंघी और सेकुलर संघी लेखक, साहित्यकार, कलाकार, राजनीतिकार बताएंगे कि क्या आज देश में बाकी के पेशे उतने ही ईमानदार बचे हैं जैसे कि उनसे अपेक्षा की जाती है? क्या स्वयं रेणुका देवी जी बता सकती हैं कि वे भावाभिव्यक्ति में कितनी माहिर हैं और कितने तरह की भावाभिव्यक्ति की जा सकती है?
यूपी के जंगलराज से भयमुक्त होने के लिए वरिष्ठ पत्रकार ने अपनाया था यह नायाब तरीका
Shambhunath Shukla : तीव्र शहरीकरण किसी इलाके को हुआ है तो वह शायद एनसीआर का इलाका ही होगा। देखते ही देखते दिल्ली के करीब बसे नोएडा व गाजियाबाद में इस तेजी से बहुमंजिली इमारतें खड़ी हुई हैं कि यह पूरा इलाका कंक्रीट के जंगल में ही बदल गया है। इसमें भी गाजियाबाद जिले का इंद्रा पुरम इलाका तो अव्वल है। अभी ज्यादा दिन नहीं बीते जब यहां से गुजरने मेें दिन को भी डर लगता था। मैने यहां पर अपना 200 मीटर का एक भूखंड इसलिए गाजियाबाद विकास प्राधिकरण को वापस कर दिया था क्योंकि 1993 में उन्होंने इस भूखंड के लिए 264000 रुपये मांगे थे जो कि मेरे लिए बहुत ज्यादा रकम थी और मैने वह आवंटित भूखंड सरेंडर कर दिया।
दवा कंपनियों की माफियागिरी के खिलाफ बोलने की अखबारों और सरकारों में हिम्मत नहीं
Shambhunath Shukla : एलोपैथी दवा कंपनियां बड़े पूंजी घरानों के पास हैं और एलोपैथी के चिकित्सक उनके क्रीत दास। ये कंपनियां ही दिल्ली तथा समस्त मेट्रो टाउन्स के हाई-फाई अस्पताल भी चलाती हैं। नतीजा यह होता है कि इनके पालक डॉक्टर कम बीमार को घोर बीमार बता देते हैं और जिसका आपरेशन करने की जरूरत नहीं है उसे अपने चहेते अस्पताल के गंदे व इन्फैक्टेड ओटी में लिटा देते हैं। नतीजा यह होता है कि दस प्रतिशत रोगी इनके ओटी से बाहर आने के कुछ समय बाद दम तोड़ देते हैं।
रवीश कुमार हर महीने दस हजार रुपये की किताबें खरीदकर पढ़ जाते हैं!
Shukla SN : रवीश कुमार: भीड़ में एक चेहरा! मीडिया में आया हर पत्रकार रवीश जैसी चकाचौंध चाहता है, ग्लैमर चाहता है पर रवीश बनना आसान नहीं है. उन जैसे सरोकार तलाशने होंगे और उन सरोकारों के लिए एकेडिमक्स यानी अनवरत पढ़ाई जरूरी है. रवीश बताते हैं कि साहित्य या फिक्शन की बजाय वह इकोनामिक्स …
मैत्रेयी पुष्पा बनी हिंदी अकादमी की उपाध्यक्ष : अकादमिक चयन में केजरीवाल सरकार के कदम ज्यादा स्वीकार्य
एक अच्छी और लोकप्रिय सरकार का काम है कि कम से कम अकादमिक संस्थाओं में काबिल और अविवादास्पद लोगों को बिठाए। इन पर कैडर को बिठा देने का मतलब होता है कि सरकार के पास योग्य व्यक्तियों का अकाल है। एनडीए की पूर्व अटल बिहारी सरकार इस मामले में खरी उतरी थी। अकादमिक संस्थाओं में दक्षिणपंथी विद्वान बिठाए जरूर गए थे मगर उनकी योग्यता पर कोई अंगुली नहीं उठी थी। पर मोदी सरकार के वक्त ऐसे लोग बिठा दिए गए हैं जो योग्यता में बौने तो हैं ही विवादास्पद भी हैं।
जब खुद नेताओं ने पत्रकारों को बताया कि उनका सही नाम क्या है और इसे कैसे लिखा जाए
Shambhunath Shukla : ग्लासनोस्त दर्शन के प्रणेता और सोवियत संघ के कर्ताधर्ता मिखाइल गोर्बाचेव साल 1988 में भारत आए तो दिल्ली के सारे अखबारों को सोवियत सूचना केंद्र ने एक-एक पेज का विज्ञापन दिया। हमारे जनसत्ता को भी दिया गया। मगर उनका नाम गलत न छपे इसलिए कनाट प्लेस के बाराखंभा रोड स्थित सोवियत सूचना केंद्र का एक रूसी अधिकारी हमारे दफ्तर आया और उसने बताया कि साहब आप लोग हमारे नेता का नाम गलत लिखते हैं। उनका सही नाम गोर्बाचेव नहीं गोर्बाच्येव है।
जीवन जीने की आजादी देने वाले किसान की चिंता न सरकार को है, न विपक्षी नेताओं को और न शहरी मध्यवर्ग को
Shambhunath Shukla : हिंदुस्तान में पढ़ाई मंहगी है, इलाज मंहगा है और ऐय्याशी (शराबखोरी, होटलबाजी, शौकिया पर्यटन आदि-आदि) मंहगी है। लेकिन सबसे सस्ता है भोजन। आज भी मंहगे से मंहगा गेहूं का आटा भी 45 रुपये किलो से अधिक नहीं है और गेहूं 28 से अधिक नहीं। रोजमर्रा की सब्जियां भी 40 से ऊपर की नहीं हैं। अगर आप दिन भर में एक स्वस्थ आदमी की तरह 2400 कैलोरी ग्रहण करना चाहें तो भी अधिक से अधिक 50 रुपये खर्चने होंगे। मगर जो किसान आपको इतना सस्ता जीवन जीने की आजादी दे रहा है उसकी चिंता न तो सरकार को है न विपक्षी नेताओं को और न ही शहरी मध्यवर्ग को।
भाड़ में जाए यह जनसत्ता की नौकरी जो नवभारत टाइम्स व हिंदुस्तान से कम वेतन देता था
Shambhunath Shukla : 1983 में जब दिल्ली आया तो शुरू-शुरू में राजघाट के गेस्ट हाउस में रहा करता था। जनसत्ता के संपादक दिवंगत प्रभाष जोशी ने मेरा, राजीव शुक्ल और सत्यप्रकाश त्रिपाठी के रहने का इंतजाम वहीं पर करवा दिया था। उस गेस्ट हाउस की खास बात यह थी कि वहां पर लंच व डिनर में अरहर की दाल भी मिलती थी। यह दाल हमारी सबसे बड़ी कमजोरी थी। इतनी अधिक कि हम जनसत्ता की नौकरी छोड़ वापस कानपुर जाने की ठान रखे थे। और तब चूंकि दिल्ली के ढाबों में छोले-भटूरे व मां-चने की दाल के सिवाय कुछ नहीं मिलता था इसलिए हमने ठान लिया था कि हम कानपुर लौट जाएंगे।
रवीश की यही समझ उन्हें बड़ा बनाती है
Shambhunath Shukla : टीवी न्यूज चैनलों में Ravish Kumar एक शानदार एंकर ही नहीं है या वे महज न्यूज चयन में सतर्कता बरतने वाले बेहतर टीवी संपादक ही नहीं अथवा आम आदमी के सरोकारों के प्रति आस्था जताने वाले पत्रकार ही नहीं है वरन उनकी असल खूबी है उनकी सामाजिक सरोकारों के प्रति आस्था। एक ही उदाहरण काफी होगा जब कल उन्होंने एक वृद्घ से बात करते हुए कहा कि बेटियां न होतीं तो क्या होता! इस एक वाक्य ने हम पति-पत्नी को भिगो दिया। मुझे खुशी हुई यह सुनकर।
रवीश कुमार, ओम थानवी और वीरेंद्र यादव ने फेसबुक को अलविदा कहा!
Shambhunath Shukla : नया साल सोशल मीडिया के सबसे बड़े मंच फेस बुक के लिए लगता है अच्छा नहीं रहेगा। कई हस्तियां यहाँ से विदा ले रही हैं। दक्षिणपंथी उदारवादी पत्रकारों-लेखकों से लेकर वाम मार्गी बौद्धिकों तक। यह दुखद है। सत्ता पर जब कट्टर दक्षिणपंथी ताकतों की दखल बढ़ रही हो तब उदारवादी दक्षिणपंथियों और वामपंथियों का मिलकर सत्ता की कट्टर नीतियों से लड़ना जरूरी होता है। अगर ऐसे दिग्गज अपनी निजी व्यस्तताओं के चलते फेस बुक जैसे सहज उपलब्ध सामाजिक मंच से दूरी बनाने लगें तो मानना चाहिए कि या तो ये अपने सामाजिक सरोकारों से दूर हो रहे हैं अथवा कट्टरपंथियों से लड़ने की अपनी धार ये खो चुके हैं। इस सन्दर्भ में नए साल का आगाज़ अच्छा नहीं रहा। खैर 2015 में हमें फेस बुक में खूब सक्रिय साथियों- रवीश कुमार, ओम थानवी और वीरेंद्र यादव की कमी खलेगी।
आज ये कहना कि वे हमारे माल हैं, आरएसएस की बेहयाई है
सांप्रदायिकता पूंजीवाद और औद्योगिक सभ्यता की देन है। बाजार हथियाने के लिए बाजारवादी शक्तियां सांप्रदायिकता का हथकंडा अपनाती हैं। अपनी सांप्रदाकियता की धार को तेज करने के लिए वे अतीत को भी सांप्रदायिक बनाने का कुत्सित प्रयास करती हैं। इसमें कोई शक नहीं कि सामंती काल में भी मंदिर-मस्जिद ढहाए गए पर उसके पीछे सोच सांप्रदायिक नहीं विजित नरेश के सारे प्रतीकों को ध्वस्त करना था। हिंदू शासकों ने भी जब कोई राज्य जीता तो वहां के मंदिर तोड़े और पठानों व मुगलों ने भी जब कोई मुस्लिम राजा को हराया तब मस्जिदें भी तोड़ीं।
अटल बिहारी वाजपेयी ने ‘झाड़े रहो कलेक्टर गंज’ का अर्थ कुछ यूं समझाया…
कई लोगों ने मुझसे अनुरोध किया है कि फ्रेज झाड़े रहो कलेक्टर गंज का मतलब बताऊँ। तो खैर सुनिए। यह मुहावरा मैं भी बोला करता था। लेकिन मुझे नहीं पता था कि यह शुरू कहां से हुआ। इसलिए पूरा किस्सा सुनाता हूं। बात 1990 की है। राम मंदिर विवाद के चलते पूरा यूपी दंगे की आग में सुलग रहा था। मुझे अपने चचेरे भाई की शादी में शामिल होने के लिए कानपुर जाना था। तब नई दिल्ली स्टेशन से रात पौने बारह बजे एक ट्रेन चला करती थी प्रयागराज एक्सप्रेस। चलती वह अभी भी है लेकिन समय बदल गया है। तब नई-नई ट्रेन थी और सीधे बोर्ड द्वारा चलवाई गई थी इसलिए सुंदर भी थी और साफ-सुथरी भी। इसके थ्री टायर सेकंड क्लास में मेरा रिजर्वेशन था। और वह भी एक सिक्स बर्थ वाले कूपे में।
व्यापार मेला देखने अवश्य जाएं और इस एडवाइजरी पर गौर करें
कुछ संभलकर ही ट्रेड फेयर जाएं क्योंकि जो दिखता है वही सुंदर नहीं है! यह पोस्ट मैं नहीं भी डाल सकता था क्योंकि यह एक सामान्य-सी निजी घुमक्कड़ी है जिसे आप चाहें तो विंडो शापिंग भी कह सकते हैं। लेकिन डाल रहा हूं। दरअसल मुझे इस बात से कभी संतोष नहीं होता कि एक सामान्य दर्शक की भांति एक पत्रकार व्यवहार करे। पत्रकार के कुछ सामाजिक दायित्व होते हैं और चुनौतियां भी। वह महज एक प्रचारक या जस का तस दिखाने वाला, बताने वाला संजय नहीं कि हर धृतराष्ट्र उससे पूछे कि बताओ संजय क्या हुआ कुरुक्षेत्र में।
आजम खान : आह…. वाह….
Shambhu Nath Shukla : मैं भारतीय मुसलमानों की बौद्घिक क्षमता का कायल रहा हूं। मुझे याद है कि पक्के दक्षिणपंथी रजत शर्मा ने अपने कार्यक्रम ‘आपकी अदालत’ में ओवैसी को फँसाने की बड़ी कोशिशें की पर ओवैसी लगातार अपने दमदार तर्कों और बौद्घिक कौशल के तीर चलाकर उलटे रजत को ही निरुत्तर करते रहे। लेकिन जब मैं आजम खान के बयान सुनता हूं तो लगता है कि एक अनपढ़ और जाहिल आदमी भी उनसे तो बेहतर ही बोलता है। क्या उत्तर भारत के मुस्लिम राजनेता भी अपने हिंदू हमपेशा लोगों की तरह कूढ़मगज हैं। अच्छा ही है परस्पर हमजुल्फ जो हैं।
शताब्दी और राजधानी का किराया पिछली सरकार के मुकाबले ड्योढ़ा हुआ, सुविधाएं निल, नाश्ते-भोजन की क्वालिटी जस की तस
आज रिजर्वेशन कराया। यकीनन रेलवे कर्मचारियों का मिजाज सुधरा है पर रेलवे का मिजाज बिगड़ा है। शताब्दी व राजधानी का किराया डॉक्टर मनमोहन सिंह के जमाने से करीब-करीब ड्योढ़ा हो गया है। और सुविधाएं निल। नाश्ते व भोजन की क्वालिटी जस की तस है। वही पुराने दो पीस ब्राउन ब्रेड के और उतने ही बासी कटलेट नाश्ते में। मैले कप में घटिया-सी चाय और पनियल सूप।
संत रामपाल : ….यूं ही कोई इतना लोकप्रिय नहीं हो सकता!
मैं संत रामपाल को नहीं जानता न ही उनके दर्शन और अध्यात्म की उनकी व्याख्या से। पर वे खुद कहते हैं कि वे हिंदू नहीं हैं और खुद को ही परमेश्वर मानते हैं। हिंदुओं के लगभग सभी सेक्ट उनके खिलाफ हैं खासकर आर्य समाज से तो उनकी प्रतिद्वंदिता जग जाहिर है। वे कबीर साहब के आराधक हैं और मानते हैं कि वे इस दुनिया में आने वाले पहले गुरु थे। इसमें कोई शक नहीं कि संत रामपाल अपार लोकप्रिय हैं। उनके भक्त उनके लिए अपनी जान तक दे सकते हैं। संत परंपरा वैदिक अथवा ब्राह्मण परंपरा नहीं है। संत परंपरा श्रावक व श्रमण परंपरा तथा पश्चिम के सेमेटिक दर्शनों का घालमेल है। पर जो व्यक्ति संत की पदवी पा जाता है उसके भक्त उसको ईश्वर अथवा ईश्वर का दूत मानने लगते हैं।
हिंदी अखबार के उप संपादक छोकरे और अंग्रेजी अखबार की कन्या का लव जिहाद!
साल 1988 की बात है। मैं तब जनसत्ता में मुख्य उप संपादक था और उसी साल संपादक प्रभाष जोशी ने जनसत्ता के राज्यों में प्रसार को देखते हुए एक अलग डेस्क बनाई। इस डेस्क में यूपी, एमपी, बिहार और राजस्थान की खबरों का चयन और वहां जनसत्ता के मानकों के अनुरूप जिला संवाददाता रखे जाने का प्रभार मुझे सौंपा। तब तक चूंकि बिहार से झारखंड और यूपी से उत्तराखंड अलग नहीं हुआ था इसलिए यह डेस्क अपने आप में सबसे बड़ी और सबसे ज्यादा जिम्मेदारी को स्वीकार करने वाली डेस्क बनी। अब इसके साथियों का चयन बड़ा मुश्किल काम था। प्रभाष जी ने कहा कि साथियों का चयन तुम्हें ही करना है और उनकी संख्या का भी।
गैंग रेप के आरोपी निहालचंद को मोदी ने मंत्रिपद पर कायम रखकर क्या संदेश दिया है?
Om Thanvi : नरेंद्र मोदी के मंत्रिमंडल फैलाव में स्वागतयोग्य बातें हैं: पर्रीकर और सुरेश प्रभु जैसे काबिल लोग शामिल किए गए हैं। बीरेंद्र सिंह, जयप्रकाश नड्डा, राजीवप्रताप रूडी और राज्यवर्धन सिंह भी अच्छे नाम हैं। सदानंद गौड़ा से रेलगाड़ी छीनकर उचित ही सुरेश प्रभु को दे दी गई है। लेकिन स्मृति ईरानी का विभाग उनके पास कायम है। गैंग रेप के आरोपी निहालचंद भी मंत्रिपद पर काबिज हैं। अल्पसंख्यकों को लेकर प्रधानमंत्री की गाँठ कुछ खुली है, मगर मामूली; मुख़्तार अब्बास नक़वी को महज राज्यमंत्री बनाया है। वे वाजपेयी मंत्रिमंडल में राज्यमंत्री रह चुके हैं, जैसे रूडी भी।
क्यों मनाते हैं दिवाली?
शंभूनाथ शुक्ल : भाई Siddharth Kalhans ने पूछा है क्यों मनाते हैं दीवाली? मेरी मोटी बुद्धि में जो समाया है, वह यह है कि …
पीएम, सीएम, डीएम और लोकल थानेदार को बचा लेना, बाकी किसी के भी खिलाफ लिख देना
आज से 35 साल पहले जब आज के ही दिन मैने अखबार की नौकरी शुरू की तो अपने इमीडिएट बॉस ने सलाह दी कि बच्चा पीएम, सीएम, डीएम और लोकल थानेदार को बचा लेना। बाकी किसी के भी भुस भरो। पर वह जमाना 1979 का था आज का होता तो कहा जाता कि लोकल कारपोरेटर, क्षेत्र के एमएलए और एमपी के खिलाफ भी बचा कर तो लिखना ही साथ में चिटफंडिए, प्रापर्टी दलाल और मंत्री पुत्र रेपिस्ट को भी बचा लेना। इसके अलावा डीएलसी, टीएलसी, आईटीसी और परचून बेचने वाले डिपार्टमेंटल स्टोर्स तथा पनवाड़ी को भी छोड़ देना साथ में पड़ोस के स्कूल को भी और टैक्सी-टैंपू यूनियनों के खिलाफ भी कुछ न लिखना। हां छापो न गुडी-गुडी टाइप की न्यूज। पास के साईं मंदिर में परसाद बटा और मां के दरबार के भजन। पत्रकारिता ने कितनी तरक्की कर ली है, साथ ही समाज ने भी। सारा का सारा समाज गुडी हो गया।
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‘अच्छे दिन’ का नारा लगा मोदी केंद्र की सत्ता तक पहुंचे पर इन साढ़े चार महीने में हालात बद से बदतर हुए हैं
Shambhu Nath Shukla : केंद्र में नरेंद्र मोदी की सरकार बने साढ़े चार महीने होने को जा रहे हैं। मैने आज तक मोदी के कामकाज पर कोई टिप्पणी नहीं की और न ही कभी उनके वायदों की खिल्ली उड़ाई। मैं न तो हड़बड़ी फैलाने वाला अराजक समाजवादी हूं न एक अभियान के तहत मोदी पर हमला करने वाला कोई माकपाई। यह भी मुझे पता था कि मेरे कुछ भी कहने से फौरन मुझ पर कांग्रेसी होने का आरोप मढ़ा जाता। लेकिन अब लगता है कि मोदी के कामकाज पर चुप साधने का मतलब है कि आप जानबूझ कर मक्खी निगल रहे हैं। ‘समथिंग डिफरेंट’ और ‘अच्छे दिन आने वाले हैं’ का नारा लगाकर मोदी केंद्र की सत्ता तक पहुंचे पर असलियत यह है कि इन साढ़े चार महीने में हालात बद से बदतर हुए हैं।
यूपी की सपा सरकार की धोखाधड़ी से खिन्न हैं वरिष्ठ पत्रकार शंभूनाथ शुक्ला
Shambhu Nath Shukla : फेसबुक पर आजकल समाजवादी पार्टी के प्रवक्तागण आँधी की तरह टूट पड़े हैं। हो सकता है कि मुख्यमंत्री का निर्देश हो पर अगर वे इस सोशल साइट के माध्यम से माननीय मुख्यमंत्री को यह अवगत कराएं कि उनके सूबे में किस कदर कानून व्यवस्था की धज्जियां उड़ रही हैं और कैसे जमीन माफिया गाजियाबाद व नोएडा की जमीनों पर कब्जा कर रहा है तो ज्यादा समीचीन होगा।
दक्षिण रेलवे के महाप्रबंधक, मुख्य जनसंपर्क अधिकारी और मुख्य राजभाषा अधिकारी को कितनी हिंदी आती है
Shambhu Nath Shukla : हिंदी जैसे दुजाहू नहीं, तिजाहू की बीवी है! यूपीए-2 की सरकार में जब ममता बनर्जी रेल मंत्री बनीं तो मुझे भी रेल मंत्रालय की हिंदी सलाहकार समिति में रखा गया। मैने पहली ही बैठक में रेल मंत्री के समक्ष यह मुद्दा उठाया कि मंत्रालय हिंदी भाषी क्षेत्रों में हिंदी की कार्यशालाएं बंद करवाए तथा हिंदी विभाग में कार्यरत कर्मचारियों और अफसरों की फौज भी घटाए और इसकी बजाय मंत्री महोदय उन राज्यों पर हिंदी को कामकाज में लाने के लिए अधिक सतर्कता बरतें, जो हिंदी भाषी नहीं हैं और जहां के लोगों में हिंदी बोलने या बरतने के प्रति कोई रुचि नहीं दिखती अथवा उन राज्यों में जो हिंदी भाषी राज्यों से घिरे हुए हैं पर वहां की मुख्य भाषा हिंदी नहीं है। यानी ‘ग’ और ‘ख’ श्रेणी के राज्य।।
दस उन संपादकों की सूची जिन्होंने पत्रकारिता में नए मूल्य तय किए और जड़ता को तोड़ा
Shambhu Nath Shukla : मैं अपने दौर के दस उन संपादकों की सूची दे रहा हूं जिन्होंने पत्रकारिता में नए मूल्य तय किए और उसमें फैली जड़ता व यथास्थितिवाद को तोड़ा। ध्यान रखा जाए कि मेरी यह सूची कोई अंतिम या पूर्ण नहीं है। संपादक व पत्रकार और भी तमाम होंगे जो इस श्रेणी में आते होंगे। मैने तो उन लोगों को चुना है जिनको क्रमश: मैने जाना, उनके साथ काम किया और जिनके लिखे पर मनन किया।
जिले का नाम गाजीपुर क्यों पड़ा, गाजीउद्दीन हैदर के नाम पर या किसी मुगल गाजी के नाम पर…
Shambhu Nath Shukla : गाजीपुर का खाद-पानी… आज पुरानी किताबें निकालने के चक्कर में मैं अपनी लायब्रेरी खंगाल रहा था तो पाया कि उत्तर प्रदेश का गाजीपुर जिला बड़ा उर्वर है। सारी मिथकीय, ऐतिहासिक, साहित्यिक, पत्रकारीय और पत्रकारिक (फेसबुकीय पत्रकार) विभूतियां यहीं पैदा हुईं। मसलन मिथकीय कैरेक्टर परशुराम से लेकन पत्रकार शिरोमणि भाई Yashwant Singh तक।
शंभूनाथ शुक्ला के मुताबिक भारतीय आयुर्वेद में लीवर सिरोसिस का एकमात्र इलाज मांसाहार है
Shambhu Nath Shukla : मैं यह पोस्ट लिखकर शाकाहारियों की भावनाओं को ठेस नहीं पहुंचा रहा है लेकिन यह विचारणीय तो है ही। मेरे एक दामाद कानपुर में रहते हैं। वे थोड़ा फक्कड़, अलमस्त तबियत के और सर्द मिजाज के आदमी हैं। मन आया तो काम किया नहीं मन आया तो नहीं किया। लेकिन वे मेडिकल के अदभुत जानकार हैं और अगर मौका मिले तो शीर्ष पर पहुंच सकते हैं। लेकिन कानपुर में कामबिगाड़ू और धूर्त लोग भी कम नहीं हैं। उनके श्रम और कौशल का फायदा उठाया और चलते बने।
विजुअल मीडिया जिस तेजी से उभरी थी उसी तेजी से एक्सपोज भी हो गई
Shambhu Nath Shukla : विजुअल मीडिया जिस तेजी से उभरी थी उसी तेजी से एक्सपोज भी हो गई। इसके विपरीत प्रिंट का डंका अभी भी बज रहा है। आज विजुअल में कौन सा ऐसा न्यूज चैनल है जिसे रत्ती भर भी निष्पक्ष कहा जा सकता है? या तो विजुअल मीडिया में मोदी की चाटुकारिता हो रही है या सोनिया एंड कंपनी की। दोनों तरह की चापलूसी में होड़ मची है और तथ्यों को तोड़ मरोड़ कर परोसा जा रहा है। अब देखिए कितनी तेजी से वे चेहरे बदल दिए गए जो डिबेट में निष्पक्ष रुख अख्तयार किया करते थे।
अच्छा अखबार जनसत्ता और अच्छा एंकर रवीश कुमार
Shambhu Nath Shukla : एक अच्छा संपादक वह नहीं है जो अपने ही अखबार में धुंधाधार लिखता रहे। संपादक को अपना ही लेखन पढ़ाने की जरूरत नहीं पढ़ती और उसके विचारों की अभिव्यक्ति के लिए संपादकीय तो हैं ही, एक अच्छा संपादक वह है जो अच्छे लेखक तैयार करे। जो लोगों को लिखने के लिए विवश करे। जनसत्ता का योगदान यही है कि उसने लिखने और पढऩे वालों की एक पूरी पीढ़ी तैयार की।