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रवीश और उनकी टीम को मुट्ठी भर मोदी भक्त नुमा असामाजिक तत्व धमकाने में जुटे!

Tarun Vyas : मैं रवीश के दीवानों वाली सूची में शामिल नहीं हूं और न होना चाहता हूं। लेकिन रवीश कुमार की पत्रकारिता के अंदाज़ से प्रभावित ज़रूर हूं। रवीश का गुरुवार और शुक्रवार का प्राइम टाइम जिस किसी ने भी देखा मैं उन से दो सवाल पूछना चाहता हूं। क्या बैंकों में लगी कतारें और कतारों में भूखे प्यासे आंसू बहाते लोग झूठे हैं? और क्या नरेंद्र मोदी का रुंधा गला ही देशभक्ति का अंतिम सत्य है ? मेरे सवाल आपको नकारात्मक लग सकते हैं क्योंकि जब दाल 170 रुपए ख़ामोशी के साथ ख़रीदी जा रही हो तो इस तरह के सवालों का कोई मोल नहीं होता।

<p>Tarun Vyas : मैं रवीश के दीवानों वाली सूची में शामिल नहीं हूं और न होना चाहता हूं। लेकिन रवीश कुमार की पत्रकारिता के अंदाज़ से प्रभावित ज़रूर हूं। रवीश का गुरुवार और शुक्रवार का प्राइम टाइम जिस किसी ने भी देखा मैं उन से दो सवाल पूछना चाहता हूं। क्या बैंकों में लगी कतारें और कतारों में भूखे प्यासे आंसू बहाते लोग झूठे हैं? और क्या नरेंद्र मोदी का रुंधा गला ही देशभक्ति का अंतिम सत्य है ? मेरे सवाल आपको नकारात्मक लग सकते हैं क्योंकि जब दाल 170 रुपए ख़ामोशी के साथ ख़रीदी जा रही हो तो इस तरह के सवालों का कोई मोल नहीं होता।</p>

Tarun Vyas : मैं रवीश के दीवानों वाली सूची में शामिल नहीं हूं और न होना चाहता हूं। लेकिन रवीश कुमार की पत्रकारिता के अंदाज़ से प्रभावित ज़रूर हूं। रवीश का गुरुवार और शुक्रवार का प्राइम टाइम जिस किसी ने भी देखा मैं उन से दो सवाल पूछना चाहता हूं। क्या बैंकों में लगी कतारें और कतारों में भूखे प्यासे आंसू बहाते लोग झूठे हैं? और क्या नरेंद्र मोदी का रुंधा गला ही देशभक्ति का अंतिम सत्य है ? मेरे सवाल आपको नकारात्मक लग सकते हैं क्योंकि जब दाल 170 रुपए ख़ामोशी के साथ ख़रीदी जा रही हो तो इस तरह के सवालों का कोई मोल नहीं होता।

लेकिन उसके साथ ही हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि जनता से सत्ता है, सत्ता से जनता नहीं है। कोई पत्रकार देश की जनता के दिल दिमाग़ पर बिछाए जा रहे जाल को तोड़कर देश की जनता की सोच को आज़ाद रहने के लिए अगर कुछ प्रयत्न कर रहा है तो वो देशद्रोही कैसे हो सकता है। मौजूदा दौर में रवीश कुमार की पत्रकारिता और ख़ुद रवीश ग़द्दार देशद्रोही और न जाने क्या क्या घटिया आरोप झेल रहे हैं। और सुधीर चौधरी जैसे अपराधी देशभक्ति के मील का पत्थर बनते जा रहे हैं।

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बीते दो प्राइम टाइम में कुछ असामाजिक तत्वों ने रवीश को और उनकी टीम को धमकाने का प्रयास किया है। बदतमीज़ी की और रिपोर्टिंग प्लेस से निकल जाने तक की धमकी दे डाली। जहां एक ओर बीजेपी मार्का न्यूज़ चैनल्स और अख़बारों को बैंकों में खड़े लोग दिखना बंद हो गए हैं। 34 लोगों की मौत बदलते देश का नया उदाहरण बन गई हो तो ऐसे हालातों में रवीश कुमार का बैंकों की भीड़ और मर रहे लोगों पर सवाल करना कौनसा अपराध है? क्या हम इसे स्वीकारलें कि अब राजनीतिक दलों के गुंडे पत्रकारों को धमकाएंगे और इस पर भी चुप्पी साधना होगी?

आम जनता भले न समझे मग़र पत्रकारों को तो समझना चाहिए इन हालातों को। आज बीजेपी का सिक्का है कल कांग्रेस का होगा। तो जो पत्रकार बीजेपी की ग़ुलामी कर रहे हैं उनके साथ क्या इस तरह के बर्ताव का ख़तरा नहीं हैं। सत्ता की शरण स्वीकार कर चुके पत्रकारों ने क्या ये मान लिया है इस लोकतंत्र में 2014 का लोकसभा चुनाव आख़री चुनाव था? क्या अब दूसरे दलों की सरकारों का बनना बिगड़ना नहीं होगा? जो अपने अस्तित्व पर हो रहे हमलों पर ख़ामोशी बरती जा रही है। मैं यहां रवीश कुमार की वक़ालत नहीं कर रहा हूं मग़र कुछ ही पत्रकार हैं जो लिख रहे हैं दिखा रहा हैं उनमें रवीश कुमार सबसे आगे नज़र आते हैं। इसलिए हमें ऐसे पत्रकरों को दबाए जाने के लिए आवाज़ उठनी चाहिए।

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इस समय हो रहे घटनक्रम यूं ही नहीं हैं। ये आने वाले समय के गहरे अंधेरे की दस्तक है। जिसे न समझने दिया जा रहा है और न ही समझ चुके लोगों को बोलने दिया जा रहा है। जितना हो सके हमें इस ख़तरनाक महौल से बचना चाहिए। हमारे आपके आस पास देशभक्ति का ऐसा आवरण बनाया जा रहा है जिसके विरोध में आप कुछ भी न कह सकें। लेकिन हमें बोलना होगा। देशभक्ति और देशभक्तों के विरुद्ध खड़े होना होगा। क्योंकि ये एक झूठ है जिसका असलियत से कोई वास्ता नहीं। ये सिर्फ़ कुर्सी पर बने रहने के लिए फ़ैलाया जा रहा डर है। जिसका शिकार आज रवीश कुमार जैसे ढेरों लोग हैं।

सत्ता के इस अंधकाल में कुछ भी बोलना ख़तरे से खाली तो नहीं है। लेकिन जो जोखिम उठाकर किसी भी माध्यम से सच को महसूस करा रहे हैं हमें उनके साहस का सम्मान करना होगा। वरना इतिहास हमारा पीछा कर ही रहा है। हालातों को देखिए महसूस कीजिए इंदिरा इज़ इंडिया इंडिया इस इंदिरा आप भूले नहीं होंगे। 1975 से 77 तक की हवाओं का एहसास कराया जा रहा है। बस तरीका थोड़ा अलग है। तब घोषित तानाशाही थी अब अघोषित है।

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लेखक तरुण व्यास इंदौर के युवा सोशल मीडिया जर्नलिस्ट हैं. उनका यह लिखा उनके एफबी वॉल से लिया गया है.

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