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वेब-सिनेमा

ट्विटर पर आज सुबह से रवीश कुमार – दिलीप मंडल ट्रेंड कर रहा है!

रंगनाथ सिंह-

कास्ट सरनेम हटाने की मुहिम से चिपकाने की सनक तक!

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ट्विटर पर आज सुबह से ….रवीश पांडे और दिलीप मंडल ट्रेंड कर रहा है। दिलीप जी से न मेरी कट्टर दुश्मनी है और न रवीश जी से गहरी दोस्ती लेकिन सोशलमीडिया मीडिया में पसर चुकी एक कुप्रवृत्ति के केंद्र में यही दोनों लोग नजर आते हैं।

और लोग भी ऐसा करते होंगे लेकिन मेरे ध्यान में सबसे चर्चित नाम दिलीप जी ही हैं जिन्होंने वाया रवीश कुमार लोगों का नाम बदलकर ” कास्ट सरनेम” जोड़कर ट्रेंड कराना शुरू किया। मेरे कई परिचितों ने भी कई बार इस ट्रेंड के बहती गंगा में हाथ धोया!

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मेरी राय में यह सबसे सस्ते किस्म का जातिवादी सैडिस्टिक प्लेजर है। मुझे नहीं लगता है कि रवीश कुमार की कोई भी आलोचना उनका नाम बिगाड़े बिना नहीं हो सकती! दिलीप जी की कई आदतें पिछले कुछ समय में बदली हैं लेकिन यह कुटैव उनका पीछा नहीं छोड़ रहा है।

यही बीमारी इतनी बढ़ चुकी है कि एक दलित पत्रकार को ट्रॉल करने के लिए उसके पति के कास्ट को जोड़कर लिखा जाने लगा है, जबकि उनका पति भी वह सरनेम नहीं यूज करता। इसके उलट एक दलित नेता को उसकी गैर-दलित पत्नी के कास्ट सरनेम के आधार पर ट्रॉल किया जाता है। हैरत की बात है कि दलित पत्रकार को ब्राह्मण पति की कास्ट के आधार पर हैरेस करने वाले ही कालांतर में यह आन्दोलन भी चला चुके हैं कि जो लोग प्रगतिशील हैं, वे कास्ट सरनेम हटा क्यों नहीं देते!

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एक सज्जन जो मेरे सामने निजी तौर पर कई बार कास्ट सरनेम न लगाने को ज्वलंत जरूरत करार दे चुके थे, वही बाद में दूसरों की कास्ट पता कर के उसे उस व्यक्ति के नाम से जोड़कर ट्रेंड कराने की मुहिम में शामिल दिखने लगे। यानी जब आपका मन करेगा आप कास्ट सरनेम हटाने की पैरवी करेंगे और जब जरूरत होगी तो जो कास्ट सरनेम नहीं यूज करता, उसे जबरदस्ती चिपकाने की कोशिश करेंगे! ध्यान रहे, यही लोग उन विचारकों का नाम दिनरात जपते हैं जो सामाजिक मेलजोल बढ़ाने के लिए रोटी-बेटी के सम्बन्ध को सबसे अचूक उपाय बता गये हैं।

लोग खुलकर कह नहीं रहे हैं लेकिन जमीनी सचाई ये है कि पिछले कुछ सालों में दिल्ली के बौद्धिक तबके में जातिगत वैमनस्य बहुत ज्यादा बढ़ा है। आपसी मेलजोल में इसका नकारात्मक असर दिखने लगा है। मेरे ख्याल से यह समस्या अब लालरेखा पार कर चुकी है। सौ की सीधी बात है कि जितनी भी पुरानी सामाजिक व्याधियाँ थीं, उनका संवैधानिक उपचार 77 साल पहले प्रदान किया जा चुका है। अब किसी को भी जाति के आधार पर अपमानित करना, अनैतिक और असंवैधानिक दोनों है। अतः दिलीप जी जैसे वरिष्ठ पत्रकार को अब इस समस्या को और बढ़ाने में योगदान नहीं देना चाहिए।

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