Vineet Kumar : हिन्दी चैनलों के संपादक ऑब्लिक बॉस एंकर सुषमा स्वराज की हिन्दी चिंता पर जिस कदर टीटीएम में लगे हैं, एक बार पलटकर सुषमा स्वराज पूछ दें कि आपने अपने चैनलों के जरिए किस तरह की हिन्दी को विस्तार दिया तो शर्म से माथा झुक जाएगा. इन संपादकों को इतनी भी तमीज नहीं है कि ये समझ सकें कि वो जो चिंता जाहिर कर रही है, उनमे हम संपादकों के धत्तकर्म भी शामिल हैं. आखिर उन्हें लाइसेंस हिन्दी चैनल चलाने के दिए जाते हैं, हिंग्लिश के तो नहीं ही न..
ये सब शर्मो हया धोकर गटर में डाल देने वाले हिन्दी के संपादक हैं… भारत की विदेश मंत्री सुषमा स्वराज के हिन्दी की दुर्दशा पर चिंता जताए जाने की अदा पर राहुल देव, अजीत अंजुम, उमेश उपाध्याय जैसे संपादक, टीवी और मीडिया सेमिनारों के चमकीले चेहरे मार लहालोट हुए जा रहे हैं. बेशर्मी की हद तक जाकर वो जो अपडेट कर रहे हैं, उन्हें सुषमा स्वराज तक पहुंचाने की( वर्चुअली ही सही) पूरजोर कोशिश और नंबर बनाने में लगे हैं..लेकिन ये हिन्दी समाचार चैनलों के लिए काम करनेवाले वो दिग्गज चेहरे हैं जिन्हें आधे घंटे के एक कार्यक्रम के लिए हिन्दी के नाम तक नहीं सूझते.
अजीत अंजुम को भाषा पर महारथ हासिल है लेकिन चैनल सास, बहू और संस्पेंस के जरिए अनुप्रास अलंकार के आगे जाकर हांफने लग जाता है. इधर राहुल देव अंग्रेजी से एमए होने के बावजूद मीडिया सेमिनारों में हिन्दी की कंठी-माला जपते थकते नहीं. ये तस्वीर एक पत्रिका के पूरे पेज में छपे विज्ञापन की है. उस वक्त ये सीएनइबी के सीइओ हुआ करते थे. जो विज्ञापन आप पत्रिका में देख रहे हैं, उसकी कटआउट से पूरे शहर को पाट दिया गया था. यहां तक कि फ्लाईओवर से गुजरते हुए ये विज्ञापन दिखाई देते.
ये राहुल देव जब सीएनइबी के सीइओ रहे तो शहर को इस होर्डिंग से ऐसा पाट दिया कि कहीं से नहीं लगता था कि ये हिन्दी चैनल है..लेकिन सेमिनारों में भाषाई शुद्धता और हिन्दी प्रेम पर मार ठेले रहते हैं..
चैनल की भाषा भी हिन्दी थी और उसके सीईओ भी हिन्दी पर जान लुटा देनेवाले लेकिन विज्ञापन अंग्रेजी में. मतलब ये कि ये जिन कुर्सियों पर बैठकर काम करते आए हैं, चाहते तो चैनलों के जरिए लोगों के बीच हिन्दी का एक बेहतर रूप पेश कर सकते थे. कुछ नहीं तो इसे गैरजरूरी ढंग से हिंग्लिश होेते जाने से रोक सकते थे लेकिन नहीं..ऐसा करते तो फिर बाजार की पिछाड़ी बर्दाश्त करने की ताकत कैसे जुटा पाते.. अब सुषमा स्वराज हिन्दी भाषा को लेकर जिस तरह की चिंता जाहिर कर रही है, ये उनके आगे लहालोट हो जाने और नंबर बनाने का मुद्दा नहीं है, शर्म से सिर झुकाकर चुप मार जाने का है..अपने किए पर अफसोस करने का है. लेकिन शर्म भी जो एक चीज होती तब न..
मीडिया विश्लेषक विनीत कुमार के फेसबुक वॉल से. उपरोक्त पोस्ट पर आए कई कमेंट्स में से एक मुख्य कमेंट यहां पेश है :
Som Prabh : राहुल देव बहुत पहले से संदिग्ध हो चुके हैं. यह एक वक्त में हिंदी के खत्म होने की भविष्यवाणी कर रहे थे. भोपाल में एक कार्यक्रम में भास्कर को भाषा के लिए शाबासी देने लगे. सभा में मैंने उठकर टोका कि कुछ भी कहें लेकिन गलत बयानी न करें. यह देख लें कि भास्कर लिख क्या रहा है. बहुत ही अति उत्साह से भरा कार्यक्रम था. प्रियदर्शन सर ने बढ़िया बोला था और भाषा के प्रति रवैये को लेकर खुले मन से आलोचना की थी. यह भी दिलचस्प है कि टीवी रिपोर्टर होकर अखिलेश शर्मा ने अपने ब्लॉग पोस्ट में टीवी की भाषा पर टिप्पणी नहीं किया. क्या अखबार ही खराब किस्म की भाषा इस्तेमाल कर रहे हैं.