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सुख-दुख

जब संजय सिन्हा से एक IG ने कहा- सारे पत्रकार चोर होते हैं!

संजय सिन्हा-

कलम या खाकी?

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मध्य प्रदेश के सीधी जिले से किसी ने एक तस्वीर भेजी है। कुछ अधनंगे लोग थाने में बैठे हैं। बताया जा रहा है कि ये पत्रकार हैं।
ये पत्रकार हैं? इस हालत में? मैं पत्रकार हूं। मैं सोच में डूब गया कि पत्रकारों ने कब और कैसे खुद को इस हालत में पहुंच जाने दिया? और क्यों?

बताया गया कि पत्रकारों ने किसी स्थानीय विधायक की कोई पोल खोलू खबर दिखलाई तो विधायक जी ने पत्रकारों के खिलाफ एफआईआर लिखवा दी। पुलिस ने सभी को पकड़ कर थाने में बंद कर दिया और कपड़े उतार कर…।

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बीती दिवाली की बात है। मैं मध्यप्रदेश में आईजी से अपनी शिकायत के सिलसिले में मिलने गया था। साथ में मेरी पत्नी भी थी। मुझे एक एफआईआर के सिलसिले में उनसे मिलना पड़ा था क्योंकि थानेदार और एसपी सुन नहीं रहे थे। और आईजी से मिलने भी मैं सीधे वहां नहीं पहुंचा था। दिल्ली में अपने एक आईजी मित्र से, जो एमपी कैडर के ही आईपीएस अधिकारी हैं, उनसे फोन करवाया था।

मैं आईजी के ऑफिस में गया। बगल में ही उनका बंगला था। आईजी ने मुझे दोपहर 12 बजे आने का समय दिया था। मैं ठीक 12 बजे पहुंचा। आईजी एक बजे ऑफिस पहुंचे। कुछ देर बाद मुझे कमरे में बुलाया गया।
उन्होंने पूछा क्या काम है?
“एक एफआईआर के सिलसिले में बात करनी है।”
“आईजी कार्यालय में एफआईआर लिखी जाती है?”
“थाने में सुनवाई नहीं होती। एसपी साहब सुनते नहीं।”
“पर बात तो वहीं करनी होगी।”
“सर, मैं पत्रकार हूं। मेरी पत्नी भी…।”
आईजी मुस्कुराए। उन्होंने कहा, “पत्रकारों की यही मुश्किल होती है। लोगों की तो खूब बखिया उधेड़ते हैं। जब अपने पर आती है तो…।”

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मैंने कहा कि पत्रकारों का तो काम ही है खबर दिखलाना। इसमें बखिया उधेड़ने जैसी क्या बात है? पत्रकार किसी का सच तो दिखालाएंगे ही।
आईजी ने कहा, ”सारे पत्रकार चोर होते हैं।”
“कैसे?”
“यहां पत्रकारों को कितनी सैलरी मिलती होगी? इतने सारे पत्रकार सारा दिन स्कूटी और मोटरसाइकिल पर घूमते हैं। कहां से आता है इनके पेट्रोल का खर्चा?”
हम स्तब्ध थे।

लग रहा था जैसे कोई हमें ही नंगा कर रहा है। मेरी पत्नी खुद दस साल दिल्ली में इंडियन एक्सप्रेस में पत्रकार रह चुकी है। मैं जनसत्ता, आजतक में इतने साल रहा, आज तक किसी ने मुझसे इस तरह बात नहीं की थी।

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मैंने उनका प्रतिरोध किया। “सर, आप कुछ भ्रष्ट पत्रकारों के चलते पूरी बिरादरी को बदनाम नहीं कर सकते। आप ऐसा कैसे कह सकते हैं कि सारे पत्रकार चोर होते हैं। अच्छे बुरे लोग हर प्रोफेशन में होते हैं। आपकी पुलिस में भी बहुत से लोग रिश्वत लेते हैं। सिपाही और थानेदार की भी इतनी सैलरी नहीं होती कि वो…।”

आईजी को उम्मीद नहीं थी कि मैं ऐसा कुछ बोलूंगा।

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मैंने उन्हें बताया कि मेरे मामा खुद मध्य प्रदेश कैडर के आईपीएस अधिकारी थे। मैं उन्हीं के साथ रहा हूं। मैंने देखा है कि एक ईमानदार अफसर को कितनी मुश्किलों से गुजरना पड़ता है। जैसे एक ईमानदार सरकारी अफसर के सामने मुश्किल आती है, वैसे ही किसी ईमानदार पत्रकार के सामने भी आती है। आप सभी को एक ही लाठी से कैसे हांक सकते हैं?

वैसे ये सच है कि मध्य प्रदेश में पत्रकारों ने अपनी हनक खो दी है। मैंने पहले भी आपको बताया है कि मैं पत्रकारिता की दुनिया में आया था टायर के चप्पल वाले एक पत्रकार से मिलने के बाद। राजीव गांधी तब प्रधान मंत्री थे और भोपाल में मैंने एक प्रेस कांफ्रेंस में उस पत्रकार को राजीव गांधी से सवाल पूछते देखा था, तब मेरे मन में पहली बार इस पेशे के प्रति प्रेम पनपा था। हालांकि तब अर्जुन सिंह का जमाना था। वो पहले नेता थे जिन्होंने पत्रकारों को पैसे देकर गुलाम बनाना शुरु किया था। बाद में तो पत्रकार ‘नमक का हक’ ही अदा करते रह गए और धीरे-धीरे उन्होंने अपना ये हाल बना लिया कि एक थानेदार ने उनका न सिर्फ चीरहरण किया, बल्कि उसकी तस्वीर भी साझा की।

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मध्य प्रदेश में अर्जुन सिंह ने पत्रकारों को पेड जर्नलिस्ट बनाया था। अपने पक्ष में खबर प्लांट कराने का ये उनका अभिनव प्रयोग था। बाद में मुलायम सिंह यादव ने उत्तर प्रदेश में यही प्रयोग किया था। अर्ध शिक्षित लोग पत्रकारिता की दुनिया में आने लगे थे।

पत्रकारिता के नाम पर सरकारी रियायतें और सरकारी घर जैसी सुविधाएं मिलने लगी थीं। मेरी समझ में मध्य प्रदेश पहला राज्य था जिसने पत्रकारों को इस तरह सरकारी खर्चे पर भ्रष्ट बनाया था। सोचिए, रियायतें लेकर पत्रकार उनकी आंखों में आंखें डाल कर क्या सवाल पूछते?

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उस दिन आईजी से मिल कर मेरी पत्नी तो दुखी हो गई थी। आईजी के कमरे से निकल कर वो पूछ रही थी कि संजय, पत्रकारों की छवि इतनी खराब क्यों हो गई है?”
“खराब नहीं हुई है। पुलिस खुद अपना काम नहीं करना चाहती, तो ऐसे ही शिकायत लेकर गए लोगों को बर्गलाने लगती है। तुमने देखा नहीं कि एक एफआईआर नहीं लिखे जाने की शिकायत लेकर हम आईजी के पास गए थे, उन्होंने बात कैसे बदल दी? इनकी ट्रेनिंग होती है ऐसी। कायदे से पुलिस को दोस्त होना चाहिए था। पर यहां तुम एसपी से मिली, आईजी से मिली। कैसे लोग हैं ये? ये काम उलझाते हैं। फंसाते हैं। लोगों को धमकाते हैं।”
“हां, सच में ऐसे ही अफसरों के चलते लोग पुलिस के पास जाने से घबराते हैं।”
वो पूछ रही थी कि “फिर किसी को एफआईआर लिखानी हो तो कहां जाए? पुलिस किसी की सुनती नहीं। नेताओं का हाल पता ही है।”
मैं चुप था।
“पहले पत्रकार उम्मीद थे, अब उनकी छवि ऐसी हो गई।”
पत्नी कह रही थी कि संजय, एक ज़माना था कि वकील, पुलिस, जज सब अपने हक की लड़ाई के लिए पत्रकारों के पास आते थे। वो मुझे याद दिला रही थी कि कुछ साल पहले सुप्रीम कोर्ट के जज अपनी शिकायत लेकर पत्रकारों के सामने आए थे।
“अब ये क्या हो गया?”

उसके सवाल मेरे कानों में गूंज रहे थे। सचमुच पत्रकारों ने अपना क्या हाल बना लिया है? मेरी पत्नी कह रही थी कि असल में ये पत्रकारों ने अपना नुकसान कम किया है, जनता का अधिक नुकसान किया है। लोगों के मन में पत्रकारिता एक उम्मीद की तरह थी। एक छोटी-सी खबर का भी क्या असर होता था। सरकारी महकमा गलत काम करने से डरता था।
वो कुछ-कुछ कह रही थी। मैं कुछ-कुछ सुन रहा था।
आज सिर्फ पत्रकारिता नंगी नहीं हुई है। जनता की उम्मीदों का अपमान हुआ है।

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पुलिस ने पत्रकारों की ऐसी तस्वीर साझा करके ये बताने की कोशिश की है कि देखो हम किसी का क्या हश्र कर सकते हैं।

इस एक तस्वीर से देश भर के पत्रकारों ने सिर्फ अपनी हनक नहीं खोई है, देश की जनता की उम्मीदों ने अपनी हनक खो दी है। लोग पुलिस, प्रशासन और नेता से पहले से प्रताड़ित थे। ऐसे में जनता के पास एक हथियार था, पत्रकार की कलम। पुलिस उस कलम को तोड़ रही है। दो में से आपको क्या चाहिए? कलम या खाकी?

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