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सुख-दुख

जिंदादिल और जांबाज संपादक थे शशांक शेखर

मौत तो प्रकृति का नियम है। विधि-विधान है। हर एक को इससे गुजरना है। लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं, जो भुलाए नहीं भूलतीं। कुछ लोगों की जांबाजी आंखों के सामने तैरती रहती है। उन्हीं में से एक थे शशांक शेखर त्रिपाठी जो न सिर्फ पत्रकारों की शान थे, बल्कि पत्रकारों का उत्पीड़न उनके लिए अक्षम्य अपराध था। कहते थे, पत्रकार औरों के लिए लड़ता है, पर अपने लिए कहां बोल पाता है! उनका यूं चले जाना अंदर तक झकझोरने वाला है। भला यह भी कोई उम्र होती है जाने की। 55 की उम्र में वह चले गए। वे असल जीवन में भी पत्रकार थे। खुशदिल और खुशमिजाज थे… पढ़िए उनके साथ काम कर चुके पत्रकार सुरेश गांधी की रिपोर्ट…

मौत तो प्रकृति का नियम है। विधि-विधान है। हर एक को इससे गुजरना है। लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं, जो भुलाए नहीं भूलतीं। कुछ लोगों की जांबाजी आंखों के सामने तैरती रहती है। उन्हीं में से एक थे शशांक शेखर त्रिपाठी जो न सिर्फ पत्रकारों की शान थे, बल्कि पत्रकारों का उत्पीड़न उनके लिए अक्षम्य अपराध था। कहते थे, पत्रकार औरों के लिए लड़ता है, पर अपने लिए कहां बोल पाता है! उनका यूं चले जाना अंदर तक झकझोरने वाला है। भला यह भी कोई उम्र होती है जाने की। 55 की उम्र में वह चले गए। वे असल जीवन में भी पत्रकार थे। खुशदिल और खुशमिजाज थे… पढ़िए उनके साथ काम कर चुके पत्रकार सुरेश गांधी की रिपोर्ट…

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सुरेश गांधी

जी हां, पत्रकार ‘खबरों की ‘खबर‘ रखते हैं। अपनी खबर हमेशा ढकते हैं। दुनिया भर के दर्द को अपनी खबर बनाने वाले अपने वास्ते बेदर्द होते हैं। पत्रकार होने का मतलब क्या होता है? ये पत्रकार दिखते कैसे हैं? क्या पत्रकार चापलूस होते हैं? न जाने कितने ऐसे सवाल, जो हम सभी के मन में समाचार पढ़ते या देखते हुए आते हैं। आने भी चाहिए, क्योंकि ये पेशा है ही ऐसा कि सवाल उठना लाजिमी है। देश-दुनिया की सभी घटनाओं पर पत्रकारों की नजर रहती है। खबरों के संकलन से लेकर पाठकों-दर्शकों तक पहुंचाने तक के क्रम में एक पत्रकार को कितनी मेहनत करनी पड़ती है, उसे शायद आप नहीं महसूस कर सकेंगे, अगर आप पत्रकार नहीं हैं तो।

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मॉर्निंग में बिना ब्रेक और ब्रेकफास्ट के साथ, हाथ में बूम माईक लेकर और नोट-कॉपी के साथ कलम लिए, जब एक पत्रकार घर से निकलता है तो देखने वालों को सुपरस्टार जैसा लगता है। थोड़ा सा रुक कर आप उस पत्रकार से पूछिएगा कैसे हैं आप? वो पत्रकार मुस्कुराते हुए आपको जवाब देगा कि बढ़िया है। जबकि सच्चाई ये है कि उसके दिल में कई चीजें एक साथ चल रही होती है। बॉस के साथ मॉर्निंग मीटिंग, डेली प्लान, स्टोरी आइडिया और शाम को रिपोर्ट सबमिट करना। इन सब के बीच में उसकी जिंदगी और उसके परिवार का कहीं जिक्र नहीं है। हालांकि परिवार वाले हों या हित-नात, या फि दोस्त-यार, शेखी बघारते रहते हैं कि वह शहर में बड़ा पत्रकार है।

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जबकि सच तो यह है कि एक खबर के लिए पत्रकार को कई मुश्किलों का सामना करना पड़ता है। कभी जख्म खा जाते हैं, तो कहीं चोटिल हो जाते हैं। अपनी ड्यूटी निभाने के बाद रात के 12 बजे तक ऑफिस में डटे रहते हैं। वॉर, दंगा-फसाद और छिट-पुट हिंसा में जाना इनकी आदत सी हो गई है। उन्हीं पत्रकारों में एक नाम है शशांक शेखर त्रिपाठी जो अपनी लगन व महनत से संपादक बनकर कई समाचार पत्रों की जिम्मेदारी संभाली। साथ ही ऐसे कारनामे भी किए हैं, जो उनसे पहले किसी भी पत्रकार ने नहीं किए।

शेखर त्रिपाठी की गिनती यूपी के दिग्गज संपादकों में होती है। प्रभावशाली व्यक्तित्व वाले शेखर त्रिपाठी ने जागरण से पहले हिन्दुस्तान अखबार की कमान संभाली थी। उनकी खासियत थी कि वे जहां-जहां रहे, वहां उन्होंने न केवल अखबार की साख बढ़ाई, साथ ही संपादक के तौर पर अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए प्रशासनिक अधिकारियों को लगातार आड़े हाथ लिया। उनका जाना हमारी व्यक्तिगत रूप से बड़ी क्षति है। ‘हिन्दुस्तान‘ वाराणसी के जब वह स्थानीय संपादक थे तो मैं भदोही में संवाददाता था। मेरी लगन व परिश्रम को देखते हुए त्रिपाठी जी ने मुझे भदोही का ब्यूरोचीफ बना दिया। फिरहाल, उन दिनों भदोही में बाहुबली विधायक विजय मिश्रा की तूती बोलती थी। उसके काले कारनामों को उजागर करना जान पर आफत लेना था। लेकिन मैंने विस्तार से रिपोर्टिंग की। विजय मिश्रा कभी एक कालीन निर्यातक की गैटमैनी करता था। बाद में रुंगटा अपहरणकांड से नाम जुड़ा। मुलायम कुनबे से नजदीकी हासिल की। उसके सारे काले कारनामों की विस्तृत रिपोर्टिंग की।

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ज्ञानपुर कार्यालय में ही एक दिन रात 11 बजे एक अनजान फोन आया। अनजान शख्स ने कहा-एक बड़ी खबर है, छापने का बूता है? जवाब में मैंने कहा, आप खबर बताएं, अगर खबर है तो छपेगी ही। उसने कहा, पूर्वांचल के माफिया विधायक डाक्टर सिंह की सदस्यता समाप्त हो गयी है, सुबह मुलायम सिंह सरकार गिर जायेगी। गौर करने वाली बात है कि दो दिन पहले मुलायम तीन-तिकड़म से मुख्यमंत्री बने थे। उन्हें सरकार बचाने के लिए एक-एक विधायक की जरुरत थी। फिरहाल, खबर बड़ी थी और मेरे कार्यक्षेत्र से बाहर की भी। लेकिन फोन पर खबर देने वाला शख्य विश्वसनीय था। इसलिए मैंने रिस्क लेकर खबर भेज दी और कार्यालय से भदोही स्थित घर के लिए चल पड़ा।

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आधे रास्ते पहुंचा था कि मोबाइल घनघनाने लगा। फोन रीसिव किया तो आवाज शशांक जी की ही थी, बोले, अबे तू संपादक हो गया है क्या? लखनऊ-दिल्ली तक का खबर भेजेगा। मैने कहा, खबर सर बड़ी थी इसीलिए आपके ध्यानार्थ भेजा हैं। वे बोले- अच्छा छोड़ो, खबर बिल्कुल सत्य है। मैने कहा, हां सर। तकरीबन दस मिनट बाद फिर त्रिपाठी जी का फोन आया, कहां इसकी जानकारी तो लखनऊ संपादक नवीन जी को भी नहीं हैं, कैसे पुष्टि होगी? मैंने कहा, राज्यपाल बतायेंगे। सुबह वह खबर ‘विधायक डाक्टर सिंह की सदस्यता खत्म, खतरे में सरकार‘ हेडिंग से लखनऊ, दिल्ली, वाराणसी समेत सभी संस्करणों में फ्रंट पेज की लीड बनी। कार्यालय पहुंचते ही त्रिपाठी जी का फोन आया ‘शाबाश बेटे‘। मेरे खुशी का ठिकाना न रहा। फिरहाल, एक दिन फिर रात में फोन आया त्रिपाठी जी का, लेकिन खबर को लेकर नहीं, बल्कि शिकायत का, वह शिकायत जो मेरे खिलाफ दिल्ली संपादक रहीं मृणाल पांडेय जी को किसी ने भेजी थी।

स्वर्गीय शेखर त्रिपाठी

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त्रिपाठी जी ने कहा, ‘‘किसी ने उन्हें शिकायत भेजी है तुम माफिया हो, पत्रकारिता की आड़ में वसूली करते हो, बहरहाल मैंने तुम्हारी पैरवी करते हुए अपनी तरफ से बोल दिया है कि वह भदोही ही नहीं पूरे पूर्वांचल का जांबाज व साहसी पत्रकार है, तीन साल से मैं सुरेश गांधी को व्यक्तिगत तौर से जानता हूं। लेकिन सच्चाई क्या है मुझे इसका जवाब अगले दिन लिखित भेजों।‘‘ अगले दिन मैंने डीएम जौनपुर अनुराग यादव द्वारा जारी चरित्र प्रमाण पत्र के संल्गनक के साथ पांच पेज का जवाब भेज दिया, जिससे वे काफी संतुष्ट रहें। इतना ही नहीं वे अपने परिवार के प्रति बेहद संजीदा थे।

एक बार उनकी भतीजी पूजा कानपुर से चौरा चौरी से बनारस आ रही थी। फतेहपुर तक उसने अपनी लोकेशन दी। लेकिन उसके बाद लोकेशन मिलना बंद हो गया। ट्रेन इलाहाबाद रूकी और काफी छानबीन वह रेलवे एनाउंस के बाद भी कुछ नहीं पता चला। ट्रेन बनारस के लिए चल पडी। उनका धैर्य छूटता जा रहा था। उन्होंने मुझे फोन किया और जानकारी दी। मैं तत्काल ज्ञानपुर रोड रेलवे स्टेशन पहुंचा। ट्रेन रूकी खोजबीन की। नहीं पता चला। दो मिनट बाद ट्रेन चलने को हुई लेकिन मैंने चालक की मदद से ट्रेन रुकवा दी और एक एक बोगी चेक किया तो वह सोती हई मिली। संयोग ही था कि चर्चा में उसने सहयात्री से संपादक जी का जिक्र किया था। उस यात्री की मदद से पहचानने में मदद मिली। इसके बाद मैंने उनसे न सिर्फ बात कराई बल्कि साथ में गया। ट्रेन जैसे ही बनारस पहुंची बिटिया को गले लगकर फफक कर रोने लगे। उनके साथ अरूण कुमार मिश्रा आदि मौजूद थे।

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बहुत कम संपादक ऐसे जिन्दादिल मिले। उनकी अनेक यादें मेरे साथ जुड़ी है, जो प्रेरणादायक रहेगी। वे एक ऐसे संपादक थे, जिन्हें प्रदेश के बड़े से बड़े नौकरशाह, राजनेता और समाज जीवन के अग्रणी लोग उन्हें जानते थे। मंत्रालय के चतुर्थ श्रेणी कर्मचारियों से लेकर आला अफसरों तक वही जलवा। उनकी एक खूबी यह भी थी वो सारा कुछ कह देते थे। खास खबरें जो कहीं न हो, छापने की सनक थी। उनका निर्देश रहता था जो लिखना हो, बिना लाग-लपेट के लिखना। किसी को बुरा लगे तो लगता रहे। उन्होंने कभी आदमी या कुर्सी देखकर बात नहीं की। उन्हें जानने वाले तो जो भी राय बनाते रहे हों, किंतु जिसने उनको जान लिया वह उनका हो गया।

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वे अपनी जिंदगी की तरह नौकरी में भी कभी व्यवस्थित नहीं रहे। उनकी मरजी तो वे एक दिन में चार एक्सक्यूसिव खबरें तुरंत दे सकते हैं और मरजी नहीं तो नहीं। वे कभी विज्ञापन या सकुर्लेशन विभाग के दबाव में नहीं आएं। अपने पत्रकारों के लिए तो किसी भी हद तक जाने को तैयार रहते थे। फोन कीजिए तो वही अट्टहास “बस हाजिर हो रहे हैं सर।” पर उनको कौन पकड़ सकता है। वे तो हर जगह हैं, पर दफ्तर में नहीं। उनके दोस्तों की एक लंबी श्रृंखला है जिसमें इतने तरह के लोग हैं कि आप सोच भी नहीं सकते। किंतु संवाद की उसकी वही शैली, सबके साथ है। उनको यह नहीं आता कि वह अपने पत्रकारों, ब्यूरोचीफ से अलग तरीके से पेश आए और किसी साधारण व्यक्ति से अलग। उसके लिए राज्य के सम्मानित नेता और नौकरशाह और उसके दोस्त सब बराबर हैं।

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कई बार लोग मेरी शिकायत करते, ‘सर गांधी को संभाल लीजिए।‘ जवाब होता “भाई ये मेरे बस की बात नहीं।“  वे रिश्तों को भूलते नहीं और याद रखते थे। वो बराबर फोन कर मेरा और परिवार न सिर्फ हालचाल लेते रहे वरन अपनी खुद ओढ़ी व्यस्तताओं में से कौन किसके लिए समय निकालत हैं। वे खुद अपने चाहने वालों के दिलोदिमाग पर छाएं रहते थे। पत्रकारिता में एक संवाददाता से प्रारंभ कर वे देखते ही देखते वह दैनिक समाचार पत्र हिन्दुस्तान, दैनिक जागरण समेत कई डिजिटल साइटों के संपादक बने। किंतु उन्होंने अपनी शैली और जमीन नहीं छोड़ी। वह अपनी कमजोरियों को जानते थे, इसलिए उसे ही उसने अपनी ताकत बना लिए। लेकिन अफसोस है कि उन्होंने लिखने-पढ़ने से छुट्टी ले ली और रोजाना खबरें देने के तनाव से मुक्त होकर अब सदा-सदा के लिए खामोश हो गए।

भरोसा नहीं हो रहा है कि की-बोर्ड पर थिरक रही उंगलियां उन पर लिखा यह स्मृति लेख लिख चुकी हैं। आज से वह हमारी जिंदगी का नहीं, स्मृतियों का हिस्सा बन गए है। प्रभु उसकी आत्मा को शांति देना। वह राज्य या केंद्र सरकार की आलोचना करने से कभी नहीं डरने के लिए मशहूर थे। बहुमुखी व्यक्तित्व के धनी थे। उनकी अचनाक हुई मौत की खबरे मीडिया जगत में शोक की लहर हैं। तमाम पत्रकारों और सहयोगियों ने अपने फेसबुक अकाउंट के जरिए उन्हें श्रद्धांजलि दी और अपने साथ बिताए पलों को साझा किया।

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बताते हैं कि करीब एक सप्ताह पूर्व शशांक शेखर त्रिपाठी अपने बाथरूम में गिर पड़े थे। परिजनों उन्‍हें लेकर तत्काल गाजियाबाद के नर्सिंग होम पहुंचे, जहां डॉक्टरों ने उनकी हालत बेहद गंभीर बतायी। उन्हें सेप्टीसीमिया का खतरा बढ़ता जा रहा था। उनकी जान बचाने के लिए डॉक्टरों ने उनकी छोटी आंत का तीन चौथाई हिस्सा काट कर फेंक दिया। लेकिन इसके बावजूद शेखर त्रिपाठी के स्वास्थ्य में कोई भी सुधार नहीं हो रहा था। डॉक्टरों ने उन्हें बताया था उनके एक के बाद एक सारे अंगो ने काम करना बंद शुरू कर दिया था। डॉक्‍टरों के अनुसार यह एक बेहद नाजुक हालत थी। इसी को देखते हुए डॉक्टरों ने शेखर त्रिपाठी डायलिसिस ले लिया था। बीते रविवार को दो बजे के करीब उनका निधन हो गया।

SURESH GANDHI से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.

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