लेफ्टिस्ट से लेकर राइटिस्ट तक, हर कोई दे रहा राज किशोर को श्रद्धांजलि

वरिष्‍ठ पत्रकार Raj Kishore नहीं रहे। मैं उनके लिखे का प्रशंसक था। आम बोलचाल की भाषा में सरलता-सहजता से वे जिस तरह गंभीर बात लिख जाते थे, वह उन्‍हें विशिष्‍ट बनाता था। हिंदी के अनेक समाचार-पत्रों में उनके स्‍तंभ थे। दैनिक जागरण, जनसत्ता, अमर उजाला आदि में उनके नियमित लेख छपते थे। मैं बड़े ही …

यदि आपको पत्रकारिता में रहना हो तो ब्राह्मणों के इन गुणों को अपने आप में विकसित कीजिए…

Surendra Kishore : बहुत दिनों से मैं सोच रहा था कि आपको अपने बारे में एक खास बात बताऊं। यह भी कि वह खास बात किस तरह मेरे जीवन में बड़े काम की साबित हुई। मैंने 1977 में एक बजुर्ग पत्रकार की नेक सलाह मान कर अपने जीवन में एक खास दिशा तय की। उसका मुझे अपार लाभ मिला। मैंने फरवरी 1977 में अंशकालीन संवाददाता के रूप में दैनिक ‘आज’ का पटना आफिस ज्वाइन किया था। हमारे ब्यूरो चीफ थे पारस नाथ सिंह। उससे पहले वे ‘आज’ के कानपुर संस्करण के स्थानीय संपादक थे। वे ‘आज’ के नई दिल्ली ब्यूरो में भी वर्षों तक काम कर चुके थे। पटना जिले के तारण पुर गांव के प्रतिष्ठित राजपूत परिवार में उनका जन्म हुआ था। वे बाबूराव विष्णु पराड़कर की यशस्वी धारा के पत्रकार थे। विद्वता और शालीनता से भरपूर।

जिंदादिल और जांबाज संपादक थे शशांक शेखर

मौत तो प्रकृति का नियम है। विधि-विधान है। हर एक को इससे गुजरना है। लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं, जो भुलाए नहीं भूलतीं। कुछ लोगों की जांबाजी आंखों के सामने तैरती रहती है। उन्हीं में से एक थे शशांक शेखर त्रिपाठी जो न सिर्फ पत्रकारों की शान थे, बल्कि पत्रकारों का उत्पीड़न उनके लिए अक्षम्य अपराध था। कहते थे, पत्रकार औरों के लिए लड़ता है, पर अपने लिए कहां बोल पाता है! उनका यूं चले जाना अंदर तक झकझोरने वाला है। भला यह भी कोई उम्र होती है जाने की। 55 की उम्र में वह चले गए। वे असल जीवन में भी पत्रकार थे। खुशदिल और खुशमिजाज थे… पढ़िए उनके साथ काम कर चुके पत्रकार सुरेश गांधी की रिपोर्ट…

हमारे कमांडर शेखर त्रिपाठी कहां रुकने वाले थे…

‘शिखर तक चलो, मेरे साथ चलो।’ यह सोच थी वरिष्ठ पत्रकार शशांक शेखर त्रिपाठी जी की। सकारात्मक चिंतन और मानवीय मूल्यों के लिए वह अड़ते थे, लड़ते थे। चाहे अपना हो या पराया। पत्रकारिता से लेकर समाजसेवा तक। तराई में फैले आतंकवाद की समस्या रही हो या फिर बदायूं का दंगा। प्रतिद्वंदी अखबारों को पछाड़ने के लिए जांबाज कमांडर की तरह अपने साथियों का नेतृत्व खुद करते थे।