सहकर्मियों के संरक्षक और यारों के यार शेखर त्रिपाठी की आखिरी यात्रा की कुछ तस्वीरें

स्मृतिशेष :  प्रिंट, इलेक्ट्रॉनिक और वेब मीडिया के धुरंधर खिलाड़ी शशांक शेखर त्रिपाठी नहीं रहे। यह बार बार कहने, सुनने, फोटो देखने पर भी अहसास कर पाना मुश्किल होता है। करीब दस दिन पहले लखनऊ के पत्रकार साथी कुमार सौवीर ने अपनी फेसबुक वाल पर लिखा कि शेखर कौशांबी के यशोदा अस्पताल में भर्ती हैं। यूं तो यशोदा हॉस्पिटल का नाम सुनकर हल्की सिहरन होती है कि जब कोई गंभीर मामला होता है, तभी इस पांच सितारा मल्टी स्पेशलिटी हॉस्पिटल में जाता है, लेकिन शेखर का मकान कौशांबी में ही है। ऐसे में बात आई-गई हो गई। फिर 5 दिन बाद शेखर के एक साथी प्रभु राजदान ने शाम को घबराई हालत में फोन किया और कहा कि आपको पता है कि शेखर त्रिपाठी हॉस्पिटल में एडमिट हैं?

जिंदादिल और जांबाज संपादक थे शशांक शेखर

मौत तो प्रकृति का नियम है। विधि-विधान है। हर एक को इससे गुजरना है। लेकिन कुछ मौतें ऐसी होती हैं, जो भुलाए नहीं भूलतीं। कुछ लोगों की जांबाजी आंखों के सामने तैरती रहती है। उन्हीं में से एक थे शशांक शेखर त्रिपाठी जो न सिर्फ पत्रकारों की शान थे, बल्कि पत्रकारों का उत्पीड़न उनके लिए अक्षम्य अपराध था। कहते थे, पत्रकार औरों के लिए लड़ता है, पर अपने लिए कहां बोल पाता है! उनका यूं चले जाना अंदर तक झकझोरने वाला है। भला यह भी कोई उम्र होती है जाने की। 55 की उम्र में वह चले गए। वे असल जीवन में भी पत्रकार थे। खुशदिल और खुशमिजाज थे… पढ़िए उनके साथ काम कर चुके पत्रकार सुरेश गांधी की रिपोर्ट…

हमारे कमांडर शेखर त्रिपाठी कहां रुकने वाले थे…

‘शिखर तक चलो, मेरे साथ चलो।’ यह सोच थी वरिष्ठ पत्रकार शशांक शेखर त्रिपाठी जी की। सकारात्मक चिंतन और मानवीय मूल्यों के लिए वह अड़ते थे, लड़ते थे। चाहे अपना हो या पराया। पत्रकारिता से लेकर समाजसेवा तक। तराई में फैले आतंकवाद की समस्या रही हो या फिर बदायूं का दंगा। प्रतिद्वंदी अखबारों को पछाड़ने के लिए जांबाज कमांडर की तरह अपने साथियों का नेतृत्व खुद करते थे।