Rajeev Sharma-
मजबूरी का नाम सरकारी स्कूल है…. दस अक्टूबर, 2023 को समाचार एजेंसी ‘भाषा’ की एक ख़बर सभी अख़बारों को पहले पन्ने पर प्रमुखता से छापनी चाहिए थी, लेकिन ज़्यादातर ने उसे कोई महत्त्व नहीं दिया। ख़बर का शीर्षक था- ‘सरकार गरीबों को अपने बच्चे निजी स्कूलों में भेजने के लिए मजबूर कर रही: कर्नाटक उच्च न्यायालय।’
इसकी कुछ पंक्तियाँ और पढ़िए-
मुख्य न्यायाधीश प्रसन्ना बी वराले और न्यायमूर्ति कृष्णा एस दीक्षित की पीठ ने कहा, ‘क्या शिक्षा सिर्फ विशेषाधिकार वाले बच्चों के लिए आरक्षित है?’
न्यायालय ने कहा, ‘क्या राज्य को यह सब बताना हमारा काम है? यह सब कई वर्षों से चला आ रहा है। बजट में विद्यालयों और शिक्षा विभाग के लिए कुछ राशि दिखाई जाती है। उस राशि का क्या हुआ?’
न्यायालय ने कहा, ‘शिक्षा एक मौलिक अधिकार है, लेकिन सरकार सरकारी स्कूलों में सुविधाएं मुहैया कराने में विफल रही, जिसकी वजह से गरीब लोगों को अपने बच्चे निजी स्कूलों में भेजने के लिए मजबूर होना पड़ा। इससे अप्रत्यक्ष रूप से निजी स्कूलों को फायदा पहुंच रहा है।’
वास्तव में सरकारी स्कूलों में सुविधाएं और पढ़ाई के स्तर को लेकर कई बार हंगामा मचा, लेकिन आख़िर में हालात ‘ढाक के तीन पात’ वाले ही रहे। यहां मैं सिर्फ़ कर्नाटक की बात नहीं कर रहा, सभी राज्यों में सरकारी स्कूलों के हालात कमोबेश एक जैसी ही हैं। कुछ अपवाद हो सकते हैं, जो कि हर जगह होते हैं।
मैं ख़ुद सरकारी स्कूल में पढ़ा हूँ। आज सरकारी स्कूलों में कौन पढ़ने जाता है? ग़रीब और किसान के बच्चे, ऐसे परिवारों के बच्चे, जिनके पास निजी स्कूलों में पढ़ाई के लिए संसाधन नहीं हैं। दूसरे शब्दों में कहें जो मजबूरी का नाम सरकारी स्कूल है।
अगर आज इन बच्चों के माता-पिता के सामने प्रस्ताव रखा जाए कि एक तरफ सरकारी स्कूल है, दूसरी तरफ शहर का नामी निजी स्कूल है, आप रुपयों की चिंता न करें, बस यह बताएं कि बच्चे को किसमें भेजना चाहेंगे, तो ज़्यादातर निजी स्कूलों का विकल्प चुनेंगे।
हर साल जब परीक्षा परिणाम आते हैं तो अख़बारों में निजी स्कूलों की चकाचौंध छाई रहती है। कहीं-कहीं सरकारी स्कूलों की कहानियां भी मिल जाती हैं, लेकिन ऐसा बहुत कम होता है। सरकारी स्कूलों के शिक्षक बहुत अध्ययन व कड़ी मेहनत के बाद परीक्षा पास करते हैं। फिर उस पद तक पहुंचते हैं। उनका वेतन भी तुलनात्मक रूप से ज़्यादा होता है। फिर ऐसी क्या वजह है कि न तो सरकारी स्कूलों के हालात में कोई ख़ास तब्दीली आती है और न ही परीक्षा परिणाम खास उत्साहजनक होते हैं?
मैं कोई शिक्षक या ज्ञानी नहीं हूँ, लेकिन अपने थोड़े-बहुत अनुभव से कह सकता हूँ कि ऐसा सरकारों की अनदेखी की वजह से हो रहा है। मैं इस कथन से सहमत नहीं हूँ कि सरकारी स्कूलों के शिक्षक पढ़ाते नहीं हैं या मेहनत नहीं करते। कुछ लोग ऐसे हो सकते हैं, सब ऐसे नहीं हैं। मैं जिन शिक्षकों से पढ़ा, उनमें से ज़्यादातर बहुत मेहनती थे।
पता नहीं मेरा यह मानना कितना सही या कितना ग़लत है, लेकिन दिन-प्रतिदिन इस बात को लेकर विश्वास मजबूत होता जा रहा है कि सरकारें ख़ुद नहीं चाहतीं कि सरकारी स्कूलों का भला हो। बड़े-बड़े नेता (मंत्री, सांसद, विधायक आदि) और सरकारी अफ़सर ख़ुद नहीं चाहते कि सरकारी स्कूल के बच्चों की दशा सुधरे।
आप ख़ुद देखिए- कितने नेताओं के बच्चे/पोते-पोतियाँ उस क्षेत्र के सरकारी स्कूलों में पढ़ाई कर रहे हैं, जहाँ वे वोट माँगने जाते हैं? आज कितने सरकारी कर्मचारियों / अफ़सरों के बच्चे उन सरकारी स्कूलों में पढ़ने जाते हैं, जहाँ ग़रीब व संसाधनहीन परिवारों के बच्चे पढ़ते हैं? मैंने तो ऐसे सरकारी शिक्षक देखे हैं, जो अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजते हैं!
अख़बारों में छपता है … किसी सरकारी स्कूल की टंकी में कीड़े पड़ गए हैं, इस पानी से बच्चे बीमार हो सकते हैं। … स्कूल की छत टूट गई है, किसी भी वक़्त हादसा हो सकता है। … बरसात में सड़क टूट गई है, आवागमन मुश्किल हो गया है। … पोषाहार में छिपकली निकल आई है!
अगर मुझे एक महीने के लिए सरकारी स्कूलों का ज़िम्मा दे दिया जाए तो इनकी हालत में ऐसा सुधार कर सकता हूँ, जो आज तक बड़े-बड़े ‘बुद्धिजीवी’ नहीं कर पाए। सबसे पहले तो सभी नेताओं (मंत्री, सांसद, विधायक आदि) और सरकारी अधिकारियों / कर्मचारियों के लिए यह कठोर क़ानून बनाया जाए कि वे अपनी संतान की स्कूली शिक्षा सरकारी स्कूलों से ही करवाएँगे। यह नहीं हो सकता कि वेतन सरकार से लें और अपने बच्चों को निजी स्कूलों में भेजें। जहाँ किसान का बच्चा पढ़ेगा, वहीं कलेक्टर साहब और मंत्री महोदय का बच्चा पढ़ेगा। अगर यह शर्त नहीं माननी है तो इस्तीफ़ा दें और घर जाएँ।
अगर ऐसा हो गया तो कलेक्टर साहब और मंत्रीजी स्कूल के प्रधानाध्यापक को रोज़ाना फ़ोन करके पूछेंगे कि मास्टरजी, पानी की टंकी तो साफ़ है ना … स्कूल की छत तो नहीं टूटी है … सड़क ठीक है कि नहीं … पोषाहार में कोई छिपकली या कीड़ा तो नहीं है …! कौन अफ़सर या नेता चाहेगा कि उसका बच्चा दु:ख भोगे? स्कूल प्रशासन को भी लगेगा कि हम पर लगातार नज़र रखी जा रही है, इसलिए वे दबाव में ज़्यादा ध्यान से काम करेंगे। चूँकि अभी तो वहाँ ग़रीबों के बच्चे पढ़ने जाते हैं, इसलिए किसी को परवाह नहीं है।
यह दुर्भाग्य रहा कि आज़ादी के तुरंत बाद सरकारों ने ऐसा क़ानून बनाने में कोई दिलचस्पी नहीं ली। आज जनता को जाति और धर्म के नाम पर बाँटकर वोटबैंक की राजनीति की जा रही है। ख़बरिया चैनल ऐसे मुद्दे नहीं उठाते। मोदीजी और राहुलजी इतने बड़े नेता बन गए हैं कि अब आम आदमी की आवाज़ उन तक नहीं पहुँचेगी। थोड़ी-बहुत उम्मीद अरविंद केजरीवाल से थी। अब उन पर भी दूसरी पार्टियों का रंग चढ़ने लगा है। बच गई जनता, उसका क्या है? वह तो पैन कार्ड को आधार कार्ड से जुड़वाने के लिए ही पैदा हुई है।
.. राजीव शर्मा ..
कोलसिया, झुंझुनूं, राजस्थान