आज कुछ ऐसी खबरों की चर्चा करूंगा जिससे भिन्न मामलों में अदालतों के दिलचस्प रुख का पता चलता है पर अखबारों की खबरों में ऐसा नहीं है। अदालतों के फैसले की आलोचना नहीं होनी चाहिये पर उसमें राजनीति नजर आये तो उसकी चर्चा समाज और राजनीति के भले के लिए होनी ही चाहिये। मीडिया में यह चर्चा हो रही होती तो शायद ऐसा नहीं होता। पहले की सरकारों पर आरोप था कि वह जजों को ईनाम देती है पर अब तो हालत ज्यादा बुरी है। ईनाम, उसके कारण समझना मुश्किल नहीं है। ईनाम का लालच या लोया होने का डर देश और समाज के लिए खतरनाक है। मुझे खुशी है कि मैं इमरजेंसी के बाद ‘अच्छे दिन’ देख पाया और इस चुनाव के नतीजे तथा उसके बाद की स्थितियां भी देख सकूंगा।
संजय कुमार सिंह
जब जज इस्तीफा देकर चुनाव लड़ने के लिए सत्तारूढ़ दल का टिकट पा सकते हैं, पेंशन वाली नौकरी के बावजूद रिटायरमेंट के बाद की नौकरी की चिन्ता कर सकते हैं और चुनाव लड़ रहे हैं तो इसका संबंध सामाजिक स्थिति से है और चूंकि सामाजिक स्थिति राजनीति से प्रभावित होती है और मौजूदा प्रधानमंत्री खुद को देशभक्ति तथा विरोधियों को देशद्रोही और अर्बन नक्सल आदि कहते रहे हैं तो जरूरी है कि अदालत के फैसलों और टिप्पणी की समीक्षा हो। यह काम मीडिया का है और वह नहीं कर रहा है तो किसी न किसी को करना चाहिये। खासकर इसलिए भी कि मीडिया की आजादी और उसके विशेषाधिकार भी खत्म कर दिये गये हैं। भले दुरुपोयग के काम और इस तरह पूरा मामला व्यवस्था का है जो जारी है। आज के अखबारों की खबरों में जो राजनीति दिख रही है उसकी चर्चा जरूरी है। मुझे लगता है कि अदालतों पर देश की राजनीति का प्रभाव या दबाव कुछ तो है। हालांकि, यह मेरी चिन्ता का विषय नहीं है और ना मैं उसपर चिन्ता करने में सक्षम हूं पर जो दिख रहा है उसे समझने औऱ बताने की कोशिश तो कर ही सकता हूं। इसलिए आज पहले पन्ने पर अदालत की जो खबरें हैं उसकी चर्चा करता हूं। पहले दिल्ली के मुख्यमंत्री का मामला और फिर पश्चिम बंगाल सरकार से संबंधित दो मामले।
इसके अलावा आज जो खबरें हैं – आज ज्यादातर अखबारों में लीड, केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह का डॉक्टर्ड वीडियो सोशल मीडिया पर साझा करने के लिए तेलंगाना के मुख्यमंत्री ए रेवंत रेड्डी के खिलाफ मामला दर्ज हुआ है। दूसरी खबर जनता दल (एस) के सांसद उम्मीदवार प्रज्वल रेवन्ना के वीडियो और उन्हें मुअत्तल किये जाने की तैयारी की खबर है। हालांकि, शीर्षक लगभग सब में अलग है। तीसरी खबर, संसद की सुरक्षा अब दिल्ली पुलिस की जगह, सीआईएसएफ करेगी। 4) चिकित्सकों के नए नजरिये के बाद बलात्कार पीड़ित 14 साल की एक लड़की का गर्भपात कराने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश को सर्वोच्च अदालत ने वापस ले लिया है। 5) एक खबर यह भी है (अमर उजाला) – जमानत के लिए ट्रायल कोर्ट क्यों नहीं गये केजरीवाल, सुप्रीम कोर्ट ने सीएम से पूछा …. ईडी के नौ समन पर पूछताछ के लिए पेश क्यों नहीं हुए। 6) कोविड के टीके से जम सकता है खून का थक्का और 7) अब इंदौर में कांग्रेस प्रत्याशी ने वापस लिया नाम।
इन सभी खबरों में मुझे इस खबर पर चर्चा की जरूरत लगती है क्योंकि अभी दिल्ली के मुख्यमंत्री जेल में हैं और चुनाव के बाद संभव है कि किसी भी दल को बहुमत न मिले। तब जो भी प्रधानमंत्री होगा वह राजनीतिक रूप से मजबूत नहीं हुआ तो क्या उसकी गिरफ्तारी हो सकेगी? अगर हां, तो क्या वह हेमंत सोरेन की तरह इस्तीफा देने का मजबूर होगा (या ये वाला विकल्प चुनेगा) या अरविन्द केजरीवाल की तरह इस्तीफा नहीं देगा। ऐसे में क्या यह संभव है कि प्रधानमंत्री भी जेल में रहें और मुकदमा चले। क्या तब भी वही तर्क और दलीलें होंगी जो अभी मुख्यमंत्री के लिए लिये हैं। किसी की गवाही, उसे वायदा माफ गवाह बनाना मुझे भविष्य में भी संभव लग रहा है और मैं तब की चिन्ता कर रहा हूं। खासकर क्या तब भी अदालतों का रुख यही होगा। आइये, देखें मामला क्या है। दिल्ली के मुख्यमंत्री के मामले में हाईकोर्ट के आदेश को जानने की उत्सुकता यू ट्यूब पर एक वीडियो देखकर हुई जिसमें कहा गया था कि दिल्ली हाईकोर्ट अरविन्द केजरीवाल को इस्तीफा देने के लिए कह सकता है। इससे पहले मैं अखबारों में पढ़ चुका था कि हाईकोर्ट ने इस मामले में अपील स्वीकार नहीं की और एक मामले में तो याचिकाकर्ता पर जुर्माना भी लगाया था। इसके बावजूद फिर अपील की गई थी और यह उम्मीद मेरे लिए अदालतों की कार्यशैली की समझ पर सवाल की तरह थी।
मैं यही समझ रहा हूं कि एक निर्वाचित मुख्यमंत्री को अदालत इस्तीफा देने के लिए कहे तो निर्वाचन की पूरी प्रक्रिया का क्या होगा और सवाल प्रक्रिया के पालन पर हो तो बात अलग होगी। यहां तक कि महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने विधायकों के दलबदल या समर्थन न होने की घोषणा भर से विधानसभा में शक्ति परीक्षण से पहले ही इस्तीफा दे दिया था। इस मामले में सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद ऐसी खबरें छपी थीं कि मुख्यमंत्री को इस्तीफा नहीं देना चाहिये था और नहीं दिया होता तो स्थिति कुछ और होती। यही नहीं, विधायकों का समर्थन बदलने के बाद विधानसभा अध्यक्ष को जो फैसला करना था उसमें भी देरी हुई थी। यह अलग बात है कि मुख्यमंत्री को इस्तीफे का फायदा चुनाव में मिल सकता है। इसी तरह झारखंड के मुख्यमंत्री का मामला है। अगर उन्होंने इस्तीफा नहीं दिया होता तो क्या देश के दो-दो राज्य मुख्यमंत्री के बिना चल रहे होते। क्या मुख्यमंत्री जेल में रहकर भी अपने लोगों और उनकी संख्या के प्रति केजरीवाल की तरह आश्वस्त होते तो मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देते? जाहिर है, उनका मुख्यमंत्री नहीं रहना (और जेल में होना) जनादेश नहीं है और वे सरकारी एजेंसियों की इच्छा या कार्रवाई के कारण मुख्यमंत्री नहीं हैं या जेल में हैं। ऐसे में जनादेश का क्या हुआ?
दोनों मामलों में चूंकि अदालतों से राहत नहीं मिली इसलिए कहा जा सकता है कि जनादेश की रक्षा नहीं हुई या अदालतों ने नहीं किया या कर पाईं। मैं नहीं जानता कि जनादेश की रक्षा कानून का पालन है कि नहीं और यह अदालतों का काम या जिम्मेदारी है कि नहीं और अदालती व्यवस्था में जनादेश के अनुपालन की जिम्मेदारी किसकी है। हिन्दुस्तान टाइम्स में आज लीड तो कर्नाटक के रेवन्ना की खबर ही है पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के मामले में हाईकोर्ट का यह फैसला सेकेंड लीड है कि मुख्यमंत्री का पद आनुष्ठानिक नहीं है। यह खबर इंडियन एक्सप्रेस में भी पहले पन्ने पर है। यहां शीर्षक है, मुख्यमंत्री को अनिश्चित अवधि के लिए अनुपस्थित नहीं होना चाहिये। मुझे लगता है कि इसमें कुछ नया नहीं है, सबको पता है और हाईकोर्ट को पहले से पता रहा होगा। निजी क्षेत्र की नौकरी तो चली ही जाती है सरकारी नौकरी भी जेल जाने वालों के लिए मुश्किल है। लेकिन मुख्यमंत्री का जेल में होना विपक्षी नेताओं के लिए मुश्किल साबित हो रहा है खासकर इससे कि इतने भर से कोई मान नहीं रहा है कि मुख्यमंत्री भ्रष्ट हैं।
हिन्दुस्तान टाइम्स में इस खबर का हाईलाइट किया हुआ अंश हिन्दी में इस प्रकार होगा, “मुख्यमंत्री की भूमिका पर (हाइकोर्ट ने जो कहा) – दिल्ली जैसे चहल-पहल वाले राजधानी शहर की तो छोड़िये, किसी भी राज्य में मुख्यमंत्री का पद आनुष्ठानिक नहीं है। यह एक ऐसा पद है जहां इसपर रहने वाले को 24x7 वास्तव में उपलब्ध होना होना होता है ताकि किसी भी संकट से निपटा जा सके … राष्ट्रहित और जनहित की मांग है कि इस पद पर बैठा कोई भी व्यक्ति संपर्क से दूर न हो। मुझे लगता है कि इसी कारण गिरफ्तारी गलत है और उन्हें हिरासत में नहीं लिया जाना चाहिये था। यहां दिलचस्प है कि इसीकारण मुख्यमंत्री ने जमानत की अपील नहीं की है। मुझे याद है कि गिरफ्तारी की रात सुप्रीमकोर्ट में अपील की गई थी पर अगले दिन बेंच आवंटित होने के बाद अपील को वापस ले लिया गया था और कल सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई के दौरान यह स्वीकार किया गया कि जमानत की अपील नहीं की गई है।
ऐसा नहीं है कि कई हजार करोड़ के इलेक्टोरल बांड को असंवैधानिक करार दिये जाने के बावजूद प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि विरोध करने वालों को पछताना पड़ेगा और वित्त मंत्री ने कहा है कि (संशोधन के बाद) उसे फिर लाया जायेगा। यह लगभग साबित है और नहीं तो मानने का पर्याप्त आधार है कि इसके जरिये वसूली हुई है। पर कोई कार्रवाई नहीं हुई है जबकि कुछ सौ के कथित घोटाले के लिए मुख्यमंत्री को जेल में रखा गया है। मनी लांडरिंग का मामला बनाया गया है और पैसा बरामद नहीं हुआ है तथा बताया जा रहा है कि चुनाव में खर्च हो गया। इलेक्टोरल बांड से वसूली के पैसे भी (वसूली नहीं हैं तब भी) चुनाव लड़ने के लिए भी भिन्न दलों को दिये लिये गये हैं। जब उसमें कार्रवाई नहीं हो रही है तो इसमें क्यों जरूरी है और जरूरी हो तो भी चुनाव के समय मुख्यमंत्री को जेल में रखना क्यों जरूरी है। हाईकोर्ट जब स्वीकार कर रहा है कि मुख्यमंत्री जैसे व्यक्ति को जेल में नहीं होना चाहिये तो कोई और व्यवस्था क्यों नहीं कर रहा है या कौन करेगा। यहां आम आदमी पार्टी के नेता संजय सिंह का यह कहना महत्वपूर्ण है कि …. इस्तीफा नहीं देने का उनका निर्णय केंद्र सरकार की तानाशाही के खिलाफ है। मुझे लगता है कि यह भी बताने वाली बात नहीं है। कोई भी समझ रहा है। मुझे लगता है कि पहले ऐसी हालत होती तो सुप्रीम कोर्ट स्वंय संज्ञान लेकर कार्रवाई करता और इस बार प्राथमिकता पर सुनवाई नहीं हुई। जो भी हो, कल सुनवाई हुई थी और आज जारी रहनी थी।
अखबार में जो दूसरा हिस्सा हाइलाइट किया गया है उससे समझ में आता है कि हाईकोर्ट में यह याचिका क्यों स्वीकार की गई होगी और क्यों ऐसा निर्णय है। चूंकि फैसले पर टिप्पणी करना मेरा मकसद नहीं है इसलिए उसे रहने देता हूं। आपकी सुविधा के लिए संबंधित अंश हिन्दी में इस प्रकार होगा, “पद पर बने रहने का निर्णय … उनका अपना है (पार्टी और समर्थकों के साथ रणनीतिकारों का भी, कह सकते हैं)। हालांकि, इसका मतलब यह नहीं है कि मुख्यमंत्री के उपलब्ध नहीं होने से बच्चों के अधिकार बाधित होंगे और उन्हें पहला टर्म मुफ्त पुस्तकों, लेखन सामग्री और यूनिफॉर्म के बिना गुजारना होगा। यह याचिका जब अदालत में दायर की गई थी तो उसकी खबर टाइम्स ऑफ इंडिया में पहले पन्ने पर छपी थी। उस दिन मैंने यहां लिखा था, शीर्षक है, (दिल्ली) हाईकोर्ट ने आम आदमी पार्टी की सरकार से कहा, आपने निजी हित को राष्ट्रीय हित से ऊपर रखा है। एमसीडी स्कूल के छात्रों को पुस्तकें नहीं मिलने पर नाराजगी जताई। … इसके साथ की जो बातें हम जानते हैं उसके आधार पर कह सकते हैं कि आप की सरकार से अगर कोई शिकायत है तो वह इसलिए भी होगी कि उसके मंत्री, मुख्यमंत्री और कई लोग जेल में हैं।
यह देश के एक गैर कांग्रेसी राजनीतिक दल की दशा और अदालत का उसका रुख है। दूसरा मामला पश्चिम बंगाल का है जहां केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा पांव जमाना चाहती है और आम आदमी की तरह तृणमूल कांग्रेस से भी भिड़ी हुई है। आज हाईकोर्ट से संबंधित बंगाल की दो खबरें हैं। दोनों खबरें कोलकाता के अंग्रेजी अखबार, द टेलीग्राफ में एक साथ लीड हैं। फ्लैग शीर्षक है, (शिक्षकों की) नियुक्ति के मामले में राहत, शाहजहां के मामले में तकलीफ। मुख्य शीर्षक है, शिक्षकों की नियुक्ति की सीबीआई जांच पर सुप्रीम कोर्ट का स्टे। दूसरी खबर इसके साथ सिंगल कॉलम में है। इसका शीर्षक है, “राज्य सरकार आम नागरिकों (प्राइवेट इंडीविजुअल्स) का समर्थन क्यों कर रही है?” बंगाल सरकार के दो मामले सुप्रीम कोर्ट में थे एक में तो उसे राहत मिल गई है और आगे की सुनवाई 6 मई को होगी। दूसरा मामला संदेशखाली का था जिसे भाजपा हवा दे रही है। मीडिया और सोशल मीडिया पर संदेशखली के अभियुक्त शाहजहां के खिलाफ जो माहौल है वह कर्नाटक में करीब 3000 महिलाओं से यौन दुर्व्यवहार के आरोपी और उसका वीडियो बनाकर रखने वाले पूर्व प्रधानमंत्री के पोते के खिलाफ नहीं है। शाहजहां के खिलाफ कार्रवाई चल रही है और पूर्व प्रधानमंत्री का पोता जो भाजपा समर्थित पार्टी का सांसद उम्मीदवार है, देश छोड़कर जर्मनी भाग चुका है। हंगामा इसपर भी उतना ही होना चाहिये परकेंद्र सरकार के लिए सिर्फ संदेशखाली मुद्दा हो तो राज्य सरकार भी क्या करे।
खासकर इसलिए कि, केंद्रीय एजेंसियों की जांच के नाम पर राज्य सरकार को चुनाव के इस समय बदनाम किया जाये। इस क्रम में उल्लेखनीय है कि राज्य में बहुत सारे हथियार पकड़े जाने की खबर आई थी। इसपर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा था कि संभव है, हथियार केंद्रीय एजेंसियों ने ही रखे हों। यही नहीं वे कह चुकी हैं कि राम नवमी का समय है और बंगाल में पटाखा भी चल जाये तो केंद्र सरकार की एजेंसी सीबीआई या एनआईए जांच के लिए आ जायेगी। मुझे लगता है कि चुनाव के समय केंद्र सरकार की इस तरह की राजनीति अनुचित है और सुप्रीम कोर्ट अगर ऐसे मामले समय पर नहीं सुने तो राज्य सरकार को राजनीतिक नुकसान हो सकता है। कानूनी स्थिति की जानकारी मुझे नहीं है। पर केंद्र सरकार जो कर रही है उसपर बंगाल सरकार को एतराज है तो मामला वैसा ही है और अदालत का फैसला रेखांकित करने लायक है। इसलिए भी कि ऐसा भविष्य में भी होगा।
मेरा मानना है कि देश में लंबे समय तक कांग्रेस का शासन रहा। इमरजेंसी के बाद जिस विपक्ष को मौका मिला वह पांच साल सत्ता नहीं चला सका और उसके बाद त्रिशंकु लोकसभा और उसकी कहानियां रहीं। आजादी के बाद पहली बार जब किसी गैर कांग्रेसी पार्टी को बहुमत के साथ सत्ता मिली तो एक तीसरा राजनीतिक दल उभर रहा था जो देश और लोकतंत्र के लिए जरूरी है। इसने दिल्ली में भाजपा और कांग्रेस को अच्छी टक्कर दी। नतीजे में दिल्ली विधानसभा और नगर निगम में बहुमत है। काम तो अच्छा कर ही रही थी, अच्छे लोगों को भी राजनीति में लाई है। फिर भी उसके साथ ज्यादती हो रही है। जनहित में सबसे अच्छा काम कर रहे उसके मंत्री जेल में हैं और अब तो मुख्यमंत्री भी। देशभक्ति का दावा और विदेशी ताकतों पर खुद को अस्थिर करने की कोशिश का आरोप लगाने वाले नरेन्द्र मोदी की पार्टी चाहती है कि इससे मुकाबला ही नहीं हो। चाहती तो वह कांग्रेस मुक्त भारत भी थी। पर राहुल गांधी ने कहा था वे हरायेंगे और कोशिश में लगे हैं। इसके लिए आम आदमी पार्टी को साथ लिया है। भले उनकी पार्टी के लवली जैसों को समझ में नहीं आये। इस तरह देश की राजनीति में जो हो रहा है वह चिन्ताजनक है और उसपर जजों का यह रवैया और टिकट लेकर चुनाव लड़ना पत्रकारों के काम को मुश्किल बना देता है। लेकिन पत्रकार भी संस्थान के बिना क्या कुछ कर पायेंगे? मजबूत मीडिया संस्थानों के साथ जो हुआ उसकी कहानी भी आप जानते ही हैं।