दीपांकर-
गलगोटिया ने विज्ञापन दे-देकर उत्तर भारत के अखबार पाट दिए, मैगजीनों में रंग भर दिए. इंडिया टूडे मैग्जीन तो इनकी फेवरेट थी, हचक के इम्पैक्ट फीचर स्टोरीज हुईं. टीवी चैनलों पर भी खूब विज्ञापन, आज तक पर भी विज्ञापन आते रहे हैं.
शायद विज्ञापन की ही ताकत रही होगी कि जब गलगोटिया के 40-50 छात्रों को कांग्रेस के खिलाफ प्रदर्शन करने के लिए फील्ड किया गया तो उसे कवर करने के लिए आजतक का पत्रकार पहुंचा. फोन करके बताया गया होगा कि गलगोटिया के छात्र आज कांग्रेस मुख्यालय पर प्रदर्शन करेंगे, पहुंचिए, विज्ञापन देते हैं तो कवरेज भी चाहिए.
लेकिन आजतक पत्रकार ने प्रायोजित प्रोटेस्ट को प्रायोजित तरीके से कवर नहीं किया बल्कि उसने प्रदर्शन में स्टूडेंट्स से बेसिक क्वेश्चन पूछ लिए. क्योंकि ये सिर्फ प्रदर्शन में शामिल भीड़ भर नहीं थी पढ़े लिखे स्टूडेंट्स थे तो पत्रकार की उम्मीदें ज्यादा थी,
बदले में स्टूडेंट्स प्लेकार्ड पर लिखे नारे तक शुद्ध उच्चारण करके नहीं पढ़ पाए, सिंपल हिन्दी अंग्रेजी पढ़ने में अटकने लगे. न वेल्थ का पता न डिस्ट्रीब्यूशन का लेकिन प्रदर्शन वेल्थ डिस्ट्रीब्यूशन के मुद्दे पर कर रहे थे. आए थे स्टूडेंट्स बनकर लेकिन वाट्सऐप यूनिवर्सिटी के अंकिल की भाषा बोलने लगे.
सब कुछ सेट था छात्रों को बस में भरकर लुटियंस दिल्ली में पहुंचा दिया गया था, दूसरी तरफ से मीडिया तैनात थी कवरेज के लिए. माहौल बनने ही वाला था लेकिन एक साधारण से पत्रकार के दो चार साधारण से प्रश्नों ने विश्वविद्यालय के करोड़ों के विज्ञापन पर कालिख पोत कर उसे कूड़ा बना दिया.