सिद्धार्थ ताबिश-
मेरी बहन जब नेदरलैंड्स में रह रही थी तब एक बार वो बहुत अधिक बीमार हो गयी थी और वो जब डॉक्टर के पास गयी तो डॉक्टर ने सिर्फ़ कुछ टेस्ट किये और कोई भी दवाई नहीं दी. करीब एक हफ़्ते के बाद उसने कुछ विटामिन की गोलियां दीं खाने के लिए. मेरी बहन बहुत परेशान थी कि बिना किसी दवा के कैसे मैं ठीक हो जाउंगी. क्यूंकि उसे भारत के डोक्टरों की आदात थी. जो मरीज़ के पहुँचते ही ग्लूकोस चढाते हैं, फिर दो चार इंजेक्शन खोसते हैं. फिर एक कटोरी भर के तीन टाइम दवा खाने को देते हैं. इसलिए मेरी बहन को बस विटामिन की गोली खाना अजीब लगा. उसने लाख डॉक्टर को कहा मगर उसने कोई दवा नहीं दी. और करीब 15 दिन बाद मेरी बहन ठीक होने लगी और फिर पूरी तरह से ठीक हो गयी.
जितने भी विकसित देश हैं उन सभी ने लगभग एंटीबायोटिक दवाओं को देना लगभग बंद ही कर दिया है. खासकर बच्चों को तो अब वो बिलकुल नहीं देते हैं. मगर यहाँ, सिर्फ़ सर्दी ज़ुकाम हो जाए तो डॉक्टर एंटीबायोटिक दे देते हैं. विकसित देशों में तो सर्दी ज़ुकाम की कोई दवाई ही किसी को नहीं दी जाती है. सिर्फ़ संतरे के जूस वगैरह ही पिलाते हैं इम्युनिटी बढाने के लिए. विकसित देशों में बहुत ही सीरियस मर्ज़ में वो दवाएं और इंजेक्शन देते हैं. क्यूंकि वो जानते हैं कि किसी की इम्युनिटी बढ़ाना कहीं बेहतर है उसे दवाई खिलाने से. जबकि भारत में कितने खतरनाक तरीके से दवाईयां खिलाई जाती हैं ये आम लोग जानते ही नहीं हैं.
एक तरह का फैशन है, खासकर पढ़े लिखे लोगों में. सर दर्द हुआ, दवाई खा ली, छींक आई दवाई खा ली. ये इसे बहुत अच्छा और बहुत आधुनिक चीज़ समझते हैं. 99% भारतियों को ये तक नहीं पता है कि किसी भी मर्ज़ से आपका शरीर ही लड़ता है, दवाई नहीं. दवाएं आपके शरीर को एक तरह से “ठेलती” हैं उस बिमारी से लड़ने के लिए. सारा खेल आपके इम्यून सिस्टम का होता है.. अब जैसे जैसे समझदारी बढती जा रही है, विकसित देश समझने लगे हैं कि दवाएं, बचाने से अधिक, हमें “मारती” हैं. मगर भारत के पढ़े लिखे लोग अंधभक्तों की तरह मेडिकल का ऐसे बचाव करते हैं जैसे दवाएं बनाने वाले और रिसर्च करने वाले कोई भगवान हैं. चार करोड़ खर्च करके डॉक्टर की डिग्री लेने वालों को ये भोले लोग भगवान बोलते हैं.
रिपोर्ट के मुताबिक़ अमेरिका में ही सिर्फ़ अंगेजी दवाओं के साइड इफ़ेक्ट और अस्पताल में गलत दवा देने की वजह से ही हर साल ढाई लाख (250000) से ऊपर लोग मरते हैं. ये आंकडा कहीं बड़ा है क्यूंकि जो रिपोर्ट होते हैं उन्हीं को लिस्ट में रखा जाता है. अकेले भारत में चार लाख (400000) से अधिक लोग हर साल अंग्रेज़ी दवाओं के साइड इफ़ेक्ट से मरते हैं और करीब साढ़े सात लाख (750000) लोग अस्पताल के डॉक्टर द्वारा गलत दवाएं देने के कारण. भारत में ये आंकडा कहीं अधिक बड़ा है क्यूंकि यहाँ वैसे भी कुछ रिपोर्ट तो होता नहीं है.
मगर कोई भी संस्था आपको इस बारे में कभी नहीं बताएगी क्यूंकि जैसे दशकों पहले ही सौर्य ऊर्जा से दुनिया की सारी बिजली खपत, सारे वाहन और सारी ऊर्जा की ज़रूरतें पूरी की जा सकती थीं, मगर उसे अभी तक नहीं किया गया क्यूंकि तेल में इतना पैसा लगा हुआ है कि उसे इन्हें आपको बेचना ही है, भले पृथ्वी नष्ट हो जाए. उसी तरह से “मेडिकल” में इतना पैसा और इतने देशों की अर्थव्यवस्था दांव पर लगी हुई है कि इन्हें आपको एंटीबायोटिक और अन्य दवाईयां खिलानी ही होगी, अस्पताल चलाने ही होंगे और लोगों को तमाम साइड इफ़ेक्ट के बावजूद इसे बेचना ही होगा क्यूंकि चार करोड़ खर्च करके जो डॉक्टर बना है और करोड़ों अरबों खर्च करके जिसने अस्पताल खोल रखे हैं, वो ऐसे ही किसी को भी आगे आकर इनका बना बनाया खेल नष्ट करने देगा भला?
मेडिकल इस वक़्त सारी दुनिया की अर्थव्यवस्था की नींव बन चुका है. इसका आपकी बीमारी और स्वास्थ्य से कोई लेना देना नहीं है.. दादी और नानी के नुस्खे से आपकी 95% बीमारियाँ सही हो जाती हैं. मगर इन्हें दवाओं का हव्वा बनाकर आपको ऐसे ही बेवकूफ बनाते रहना है जैसा तेल और सोलर के मामले में इन्होने किया है.