संजय कुमार सिंह
आज के मेरे ज्यादातर अखबारों में राहुल गांधी का रायबरेली से पर्चा भरना बड़ी खबर है। कहने की जरूरत नहीं है कि यह भाजपाई प्रचार है इसीलिए प्रमुखता से छपी है। वरना राजभवन में राज्यपाल पर यौन उत्पीड़न का मामला साधारण नहीं है और आज उसके फॉलोअप में कई विवरण हैं जिसे दिल्ली के मुख्य धारा के अखबारों ने प्रमुखता नहीं दी है। आज कई और महत्वपूर्ण खबरें हैं लेकिन सबसे ज्यादा प्रमुखता राहुल गांधी वाली खबर को मिली है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी और केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह अपने आरोप दोहरा रहे हैं और मुद्दे पर नहीं आ रहे हैं। जैसे शाह का यह कहते रहना कि कर्नाटक सरकार ने प्रज्वल को भागने दिया और प्रज्वल पर नया मामला दर्ज हुआ है की खबर। लेकिन यह मुद्दा नहीं होना कि केंद्र सरकार उसका डिप्लोमैटिक पासपोर्ट क्यों नहीं रद्द कर रही है या कर दिया है? आज की दूसरी प्रमुख खबरे इस प्रकार हैं :
1. बंगाल के राज्यपाल से संबंधित फॉलो अप, गंभीर खबर है पर दिल्ली के अखबारों में पहले पन्ने पर नहीं है या छोटी सी है।
2. सुप्रीम कोर्ट में अरविन्द केजरीवाल की गिरफ्तारी को चुनौती से संबंधित खबर, ईडी की खिंचाई
3. ईडी द्वारा गिरफ्तारी के खिलाफ हेमंत सोरेन की अपील झारखंड हाईकोर्ट ने खारिज की
4. खालिस्तानी नेता और कनाडा के नागरिक हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के सिलसिले में तीन भारतीयों की गिरफ्तारी
5. अमित शाह का यह कहते रहना कि कर्नाटक सरकार ने प्रज्वल को भागने दिया और प्रज्वल पर नया मामला। यह मुद्दा नहीं होना कि केंद्र सरकार उसका डिप्लोमैटिक पासपोर्ट क्यों नहीं रद्द कर रही है या कर दिया है?
6. सेबी ने अदाणी की सात फर्मों को उल्लंघनों के लिए नोटिस जारी किया है
7. उत्तराखंड में 64 जगह और धधके जंगल
8. प्याज पर 40 प्रतिशत निर्यात शुल्क
इन सबके साथ आज रोहित वेमुला की खबर के दिलचस्प शीर्षक हैं।
1. हिन्दुस्तान टाइम्स
तेलंगाना पुलिस, अब कांग्रेस के तहत, ने कहा कि रोहित वेमुला ‘दलित नहीं था’।
2. टाइम्स ऑफ इंडिया
आठ साल बाद तेलंगाना पुलिस ने वेमुला का मामला बंद किया, कहा उसकी आत्महत्या के लिए कोई जिम्मेदार नहीं। हंगामे के बाद आगे जांच के आदेश
3. इंडियन एक्सप्रेस
रोहित वेमुला दलित नहीं था कहकर फाइल बंद करने के महीनों बाद पुलिस ने कहा, आगे जांच कर रही है
4. नवोदय टाइम्स
पुलिस ने क्लोजर रिपोर्ट में कहा रोहित वेमुला नहीं था दलित। दावा, असली पहचान जाहिर होने के डर से की थी आत्महत्या
आज के मेरे ज्यादातर अखबारों में राहुल गांधी का रायबरेली से पर्चा भरना बड़ी खबर है। लेकिन खबर तो कोलकाता के राजभवन की है जो कोलकाता के द टेलीग्राफ में पहले पन्ने पर है। कल इंडियन एक्सप्रेस में थी आज उसका फॉलो अप होना ही चाहिये था पर उसे प्रमुखता नहीं मिली है। खासकर संदेशखाली के मुकाबले। आप जानते हैं कि संदेशखाली में एक तृणमूल विधायक द्वारा कई महिलाओं के यौन शोषण का आरोप महीनों से चर्चित है। कार्रवाई हो रही है पर भाजपा समर्थकों का दावा रहता है कि इसपर लिखना चाहिये। पर वे खुद राजभवन में यौनशोषण पर नहीं लिख पा रहे हैं या जो लिखा है उसे पहले पन्ने पर नहीं छाप रहे हैं। उल्लेखनीय है कि सरकार बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ से लेकर नारी वंदन अधिनियम का ड्रामा कर चुकी है लेकिन कार्यस्थल पर महिलाओं की सुरक्षा के लिए कुछ ठोस नहीं किया है। आलम यह है कि पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर उनके मातहत काम करने वाली महिला ने यौन शोषण का आरोप लगाया था और अब राज्यपाल पर उनके मातहत काम करने वाली महिला ने ऐसा ही आरोप लगाया है। वरिष्ठ पदों पर बैठे लोगों पर ऐसे आरोप लगने ही नहीं चाहिये और लगे तो संतोषजनक कार्रवाई होनी चाहिये जिससे आरोपी को लगे कि वह अकेले या कमजोर नहीं है। मुख्य न्यायाधीश के मामले में जो हुआ सो हुआ और अब राज्यपाल का मामला है। इसमें कार्रवाई तो बात की बात है आज खबर नहीं के बराबर छपी है।
राहुल गांधी का उत्तर प्रदेश या भारत से लोकसभा चुनाव लड़ना कोई जरूरी नहीं था। वे वायनाड से सांसद थे और इसबार फिर वहां से लड़ रहे हैं – देश में अगर भाजपा को बहुमत नहीं मिलता है और विपक्षी दलों को मिलाकर संख्या पूरे हो जाएं तो भाजपा को सत्ता से हटाने, प्रधानमंत्री बनने या किसी और को प्रधानमंत्री बनाने में भूमिका निभाने के लिए एक जगह से सांसद होना पर्याप्त हैं। कायदे से इसकी भी जरूरत नहीं है और शपथ लेकर छह महीने के अंदर किसी भी लोकसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर अगर जीत गये तो प्रधानमंत्री बने रह सकते हैं और यह राहुल गांधी ही नहीं, किसी के लिए भी सही है। पर राहुल गांधी के मामले में ऐसा माहौल बना दिया गया जैसे उनका उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत से चुनाव लड़ना जरूरी हो। नरेन्द्र मोदी के मामले में ऐसा नहीं है। पहली बार तो उन्हें गंगा मां ने बुलाया था पर तीसरी बार भी वे बनारस से ही लड़ रहे हैं गुजरात या दक्षिण भारत से लड़ने की जरूरत उनके लिए नहीं है। वे गुजरात छोड़कर नहीं भागे हैं और ना आसान जीत के लिए या किसी और उद्देश्य से बनारस आये हैं। उनका बनारस से लड़ना और लड़ते रहना सामान्य है, राहुल गांधी के लिए उत्तर भारत से लड़ना जरूरी बना दिया गया था और आज की खबरें व अखबार ऐसे ही हैं।
अमर उजाला की आज की लीड का शीर्षक है, राहुल गांधी रायबरेली से मैदान में, 25 साल बाद अमेठी से गांधी परिवार का कोई प्रत्याशी नहीं। इसके साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी क तंज, डरो मत भागो मत भी है। अमर उजाला ने प्रधान प्रचारक के इस महान बयान को भी पहले पन्ने पर जगह दी है, “पहले ही कहा था, सोनिया में चुनाव लड़ने की हिम्मत नहीं, शहजादे तीसरी सीट खोज रहे।” इसके जवाब में जयराम रमेश का एक ट्वीट कल रात 8:02 का है। अमर उजाला को इसका पता नहीं चला होगा या उसके लिए यह खबर नहीं है। जयराम रमेश ने कहा है, “हताश, निराश और पूरी तरह से घबराए हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने एक बार फिर श्रीमती सोनिया गांधी के राज्यसभा सदस्य बनने को लेकर अटैक किया है। ऐसा लगता है कि वह भूल गए हैं कि अटल बिहारी वाजपेयी, लाल कृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, विजयाराजे सिंधिया, जसवन्त सिंह, सुषमा स्वराज और अरुण जेटली सभी राज्यसभा के सदस्य थे। हाल के दिनों में उनकी अपनी पार्टी के अध्यक्ष जेपी नड्डा, जो हिमाचल प्रदेश से हैं, गुजरात से राज्यसभा के सदस्य हैं। यहां तक कि स्वयंभू चाणक्य भी राज्य सभा के सदस्य थे। उनके बारे में उनका क्या कहना है?”
लगभग ऐसा ही इंडियन एक्सप्रेस में है शीर्षक हिन्दी में कुछ इस तरह होगा, कांग्रेस ने राहुल को राय बरेली से चुनाव में उतारा, गांधी परिवार के निष्ठावान को अमेठी का टिकट मिला। इसके साथ ठीक नीचे दो कॉलम में लगभग इतना ही बड़ा शीषर्क है, मोदी ने राहुल पर तंज कसा हार के डर से भाग गये … डरो मत, भागो मत। इसमें भी लगभग वही सब है जो अमर उजाला में है। टाइम्स ऑफ इंडिया, हिन्दुस्तान टाइम्स, दि हिन्दू में भी यह खबर लीड है। द टेलीग्राफ का शीर्षक है, राहुल ने चुनाव क्षेत्र बदला, रायबरेली पहुंचे। ठीक है कि राहुल गांधी ने पर्चा भरा है तो खबर है पर इसके साथ यह तथ्य है कि दो जगहों से लड़ रहे हैं जो गैर जरूरी है, अगर दोनों से जीत गये तो एक छोड़ना होगा और इससे महत्वपूर्ण है कि पश्चिम बंगाल के राज्यपाल पर आरोप है मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने इसपर टिप्पणी की है। यह कम महत्वपूर्ण नहीं है पर पहले पन्ने पर तो नहीं ही है।
नवोदय टाइम्स की लीड दो हिस्से में है। पहला, अमेठी छोड़ राहुल पहुंचे रायबरेली। उपशीर्षक है, अमेठी से किशोरी लाल शर्मा ने भरा पर्चा। दूसरी खबर का शीर्षक है, मोदी का राहुल पर तंज – डरो मत, भागो मत। उपशीर्षक है, अर्ध शतक का आंकड़ा पार करने के लिए संघर्ष करेगी कांग्रेस। कहने की जरूरत नहीं है कि राहुल गांधी पिछली बार अमेठी के साथ वायनाड से भी चुनाव लड़े थे और अमेठी में हार गये पर वायनाड में जीत गये थे। इस बार वायनाड से लड़ रहे हैं तो अमेठी से लड़ने की कोई जरूरत नहीं थी। बशर्ते वहां से हारने का डर न हो। सामान्य तौर पर दोनों जगह से चुनाव लड़ने का मतलब यही लगाया जाता कि वे (और उनकी पार्टी और समर्थक भी) दोनों जगहों से जीतने को लेकर निश्चिंत नहीं हैं और इसीलिए दो जगह से नामांकन किया है। इसलिए बहुत जरूरी न हो तो किसी को भी दो जगह से चुनाव नहीं लड़ना चाहिये। इसमें समय और संसाधन भी खराब होता है। न सिर्फ सरकारी और अपना भी।
इसलिए राजनीतिक जरूरतों के लिहाज से, भाजपा जब 400 सीटें जीतने का दावा कर रही है तब और एक बार अमेठी से हारने के बाद फिर अमेठी से लड़ने की कोई तुक नहीं थी। अगर वायनाड के जीत निश्चित हो तो किसी भी दूसरी जगह से चुनाव लड़ना बेमतलब है। ऐसे में उत्तर प्रदेश वापस आना ही था, जैसा अखबारों ने लिखा है तो रायबरेली से लड़ने का उनका निर्णय वायनाड छोड़ने के लिए अच्छा और संतोषजनक कारण देगा। इसी तरह अगर उपचुनाव तक प्रियंका गांधी चुनाव लड़ने के लिए तैयार हो जायें तो राहुल गांधी के लिए वायनाड या रायबरेली किसी को भी छोड़ना अमेठी के मुकाबले आसान होगा। फिर भी आज अखबारों की खबरें ऐसे छपी हैं जैसे राहुल गांधी अमेठी से नहीं लड़कर कुछ गलत कर रहे हैं, अमेठी (या उत्तर प्रदेश) से चुनाव लड़ना किसी कारण जरूरी हो या नहीं लड़ना किसी कमजोरी का निशान हो।
यह सब तब जब कांग्रेस ने ट्वीट करके आधिकारिक तौर पर कहा है कि, राहुल गांधी जी की रायबरेली से चुनाव लड़ने की खबर पर बहुत सारे लोगों की बहुत सारी राय हैं। लेकिन वह राजनीति और शतरंज के मंजे हुए खिलाड़ी हैं। और सोच समझ कर दांव चलते हैं। ऐसा निर्णय पार्टी के नेतृत्व ने बहुत विचार विमर्श करके बड़ी रणनीति के तहत लिया है। इस निर्णय से भाजपा, उनके समर्थक और चापलूस धराशायी हो गये हैं। बेचारे स्वयंभू चाणक्य जो ‘परंपरागत सीट’ की बात करते थे, उनको समझ नहीं आ रहा अब क्या करें?
• रायबरेली सिर्फ़ सोनिया जी की नहीं, ख़ुद इंदिरा गांधी जी की सीट रही है। यह विरासत नहीं ज़िम्मेदारी है, कर्तव्य है।
• रही बात गांधी परिवार के गढ़ की, तो अमेठी-रायबरेली ही नहीं, उत्तर से दक्षिण तक पूरा देश गांधी परिवार का गढ़ है। राहुल गांधी तो तीन बार उत्तरप्रदेश से और एक बार केरल से सांसद बन गये, लेकिन मोदी जी विंध्याचल से नीचे जाकर चुनाव लड़ने की हिम्मत क्यों नहीं जुटा पाये?
• एक बात और साफ़ है कि कांग्रेस परिवार लाखों कार्यकर्ताओं की अपेक्षाओं उनकी आकांक्षाओं का परिवार है। कांग्रेस का एक साधारण कार्यकर्ता ही बड़े बड़ों पर भारी है। कल एक मूर्धन्य पत्रकार अमेठी के किसी कार्यकर्ता से व्यंग में कह रही थी कि “आप लोगों का नंबर कब आएगा टिकट मिलने का”? लीजिए, आ गया! कांग्रेस का एक आम कार्यकर्ता अमेठी में भाजपा का भ्रम और दंभ दोनों तोड़ेगा।
• प्रियंका जी धुआँधार प्रचार कर रही हैं और अकेली नरेंद्र मोदी के हर झूठ का जवाब सच से देकर उनकी बोलती बंद कर रही हैं। इसीलिए यह ज़रूरी था कि उन्हें सिर्फ़ अपने चुनाव क्षेत्र तक सीमित ना रखा जाए। प्रियंका जी तो कोई भी उपचुनाव लड़कर सदन पहुँच जायेंगी।
• आज स्मृति ईरानी की सिर्फ़ यही पहचान है कि वो राहुल गांधी के ख़िलाफ़ अमेठी से चुनाव लड़ती हैं। अब स्मृति ईरानी से वो शोहरत भी छिन गई।
• अब बजाय व्यर्थ की बयानबाज़ी के, स्मृति ईरानी स्थानीय विकास के बारे में जवाब दें, जो बंद किए अस्पताल, स्टील प्लांट और आईआईआईटी हैं – उसपर जवाब देना होगा।
• शतरंज की कुछ चालें बाक़ी हैं, थोड़ा इंतज़ार कीजिए।
इस बार लोकसभा का आम चुनाव सबसे लंबा चल रहा है और भले यह भाजपा के फायदे के लिए किया गया हो, राहुल गांधी को अमेठी से चुनाव लड़ने के बारे में सोचने का मौका मिला। मेरी चिन्ता यह थी कि राहुल गांधी दोनों जगहों से जीत गये तो किसे छोड़ेंगे और क्या कहेंगे कि मतदाता नाराज भी न हों। अब यह तो स्पष्ट हो चला है कि राहुल गांधी सिर्फ वर्तमान में नहीं रहते हैं और भविष्य का भी ख्याल रखते हैं। उनक पास दो चुनाव क्षेत्र हैं तो उसे बनाये रखना चाहिये और दोनों के मतदाताओं को खुश रखना एक अच्छे राजनेता के रूप में उनकी पहली पर मुश्किल जिम्मेदारी दी। कायदे से उन्हें एक सीट छोड़नी ही थी। इसलिए कोई भी सीट छोड़ने के लिए उनके पास एक बढ़िया कारण होना चाहिये था। अमेठी से लड़ने पर वायनाड छोड़ना मुश्किल होता और अमेठी तो मुश्किल था ही। अमेठी छोड़कर वे पहले ही वायनाड भाग गये थे। इसलिए, डरो मत, भागो मत कहना सस्ती राजनीति है और अखबार इसे नहीं छापते या बताते होते कि ऐसा कहने का कोई मतलब नहीं है तो वे शायद कहते भी नहीं। हालांकि उनके कहने का भी कोई मतलब नहीं है। लोग 400 से 250 पर आ गये हैं। वास्तविकता का अंदाजा आप लगा सकते हैं, 4 जून को पक्का हो जायेगा।