भारत की राजधानी दिल्ली में दिनदहाड़े सड़कों पर सरकारी छत्र छाया में 3000 से अधिक बेकुसूर सिख नागरिकों का कत्लेआम। एक के बाद एक नौ जांच आयोग व समितियों का मजाक। कातिल और कातिलों के सरगनाओं को कैबिनेट मंत्री और सांसदियों के पुरस्कार। बाल भी बांका न हो इसके लिए जेड प्लस सुरक्षा कवच। इसके विपरीत सड़कों पर विलाप कर इंसाफ मांगती विधवाएं और अनाथ बच्चे। न्याय की किरण बुझने से मायूस हो नशे की गर्त में समा दुनिया छोड़ चुके इन विधवाओं के 200 जवान बच्चे। घर बार लुटा कर मिले 25 गज के दड़बेनुमा घर, लोगों के घर बर्तन मांज कर जीवनयापन करने को मजबूर विधवाएं और 30 सालों का पीड़ादायक इंतजार।
पीड़िताओं के दुख-सुख सुनते वरिष्ठ पत्रकार और एक्टिविस्ट जरनैल सिंह
यह भारत के माथे पर लगा वह कलंक है जिसे धोने की न तो कोई इच्छाशक्ति दिखाई देती है और न ही ग्लानि का वह भाव जो कि इसकी टीस को कुछ कम कर सके। यह कैसे विडंबना है कि एक तरफ भारत युनाइटेड नेशंस की सुरक्षा परिषद में स्थायी सीट पा कर दुनिया का थानेदार बनना चाहता है पर अपने ही देश की राजधानी में मारे गए हजारों लोगों को इंसाफ देने में असमर्थ है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी जी, दुनिया भर में बैठे सिख मुआवजे की नहीं, इंसाफ का इंतजार कर रहे हैं। बेहतर हो कि आप फास्ट ट्रैक कोर्ट, एसआईटी, पुलिस द्वारा बंद केसों को खोलने, सज्जन कुमार के खिलाफ 22 साल पहले दर्ज हुई एफआईआर को चार्जशीट में तब्दील कर कोर्ट तक पहुंचाने और संसद में निंदा प्रस्ताव पारित करने पर ध्यान दें। कातिलों को सजा से ही दर्द कम होगा, मुआवजों से नहीं, सिख कौम और देश के इनसाफपसंद लोग इन मुआवजों की दोगुना रकम आपको वापस दे सकते हैं। आप इंसाफ की मंशा दिखाइए। भविष्य में इस सब पर लगाम लग सके, इसलिए सांप्रदायिकता रोधी कानून को जल्द से जल्द संसद में पारित करें जो कि 10 साल से लंबित है।
आज इसी दिल्ली की त्रिलोकपुरी फिर से सांप्रदायिकता के बारुदी ढेर पर बैठी है। ठीक 30 साल पहले मासूम सिखों का कत्लेआम हुआ था और आज दूसरे समुदाय निशाने पर हैं। त्रिलोकपुरी का यह सांप्रदायिक तनाव याद दिलाता है कि अगर सजा देने के बजाय ‘‘भूल जाने’’ की सलाह दी जाए तो फिर नफरत की यह आग भीड़ बन कर कुछ भी कर बच जाने के विश्वास के साथ कभी सामाजिक ताने बाने को बिखेर सकती है। इसी त्रिलोक पुरी के 32 नंबर ब्लाक में 400 से अधिक बेगुनाह सिखों को जिंदा जला दिया गया था, एक भी सिख औरत ऐसी नहीं बची थी जो विधवा न हुई हो। जब यहां के एसएचओ शूरवीर त्यागी पुलिस के साथ पहुंचे तो सुबह से भीड़ का सामना कर रहे सिखों को लगा कि अब पुलिस उनकी रक्षा करेगी। त्यागी ने सिखों को अपने लाठी डंडे छोड़ अलग अलग घरों में बंद हो जाने को कहा। उसके बाद भीड़ के साथ मिल कर पुलिस ने वह तांडव रचा कि कोई सिख इस ब्लाक में नहीं बच पाया। यह शूरवीर त्यागी उन्हीं 72 पुलिस अफसरों में से एक थे जिन्हें कुसुम लत्ता मित्तल कमेटी और नानावटी आयोग ने पुलिस के माथे पर कलंक बताया था। इन्हीं विधवाओं को दो साल बाद तिलक विहार में 25 गज के मकानों से ‘विधवा कालोनी’ बसी थी।
जब नानावाटी आयोग की रिपोर्ट में कुछ तथ्य सामने निकल कर आए तो तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ‘मेरा सिर शर्म से झुकता है’ कहने के साथ ही सिखों को 1984 कत्लेआम भूल जाने की सलाह दे दी। भूलना इतना ही आसान होता तो फिर डा. मनमोहन सिंह की बेटी ने हाल में जारी अपनी किताब में वह वाकया क्यों लिखा जब 1984 में मनमोहन सिंह के घर पर ही दंगाई हमला करने पहुंच गए थे!
सन 2009 के लोकसभा चुनावों की घोषणा के बाद सीबीआई निदेशक ने जगदीश टाइटलर को क्लीन चिट और सज्जन कुमार के खिलाफ विश्वसनीय गवाह न होने की बात कह अपनी तरफ से मामला खत्म कर दिया था। बाद में यही निदेशक महोदय दक्षिण में एक राज्य के राज्यपाल बनाए गए। किसी को भी दोषी न ठहराने वाले जस्टिस रंगनाथ मिश्रा को राज्य सभा में लाया गया तो कत्लेआम के दौरान सिखों को गिरफ्तार करने वाले आमोद कंठ को राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार और फिर विधानसभा का टिकट मिला। खैर, क्लीन चिट के तुरंत बाद सज्जन कुमार और टाइटलर को लोकसभा चुनाव की टिकट मिल गई। एक पत्रकार के तौर पर मैं समझ गया था कि नानावटी आयेाग के बाद किसी जांच आयोग के 1984 कत्लेआम की जांच की कोई संभावना नहीं है। न रिपोर्ट पेश होगी न होम मिनिस्टरी को ‘‘कार्रवाई रिपोर्ट’’ संसद में पेश करने की मजबूरी होगी।
दिल्ली पुलिस कत्लेआम में शामिल थी और अब सीबीआई ने भी क्लीन चिट दे दी। कातिलों को लोकसभा के टिकट मिल गए। यानी 1984 का मुददा समाप्त। और तो और गृह मंत्री ने 2 अप्रैल 2009 को क्लीन चिट पर खुशी का इजहार कर जख्मों पर और नमक छिड़क दिया। जब 7 अप्रैल को कांग्रेस मुख्यालय में इस बाबत सवाल पूछे तो कहा कि प्रेस वार्ता का दुरुपयोग कर रहा हूं। सांकेतिक विरोध दर्ज कराया तो टिकट काटने पड़े, सज्जन कुमार के खिलाफ चार्जशीट दाखिल करने पर मजबूर हुए और टाइटलर की क्लीन चिट कोर्ट ने खारिज कर दी। अहम यह कि टिकट कटने के अगले दिन तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा कि ‘‘देर आए दुरुस्त आए’’। तो क्या किसी पत्रकार के सांकेतिक विरोध का इंतजार हो रहा था। क्या वह इतने कमजोर थे कि दोषियों के खिलाफ कार्रवाई छोड़िये, टिकट देने का विरोध करने की स्थिति में भी नहीं थे!
जो लोग भूल जाने की वकालत करते हैं उन्हें एक बार उन विधवाओं से मिल लेना चाहिए जिनकी आंखों के आंसू 30 साल बाद भी नहीं सूखे हैं। कांग्रेस मुख्यालय में तत्कालीन होम मिनिस्टर पी चिदंबरम की प्रेस कांफ्रेंस में असंवेदनशील बयान का सांकेतिक विरोध करने के बाद नवंबर 1984 कत्लेआम पर लिखी पुस्तक के प्रचार के लिए औरंगाबाद जाना हुआ तो स्पीच के बाद एक महिला रोने लगी। बोली- ”मैं आज 26 साल बाद कुछ बोलना चाहती हूं। हम इंदौर के पास रहते थे और चाचा जी की शादी के बाद नई नवेली दुल्हन को लेकर स्वर्ण मंदिर मत्था टेकने गए थे। वहीं पता चला कि पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या हो गई है। हमारी गाड़ी दिल्ली के पास पलवल पहुंची तो दंगाईयों ने गाड़ी को रोक चुन-चुन कर 200 के करीब सिखों को जिंदा जला दिया। पिता, चाचा, भाई समेत घर के छह सदस्य आंखों के सामने मौत के घाट उतार दिए। लाशें तक नहीं मिलीं। 200 लोग रेल से निकाल कर मार दिए गए पर इसकी खबर कभी किसी मीडिया में कवर नहीं हुई। शादी के बाद औरंगाबाद आ गई पर हत्याकांड को कभी नहीं भुला सकती।”
मैंने पत्रकार की सहज उत्सुकतावश पूछा कि उसके बाद फिर स्वर्ण मंदिर कब जाना हुआ! उत्तर चौंकाने वाला था। उन्होंने कहा ‘‘वीर जी, बाकी परिवार जाता है, पर मैं नहीं। स्वर्ण मंदिर जाने की बात तो छोड़िए उसके बाद तो मैं आज तक फिर से ट्रेन पर भी सफर करने का साहस नहीं कर सकी।’’ कैसी पीड़ा और सदमा लिए यह पीड़ित जीने को मजबूर हैं और नेता कहते हैं कि भूल जाओ। सच यह है कि जिसे भूलने की जितनी कोशिश करो उतनी ही याद आती है। आप उन विधवाओं से की हुई बातचीत भी नहीं भुला सकते जिनके परिवार के 10-10 मर्द आंखों के सामने जिंदा जला दिए गए और तीन-तीन दिन तक सामूहिक बलात्कार हुए और कपड़े तक नहीं पहनने दिए गए। यह पूछती हैं कि दिल्ली में एक निर्भया के लिए पूरा देश खड़ा हो गया था पर 1984 की सैकड़ों निर्भयाओं के साथ कब खड़ा होगा देश!
जिस देश के लंबे इतिहास में सदियों पहले हुई घटनाएं या भूलें जनमानस को आज भी उद्वेलित कर देती हैं और आंदोलन का कारण बनती हैं वहां एक और भयंकर भूल के प्रति आंखें कैसे मूंदी जा सकती हैं! खासकर जब कातिल, पीड़ित और गवाह अभी भी जिंदा हैं और इन्हें दरिंदगी की सजा देकर भूल की टीस को कुछ हद तक कम किया जा सकता है। कल को जब गवाह इस दुनिया में न रहें तो इतिहास को सुधारने का मौका नहीं रहेगा। यह एक आपराधिक भूल होगी और कत्लेआम इतिहास में दफन होने के बजाय नासूर बन बन कर तंग करता रहेगा। दिल्ली में ज्यादातर वह सिख मारे गए जो कि 1947 में बंटवारे का दंश झेल सब कुछ लुटा कर मेरे परिवार की तरह दिल्ली में आ कर बसे थे। लेकिन 1984 में हुई हिंसा ने अंदर तक तोड़ कर रख दिया। 1947 में तो कोई स्थान था जहां आ कर बस गए लेकिन जब दिल्ली में ही सड़कों पर जिंदा जलाया गया तो भला कहां जाते! क्या 1947 के खूनी बंटवारे के बाद पाकिस्तान के साथ संबंध सामान्य हो पाए! फिर हम कैसे सोच लेते हैं कि 1984 का कत्लेआम इतिहास में दफन हो जाएगा और उसकी टीस रह रह कर नहीं उठेगी!
पिछले कुछ चार-पांच सालों में मुझे उन सिख नौजवानों के साथ चर्चा करने का मौका मिला जो 1984 के बाद पैदा हुए हैं। इनके सवाल ज्यादा तीखे हैं। नाइंसाफी के खिलाफ प्रदर्शनों में भी यही बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेते हैं। फेसबुक और सोशल साइट्स पर कत्लेआम को नरसंहार करार देने की मुहिम भी यही चला रहे हैं। पीड़ितों के साथ ही दर्द का इतिहास दफन नहीं होता। इनके सवाल बहुत तीखे हैं। पूछते हैं कि जब जून 1984 में गिनती के हथियारबंद लोगों को स्वर्ण मंदिर से निकालने के लिए सेना, टैंक, मोर्टार इस्तेमाल किए जा सकते हैं तो फिर उसी साल नवंबर में जब राजधानी में हजारों बेगुनाह जिंदा जलाए जा रहे थे तब सेना ने एक भी गोली क्यों नहीं चलाई!
जिस दिल्ली पुलिस को नागरिकों को बचाना चाहिए था उसने खुद त्रिलोकपुरी के 32 नंबर ब्लाक में 400 सिखों का कत्लेआम करवा दिया। जब कुसुम लत्ता मित्तल कमेटी और नानावटी आयोग ने 72 पुलिस अफसरों को पुलिस के नाम पर कलंक बताते हुए कार्रवाई करने को कहा तो सरकार ने आंखें मूंद लीं! सरहद पर पाक गोलीबारी में जवान शहीद होते हैं तो सरकार उपयुक्त जवाबी कार्रवाई करती है पर 1984 में दंगाईयों के हाथों मारे गए उन 54 सैन्य अफसरों व जवानों के कातिलों को कभी याद तक नहीं किया गया जो कि घर से सरहद या सरहद से घर जाने के दौरान ट्रेन में चढे थे और मारे जाते वक्त सेना की वर्दी पहने हुए थे! सज्जन कुमार के खिलाफ नांगलोई में कत्लेआम के लिए एफआईआर 1992 में दर्ज होती है पर आज तक चार्जशीट बन कर कोर्ट नहीं पहुंच सकी। क्यों? हम आर्थिक सुधारों के लिए कानून बनाने व बदलने, न्यूक्लियर डील के लिए सरकार को दांव पर लगाने तक को तैयार रहते हैं पर सांप्रदायिक हिंसा रोधी कानून 10 साल से संसद में लंबित है, इससे पता चलता है कि हमारी प्राथमिकताएं क्या हैं. बांग्लादेश युद्ध के हीरो ले. जगजीत सिंह अरोड़ा को दंगाईयों से बचने के लिए इंद्र कुमार गुजराल की सहायता लेने को मजबूर होना पड़ा पर वह भी इंसाफ की मांग करते करते भरे दिल से दुनिया से चले गए। हिंद की चादर कहलाने वाले गुरु तेग बहादुर साहिब के शहीदी स्थान शीशगंज साहिब और रकाब गंज साहिब समेत हजारों गुरुद्वारों पर हमला हुआ लेकिन धर्मनिरपेक्षता शर्मसार नहीं हुई!
क्यों आज तक उन गवाहों को सुरक्षा नहीं दी जा सकी! नवंबर 1984 कत्लेआम की जांच के लिए तो जांच आयोग बन गए पर यह जांच कभी नहीं हुई कि 30 सालों तक न्याय क्यों नहीं हो पाया! अगर आज भी यह जांच न की गई कि न्याय की राह में किसने और कैसे रोड़े अटकाए, क्या हथकंडे अपनाए, फिर भला कैसे इनकी पुनरावृत्ति को रोक पाएंगे! राहुल गांधी को अपनी दादी की हत्या पर गुस्सा आया लेकिन हजारों बेगुनाह नागरिकों को हत्या पर नहीं…. कांग्रेस से इनसाफ की आशा भी नहीं की जा सकती। अरविंद केजरीवाल ने एसआईटी का गठन किया था लेकिन उसके बाद से कार्रवाई आगे नहीं बढी। क्या नरेंद्र मोदी 2002 गुजरात दंगों के फेर में 1984 कत्लेआम पर चुप्पी तो नहीं साध लेंगे! यदि देश हजारों नागारिकों के कातिलों को सजा न दे पाया तो फिर वह भारत एक सपना ही रह जाएगा जिसका सपना आजादी के मतवालों ने मिल कर देखा था।
लेखक जरनैल सिंह ने सिख हत्याकांड में न्याय देने को लेकर हीलाहवाली करने वाले तत्कालीन कांग्रेसी गृहमंत्री पी. चिदंबरम पर जूता उछाला था. जरनैल दैनिक जागरण समेत कई अखबारों में वरिष्ठ पदों पर रह चुके हैं. उन्होंने सिख हत्याकांड को लेकर एक किताब लिखने के अलावा अब सिखों और आम जन को गोलबंद कर इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं. जरनैल से संपर्क [email protected] के जरिए किया जा सकता है.
nirmal kaur
November 3, 2014 at 9:31 pm
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