आज के तथा कथित समाजसेवियों ने आंदोलन और समाजसेवा को मजाक बना दिया है। पूंजीपतियों के इशारे पर धरना, सेमीनार, फिर उसका पूरा दाम, अन्ना आंदोलन के बाद तो बाढ़ सी आ गई है। मीडिया और सरकारी संस्थान भी ऐसे लोगो को खोजने लगे जो काम तो चाहे कुछ भी ना करें लेकिन बहती हवा के साथ बहें। उनके पास अपना कोई विचार ना हो, समाज के प्रति कोई सोच, समझदारी और विकल्प ना हो लेकिन व्यवहार हो और आसानी से उपलब्ध हो तो उनसे ही काम चला लेते हैं।
खाये-पीये अघाये लोग गरीबी पर सेमीनार करेंगे, जिसने कभी कोई प्रशिक्षण ना लिया हो वो प्रशिक्षण देंगे। महिला हिंसा व आजादी पर बोलेंगे, बात करते नज़र आयेंगे। जो गरीब लड़कियों को आवारा और अपनी नौकरानीयों को धूर्त समझते है लेकिन घर के बाहर समाज सेवी हैं।
समाज में सुधार और बदलाव की बात करने पर उपेक्षा एवं उत्पीड़न मिलता है पर यहां तो रातों-रात नाम, शोहरत ओर दौलत मिल रही है। आज के समाज सेवियों को देख कर इरोम शर्मीला, मेधा पटकर जैसे तमाम कार्यकर्ता शर्मिंदा हो सकते हैं कि उनकी उमर बीत गई पर वो स्थान नहीं मिला को आज के तथाकथित अख़बारी आंदोलनकारियों को हासिल है।
मनु मंजु शुक्ला
लखनऊ।