अभिषेक श्रीवास्तव-
पत्रकारों की भूख-प्यास… बलिया से लेकर सीधी वाया दिल्ली पत्रकार शर्मिंदा और प्रताड़ित हो रहे हैं फिर भी सत्ता और सत्ता के लाभार्थियों से सम्मानित होने की उनकी भूख-प्यास कम नहीं हो पा रही है। कितनी शर्मिंदगी की बात है कि मध्य प्रदेश में एक अजीब सा घिचपिच आयोजन होता है राजेंद्र माथुर, प्रभाष जोशी, राहुल बरपुते आदि के नाम पर और ठीकठाक लोग वहाँ पत्रकारिता के ‘कल, आज और कल’ पर चिंतन करने पहुँच जाते हैं।
कैलाश विजयवर्गीय, किशोर ललवानी, जीतू पटवारी आदि नेताओं से अलंकृत मंच पर लोग गले में पट्टा डाल के जाने कौन सा सम्मान ग्रहण करते हैं और उस कैलाश सत्यार्थी से पत्रकारिता का ज्ञान लेते हैं, जो पत्रकारों को अपने पैसे पर पालने और मानहानि से प्रताड़ित करने के लिए कुख्यात रहे हैं। ये कैसा नोबल पुरस्कृत शांतिदूत है जो एक दिन पत्रकारों को ”शब्द की अस्मिता” पर ज्ञान देता है तो अगले दिन शब्दों का अपमान करने वाली पुलिस को राजस्थान में बराबर का उपदेश देता है! साधु की भी कोई न कोई जात होती ही है- एक साथ चतुर और घोड़ा बोलने वाला घोड़े और आदमी दोनों से ज्यादा चतुर होता है यह ज्ञान बहुत पुराना हो चुका।
आज से पाँचेक साल पहले यह दलील फिर भी चल जाती कि मुझे नहीं पता था, जाकर पता चला! अब आप क्या तर्क देंगे? मैं तो हैरान रह गया देख कर कि कार्यक्रम में जयशंकर गुप्त, डॉक्टर राकेश पाठक और जेपी दीवान तक मौजूद थे। दीवान सर तो लंबे समय से उस तरह ऐक्टिव नहीं हैं लेकिन जयशंकर जी और राकेश पाठक को क्या पड़ी थी वहाँ जाने की, ये मुझे नहीं समझ आया। भास्कर के एक अच्छे रिपोर्टर हैं सुनील बघेल। उन्होंने विजयवर्गीय से सम्मान लेते हुए लिखा है- “कैलाश विजयवर्गीय की राजनीतिक विचारधारा से असहमति के बावजूद…”। ये “बावजूद” कहाँ से आता है?
कुछ साल पहले तक समय था जब इस “बावजूद” की दार्शनिक व्याख्या और जस्टिफिकेशन ओम थानवी जनसत्ता में “आवाजाही के लोकतंत्र” के नाम पर किया करते थे। तब लगता था हाँ यार, हो सकता है हम लोग ही ज्यादा सेक्टेरियन हों, असहिष्णु हों, छुआछूत मानते हों। अब नहीं लगता। अब लगता है कि हम सही थे क्योंकि उनका काम तो विरोधी विचार और राजनीति वालों को बुलाकर खुद को जस्टफाइ करना और सामने वाले को भ्रष्ट करना ही है। यही हुआ है बीते दस साल में, लेकिन अब भी लोग उड़ कर पहुँच जा रहे हैं पत्रकारिता पर चिंतन करने उनके सानिध्य में, जो चाहते ही नहीं कि पत्रकारिता बची रहे!
स्टेट प्रेस क्लब, मध्य प्रदेश जाने कौन सी बला है! मैं नहीं जानता। हाँ, इंदौर प्रेस क्लब के अध्यक्ष रहे और उससे अलग होकर अपना यह क्लब बनाने वाले प्रवीण खारीवाल ने मुझे भी वाट्सप्प किया था प्रोग्राम का कार्ड। उसे आज खोल कर मैंने देखा। अब पता चल रहा है कि ये लोग देश भर के प्रेस क्लबों को जुटा कर दिल्ली में कुछ करना चाह रहे हैं। एजेंडा अब तक स्पष्ट नहीं है। इधर प्रेस क्लबों के ताऊ माने जाने वाले अपने प्रेस क्लब ऑफ इंडिया का हाल ये है कि प्रबंधन कमेटी का कार्यकाल खत्म हो चुका है और पूर्ण दबंगाई से बिना चुनाव की अधिसूचना के भाई लोग न सिर्फ जमे हुए हैं बल्कि सीनियर मेम्बर्स को तड़ीपार के फरमान पकड़ा रहे हैं। दिलचस्प ये है कि ऐसी अलोकतांत्रिक स्थितियों पर तमाम सीनियर सदस्य मौनव्रत पर चले गए हैं।
अगले कुछ साल के लिए अगर इस देश के पढे-लिखे सोचने समझने वाले पत्रकार पुरस्कार, मंच और लाभ का मोह छोड़ ही दें तो कौन सी आफत आ जाएगी भाई? जनता पर संगठित हमलों के दौर में क्यों बचे-खुचे लोगों की विश्वसनीयता की मिट्टी पलीद करने में लगे हैं आप लोग? कुकर्म आप करते हैं, गाली जनता के बीच जाने वालों को सुननी पड़ती है आप लोगों की वजह से। और ऐसे आयोजनों की तस्वीरें छुपती नहीं हैं। सब जानते हैं कौन किसके यहाँ क्या करने गया था।
Awesh आज कह रहे थे कि अगर पत्रकारों के कृत्य किसी भी रूप में सत्ता को लाभ पहुंचाते हैं तो हमें आपसे दिक्कत है। और यहाँ तो सीधे-सीधे संघ का मामला था- कैलाश बंधु (विजयवर्गीय और सत्यार्थी) दोनों संघ से हैं। क्या वहाँ जाने वाले, मंच साझा करने वाले और सम्मानित होने वाले ये तथ्य नहीं जानते? नहीं जानते, तो उनके पत्रकार होने पर हमें शक होना चाहिए। फिर यह प्रलाप भी व्यर्थ ही माना जाए।